Book Title: Jain Dharm Aur Sanskriti
Author(s): Jyotiprasad Jain
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और संस्कृति डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन स्वामी (ज्ञात तिथि शाके ७५९-८३७ ई.) के अनुसार,' 'इति इह आसीत्'–यहाँ ऐसा घटित हुआ—इस प्रकार की घटनावलि एवं कथानकों का निरूपण करने वाला साहित्य 'इतिहास', 'इतिवृत्त' या 'ऐतिह्य कहलाता है, परम्परागत होने से वह 'आम्नाय', प्रमाण पुरुषों द्वारा कहा गया या निबद्ध हुआ होने से 'आर्ष', तत्त्वार्थ का निरूपक होने से 'सूक्त' और धर्म (हेयोपादेय विवेक अथवा पुण्य प्रवृत्तियों) का प्रतिपादक एवं पोषक होने के कारण 'धर्मशास्त्र' कहलाता है। इस प्रकार इस परिभाषा में इतिहास का तत्त्व, प्रकृति, तथा उसके राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सभी अंगों का समावेश हो जाता है। आज इतिहास का जो विशद व्यापक अर्थ ग्रहण किया जाता है, उक्त पुरातन जैनाचार्य को भी वह अभिप्रेत था । इतिहास, विशेषकर प्राचीन भारतीय इतिहास का आशय भारतीय संस्कृति का यथासम्भव सर्वांग इतिहास है, जिसके अन्तर्गत विवक्षित युग में देश में प्रचलित विभिन्न धर्मों, दर्शनों, समुदायों तथा तत्तद संस्कृतियों, साहित्य-कला, आचार-विचार, लोक-जीवन आदि के विकास का इतिहास समाविष्ट होता है। जैन संस्कृति भारतवर्ष की सुदूर अतीत से चली आई, पूर्णतया देशज एवं पर्याप्त महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक धारा है। उसके सम्यक् ज्ञान के बिना भारतीय संस्कृति के इतिहास का ज्ञान अधूरा-अपूर्ण रहता है। ___ 'जयतीति जिनः' व्युत्पत्ति के अनुसार सर्व प्रकार के आत्मिक-मानसिक विकारों पर पूर्ण विजय प्राप्त करके इसी जीवन में परम प्राप्तव्य को प्राप्त करने वाले 'परमात्मा', 'जिन' या 'जिनेन्द्र' कहलाते हैं। वन्दनीय, पूजनीय एवं उपासनीय होने १. इतिहास इतीष्टं तद् इतिहासीदिति श्रुतेः । इतिवृत्तमथैतिह्यमाम्नायञ्चामनन्ति तत् ॥ २४ ॥ ऋषिप्रणीतमार्षस्यात् सूक्तं सुनृतशासनात् । धर्मानुशासनाच्चेदं धर्मशास्त्रमिति स्मृतम् ॥ २५ ॥ --आदिपुराण, सर्ग १। परिसंवाद-४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ जैनदिद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन के कारण वे 'अर्हं या 'अरहंत', दुःखपूर्ण संसार सागर को पार करने के हेतु कल्याणप्रद धर्म- तीर्थ का प्रवर्तन करने के कारण 'तीर्थंकर', समस्त अन्तर एवं बाह्य परिग्रह से मुक्त होने के कारण 'निर्ग्रन्थ' और स्वपुरुषार्थ द्वारा श्रमपूर्वक समत्व की साधना एवं आत्मशोधन करने के कारण 'श्रमण' कहलाते हैं । उन्हीं ऋषभादि-महावीर पर्यन्त चौबीस निर्ग्रथ श्रमण अर्हतु केवलि-जिन तीर्थंकरों द्वारा स्वयं जानी गई, अनुभव की गई, आचरण की गई और विना किसी भेदभाव के 'सर्वसत्वानां हिताय, सर्वसत्वानां सुखाय' उपदेशित एवं प्रचारित धर्मव्यवस्था का ही नाम जैनधर्म है उनके अनुयायी जैन या जैनी, श्रमणोपासक अथवा श्रावक भी कहलाते हैं । इन अहिंसा एवं निवृत्ति प्रधान परम्परा द्वारा पल्लवित पोषित संस्कृति ही जैन संस्कृति है । प्राचीनता इस परम्परा के मूलस्रोत प्राग्ऐतिहासिक पाषाण एवं धातु-पाषाण युगीन आदिम मानव