Book Title: Jain Dharm Aur Sanskriti Author(s): Jyotiprasad Jain Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 6
________________ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन जैन अध्यात्म रहस्यवादात्मक आदर्शवाद पर आधारित है। उसमें शुद्ध आत्मतत्त्व की उपादेयता एवं उसकी अनुभूति के लोकोत्तरीय परमानन्द का अत्यन्त सरस एवं आकर्षक व्याख्यान है। उस अलौकिक ब्रह्मानन्द का रसपान करने के लिए वह मुमुक्षुजनों को सहज प्रेरणा प्रदान करता है । इन्द्रिय एवं प्राणी संयम पर आधारित अहिंसा-प्रधान जैनाचार व्यक्ति और समाज, दोनों के ही सर्वाधिक कल्याण का सर्वोत्तम मार्ग है । वह एक अत्युच्च सुविकसित मानव संस्कृति का प्रतीक है। व्यक्ति के लिए वह विवेकपूर्ण दृष्टिकोण, अहिंसात्मक आचार-विचार, आत्मविश्वास, विचार-स्वातन्त्र्य, शरीर-साधना एवं आत्मसंयम पर बल देता है और उसे धर्माचरण में निरन्तर यथाशक्ति उद्योगी बने रहने की प्रेरणा देता है। व्यक्ति का अन्तर्मुखी एवं व्यवस्थित जीवन ही समष्टि के कल्याण और सामूहिक शान्ति का अमोध उपाय है। कृत्रिम उपायों और स्वार्थ प्रसूत योजनाओं से शान्ति स्थापित नहीं होती । अहिंसा और अपरिग्रह ही विश्व शान्ति के जनक हैं। यह धर्म वर्गविशेष का न होकर प्राणीमात्र का समानभाव से कल्याणकारी है । आत्मा सत्य है, उसी में सौन्दर्य है और वह सौन्दर्य ही विश्व का परिचायक है, अतः सत्य-शिव-सुन्दरं रूप आत्मतत्त्व की उपलब्धि तथा अनुभति में ही व्यक्ति और समष्टि का कल्याण निहित है। अर्हन्त आदि जो महान् आत्माएँ इस प्रयास में सफल होकर परमेष्ठी पद को प्राप्त हो गई हैं, आदर्श बन गई हैं, उस आदर्श अवस्था को स्वयं प्राप्त करने के लिए ही उन आदर्श पुरुषों की पूजा, उपासना, गुणानुवाद, ध्यान आदि की व्यवस्था जैन क्रियाकाण्ड एवं धार्मिक अनुष्ठानों में की गयी है। आत्मशोधन के अर्थ स्वाध्याय, सामायिक, दान, व्रत, तप (उपवास आदि) का यम-नियम रूप से करने का विधान है। जन संस्कृति का साध्य मोक्ष होने के कारण उसकी बाह्य प्रवृत्तियाँ भी निवृत्तिमूलक ही हैं। यही कारण है कि उसके साहित्य और कला में भी मुख्यतया शान्तरस ही प्रवाहित हुआ है। जैनदर्शन की सर्वोपरि विशेषता उसका स्याद्वाद सिद्धान्त है । अनेकान्त अथवा स्याद्वाद पदार्थों पर सब ही संभव दृष्टि-विन्दुओं से विचार करता है और दूसरों के विचारों का आदर करना तथा उनके प्रति सहिष्णुता सिखाता है। कैसा भी विरोधी हो उसके विचारों के साथ में एक स्याद्वादी शान्तिपूर्वक समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करता है। सभी के मत में कुछ न कुछ सत्य निहित है, यदि उसे उपयुक्त दृष्टिकोण से देखा जाय । विवाद की जड़ तो यह कदाग्रह है कि मैं ही सर्वथा ठीक हूँ, अन्य सब गलत है। यह मनोवृत्ति ही एकान्त है, और अनेकान्त परिसंवाद ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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