सभ्यताओं की जीववाद ( एनिमिज्म) प्रभृति मान्यताओं में खोजे गए हैं । सिन्धु उपत्यका में जिस धातु-लौह युगीन प्रागऐतिहासिक नागरिक सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं उसके अध्ययन से एक सम्भावित निष्कर्ष यह निकाला गया है कि उस काल और क्षेत्र में वृषभ-लांछन दिगम्बर योगिराज ऋषभ की पूजा-उपासना प्रचलित थी । उक्त सिन्धु सभ्यता को प्राग्वैदिक एवं अनार्य ही नहीं अपितु प्रागार्थ भी मान्य किया जाता है, और इसी कारण सुविधा के लिए उसे बहुधा द्राविड़ीय संस्कृति संज्ञा दी जाती है । वैदिक परम्परा के आद्यग्रन्थ स्वयं ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर ऋषभदेव के आदर पूर्वक प्रत्यक्ष तथा परोक्ष उल्लेख हुए हैं । स्पष्ट नामोल्लेखों के अतिरिक्त, वैदिक संहिताओं के अर्हतु केशी, व्रात्य, वातरशना, मुनि आदि शब्द ऋषभ के लिए ही प्रयुक्त हुए प्रतीत होते हैं, ऋतु, सत्य, अहिंसा, सदाचार आदि शब्द उनकी विशिष्ट मान्यताओं या प्रस्थापनाओं के सूचक हैं, और श्रमण, मुनि, यति आदि शब्द उनके अनुसर्ताओं के । वैदिक उल्लेखों एवं संकेतों का विशदीकरण तथा स्पष्टीकरण पुराण ग्रन्थों में किया गया माना जाता है, और भागवत्, विष्णु, मार्कण्डेय, ब्रह्माण्ड आदि प्रमुख पुराणों में परमेश्वर के अष्टम अवतार के रूप में जिन नाभेय ऋषभदेव का वर्णन हुआ है वह ऋग्वेदादि में उल्लिखित ऋषभ ही हैं, इस विषय में प्रायः कोई सन्देह नहीं किया जाता । इन वर्णनों में और जैन पौराणिक अनुश्रुतियों में उपलब्ध प्रथम तीर्थंकर आदिदेव नाभिसुत ऋषभ के वर्णनों में ऐसा अद्भुत सादृश्य है जो इस तथ्य को असंदिग्ध बना देता है कि दोनों ही परम्पराओं में अभिप्रेत पुराणपुरुष परिसंवाद -४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और संस्कृति ऋषभ एक ही व्यक्ति हैं, जो अन्तर है वह इतना ही है कि प्रत्येक परम्परा ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपने-अपने रंग में रंगने का प्रयत्न किया है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पाषाणकालीन प्रकृत्याश्रित असभ्य युग (भोगभूमि) का अन्त करके ज्ञानविज्ञान संयुक्त कर्मप्रधान मानवी सभ्यता का जनक इन आदि तीर्थंकर ऋषभदेव को ही माना जाता है । उनका ज्येष्ठ पुत्र भरत ही इस देश का सर्वप्रथम चक्रवर्ती सम्राट था और इसी के नाम पर यह देश 'भारत' या 'भारतवर्ष' कहलाया, यह जैन पौराणिक अनुश्रुति वैदिक साहित्य एवं ब्राह्मणीय पुराणों से समथित है। ऋषभ के उपरान्त समय-समय पर २३ अन्य तीर्थंकर हुए जिन्होंने उनके सदाचार-प्रधान योगधर्म का पुनः प्रचार किया और जैन संस्कृति का पोषण किया। बीसवें तीर्थंकर मुनिसुवृतनाथ के तीर्थ में अयोध्यापति रामचन्द्र हुए जिन्होंने श्रमण-ब्राह्मण उभय संस्कृतियों के समन्वय का भागीरथ प्रयत्न किया, एतदर्थ वे दोनों परम्पराओं में परमात्मरूप में उपास्य हुए। इक्कीसवें तीर्थंकर नमि विदेह के जनकों के पूर्वज मिथिला नरेश थे जो उस अध्यात्मिक परम्परा के सम्भवतया आद्य प्रस्तोता थे, जिसने जनकों के प्रश्रय में औपनिषदिक आत्मविद्या के रूप में विकास किया ।' बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) नारायण कृष्ण के ताऊजात भाई थे। दोनों ही जैन परम्परा के शलाकापुरुष हैं। दोनों ही भारतयुद्ध के समसामयिक ऐतिहासिक नरपुंगव हैं। अरिष्टनेमि ने श्रमणधर्म पुनरुत्थान का नेतृत्व किया तो कृष्ण ने उभय परम्पराओं के समन्वय का स्तुत्य प्रस्तुत किया। तेइसवें तीर्थंकर पार्श्व (७७७८७७ ई० पू०) काशी के उरगवंशी क्षत्रिय राजकुमार थे और श्रमण धर्म पुनरुत्थान आन्दोलन के सर्वमहान् नेता थे, सम्भवतया इसी कारण अनेक आधुनिक इतिहासकारों ने तीर्थंकर पार्श्व को ही जैनधर्म का प्रवर्तक मान लिया। इसमें सन्देह नहीं कि २. देखिए-डॉ. हीरालाल जैन-'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान', पृ० ११-१९; डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन- 'जैनिज्म : दी ओल्डेस्ट लिविंग रिलीजन', पृ० ४०-४६; तथा 'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि' (द्वि० सं०), पृ० २१-२९। ३. वही, पृ० २४; स्वामी कर्मानन्द-'भारत का आदि सम्राट', तथा 'भरत और भारत' । ४. 'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि', पृ० ३२ । ५. डा० हीरालाल जैन, वही, पृ० १९-२० । ६. 'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि'; पृ० ३३, ४२-४५ । परिसंवाद-४ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन पार्श्व अपने समय के सर्वमान्य महापुरुष थे। उनका चातुर्याम धर्म प्रसिद्ध है। अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर, बौद्ध साहित्य में जिनका निगंठनातपुत्त (निर्ग्रथज्ञातृपुत्र) के नाम से उल्लेख हुआ है; का जीवन काल ५९९-५२७ ई. पूर्व है। बुद्ध प्रभृति महामानवों के उस महायुग में उत्पन्न महामानव महावीर का व्यक्तित्व एवं कृतित्व ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । श्रमण पुनरुत्थान आन्दोलन पूर्णतया निष्पन्न हुआ, इसका अधिकांश श्रेय महावीर को है। संघ का पुनर्गटन करके जैनधर्म को जो रूप उन्होंने प्रदान किया वही गत अढ़ाई सहस्र वर्षों के जैन संस्कृति के विकास के इतिहास का मूलाधार है। महावीर के निर्वाणोपरान्त उनकी शिष्य परम्परा के साधु-साध्वियों ने उनके सन्देश को देश के कोने-कोने में पहुँचाया। उनकी आठवीं पीढ़ी में श्रुतकेवलि भद्रबाहु के समय पर्यन्त महावीर का संघ प्रायः अविच्छिन्न बना रहा, किन्तु द्वादशवर्षीय भीषण दुर्भिक्ष के कारण उक्त आचार्य संघ के एक बड़े भाग सहित दक्षिणापथ को विहार कर गए जहाँ कर्णाटक आदि विभिन्न प्रदेशों में जैनधर्म के अनेक नवीन केन्द्र विकसित हुए। भद्रबाहु के आम्नायशिष्य मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी गुरु का अनुगमन करके कर्णाटक देशस्थ कटवप्रनामक पर्वत पर अन्तिम जीवन एक जैनमुनि के रूप में व्यतीत किया । दुष्काल की अवधि में जो साधु उत्तरापथ में ही बने रहे, वे स्वभावतः शिथिलाचार से अपनी रक्षा न कर सके । मालवा, गुजरात प्रभृति पश्चिमीय प्रदेश उनके केन्द्र बने । आचार-विचार की दृष्टि से इन दक्षिणी और पश्चिमी शाखाओं के बीच मतभेद की खाई बढ़ती गई, जिसने कालान्तर में (प्रथम शती ई. के अंतिम पाद में) दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदाय भेद को जन्म दिया । एक तीसरी शाखा का केन्द्र शूरसेन देश की महानगरी मथुरा रही जो विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों एवं जातियों का भी चिरकाल तक महत्त्वपूर्ण संगम-स्थल बनी रही। मथुरा के जैनसंघ ने उपर्युक्त दोनों शाखाओं के बीच समन्वय करने के स्तुत्य प्रयत्न किये, उन्होंने उस महान् सरस्वती आंदोलन का नेतृत्व एवं प्रचार किया जिसके फलस्वरूप गुरु-शिष्य परम्परा में मौखिक द्वार से संरक्षित एवं प्रवाहित द्वादशांगश्रुत रूप जिनागम के महत्त्वपूर्ण ७. देखिए-ज्यो० प्र० जैन, 'रिवाइवल आफ श्रमणधर्म इन लेटर वैदिक एज' ('जैन जर्नल', २९७१-७२); 'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि', पृ० ४५-५० । ८. वही, पृ० ५०, ५४-५९ । ९. वही, पृ० ८८-८९ । परिसंवाद-४ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और संस्कृति ११ अंशों का पुस्तकीकरण तथा पुस्तक - साहित्य प्रणयन का प्रवर्त्तन हुआ |" तदन्तर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर, उभय सम्प्रदायों का स्वतन्त्र विकास प्रारम्भ हुआ, संघभेद होते रहे, नये-नये सम्प्रदाय उपसम्प्रदाय बनते रहे, आचार-विचार में भी देशकालानुसार परिवर्तन होते रहे । जैन संस्कृति का सर्वतोमुखी संवर्धन होता रहा । कभी-कभी और कहीं-कहीं पर्याप्त उत्थान अथवा पतन भी हुए । प्रमुख राज्याश्रय एवं जनसामान्य का समर्थन प्राप्त हुआ तो साम्प्रदायिक विद्वेष और अत्याचार का शिकार भी होना पड़ा । प्रथम-द्वितीय शताब्दी ईस्वी से लेकर प्रायः अठारहवीं शताब्दी पर्यन्त उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में जैनधर्म का विशेष उत्कर्ष एवं प्रभाव रहा । यों, राजस्थान के विभिन्न राज्य, मध्य-भारत, विदर्भ, गुजरात और कर्णाटक जैन संस्कृति के प्रमुख गढ़ रहे हैं। देश के प्रायः प्रत्येक नगर, राजधानी, शासन केन्द्र, व्यार एवं व्यवसाय केन्द्र में इस धर्म के अनुयायी सदैव अल्पाधिक संख्या में पाए जाते रहे हैं | अपनी शिक्षा-दीक्षा एवं सामान्य समृद्धि के कारण वे धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, आचार-विचार, प्रायः सभी क्षेत्रों में अपनी स्पृहणीय सांस्कृतिक बपौती के सफल संरक्षक रहे हैं । संपूर्ण देश की भावात्मक एकता के संपादन में, वर्तमान युग के स्वातन्त्र्य संग्राम में तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र के नवनिर्माण में उनका यथोचित एवं महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । प्रमुख विशेषताएँ जैन तत्त्वज्ञान यथार्थवादी है । वह विश्व के समस्त इन्द्रियगोचर अथवा अगोचर पदार्थों की सत्ता को स्वीकार करता है और उनका विशद एवं वैज्ञानिक विश्लेषण तथा निरूपण करता है । जैन कर्म सिद्धान्त नियतिवाद का निषेध करता है— भाग्य, दैव अथवा ईश्वर के आसरे हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने को मूर्खता घोषित करता है, पुरुषार्थं एवं आत्मनिर्भरता के महत्त्व को प्रदर्शित करता है तथा स्फूर्तिदायक आत्मविश्वास, इच्छाशक्ति एवं मनोबल को पुष्ट करता है । सुविकसित जैन न्यायशास्त्र से परिपुष्ट जैन दर्शन पूर्वोक्त प्रयोजनभूत तत्त्वों का तर्कपूर्ण अकाट्य शैली में प्रतिपादन करता है । जैन न्यायदर्शन भारतीय न्याय शास्त्र का महत्त्वपूर्ण अंग है । इसने जैन सिद्धान्त को मात्र आज्ञा - प्रधान होने के स्थान पर परीक्षा-प्रधान एवं बुद्धिगम्य बना दिया है । १०. डॉ. ज्यो० प्र० जैन - 'दी ना सोर्सेज आफ दी हिस्टरी आफ एन्शेन्ट इंडिया', पृष्ठ १००-११९ । परिसंवाद - ४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन जैन अध्यात्म रहस्यवादात्मक आदर्शवाद पर आधारित है। उसमें शुद्ध आत्मतत्त्व की उपादेयता एवं उसकी अनुभूति के लोकोत्तरीय परमानन्द का अत्यन्त सरस एवं आकर्षक व्याख्यान है। उस अलौकिक ब्रह्मानन्द का रसपान करने के लिए वह मुमुक्षुजनों को सहज प्रेरणा प्रदान करता है । इन्द्रिय एवं प्राणी संयम पर आधारित अहिंसा-प्रधान जैनाचार व्यक्ति और समाज, दोनों के ही सर्वाधिक कल्याण का सर्वोत्तम मार्ग है । वह एक अत्युच्च सुविकसित मानव संस्कृति का प्रतीक है। व्यक्ति के लिए वह विवेकपूर्ण दृष्टिकोण, अहिंसात्मक आचार-विचार, आत्मविश्वास, विचार-स्वातन्त्र्य, शरीर-साधना एवं आत्मसंयम पर बल देता है और उसे धर्माचरण में निरन्तर यथाशक्ति उद्योगी बने रहने की प्रेरणा देता है। व्यक्ति का अन्तर्मुखी एवं व्यवस्थित जीवन ही समष्टि के कल्याण और सामूहिक शान्ति का अमोध उपाय है। कृत्रिम उपायों और स्वार्थ प्रसूत योजनाओं से शान्ति स्थापित नहीं होती । अहिंसा और अपरिग्रह ही विश्व शान्ति के जनक हैं। यह धर्म वर्गविशेष का न होकर प्राणीमात्र का समानभाव से कल्याणकारी है । आत्मा सत्य है, उसी में सौन्दर्य है और वह सौन्दर्य ही विश्व का परिचायक है, अतः सत्य-शिव-सुन्दरं रूप आत्मतत्त्व की उपलब्धि तथा अनुभति में ही व्यक्ति और समष्टि का कल्याण निहित है। अर्हन्त आदि जो महान् आत्माएँ इस प्रयास में सफल होकर परमेष्ठी पद को प्राप्त हो गई हैं, आदर्श बन गई हैं, उस आदर्श अवस्था को स्वयं प्राप्त करने के लिए ही उन आदर्श पुरुषों की पूजा, उपासना, गुणानुवाद, ध्यान आदि की व्यवस्था जैन क्रियाकाण्ड एवं धार्मिक अनुष्ठानों में की गयी है। आत्मशोधन के अर्थ स्वाध्याय, सामायिक, दान, व्रत, तप (उपवास आदि) का यम-नियम रूप से करने का विधान है। जन संस्कृति का साध्य मोक्ष होने के कारण उसकी बाह्य प्रवृत्तियाँ भी निवृत्तिमूलक ही हैं। यही कारण है कि उसके साहित्य और कला में भी मुख्यतया शान्तरस ही प्रवाहित हुआ है। जैनदर्शन की सर्वोपरि विशेषता उसका स्याद्वाद सिद्धान्त है । अनेकान्त अथवा स्याद्वाद पदार्थों पर सब ही संभव दृष्टि-विन्दुओं से विचार करता है और दूसरों के विचारों का आदर करना तथा उनके प्रति सहिष्णुता सिखाता है। कैसा भी विरोधी हो उसके विचारों के साथ में एक स्याद्वादी शान्तिपूर्वक समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करता है। सभी के मत में कुछ न कुछ सत्य निहित है, यदि उसे उपयुक्त दृष्टिकोण से देखा जाय । विवाद की जड़ तो यह कदाग्रह है कि मैं ही सर्वथा ठीक हूँ, अन्य सब गलत है। यह मनोवृत्ति ही एकान्त है, और अनेकान्त परिसंवाद ४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और संस्कृति उसका निरसन करता है। अनेकान्तिक मनोवृत्ति ही विश्व में शान्ति, मैत्री, सहयोग एवं सद्भाव स्थापित करने में समर्थ हो सकती है। इतिहास साक्षी है कि जैन धर्मानुयायियों ने जिनमें बड़े बड़े शक्तिशाली सम्राट एवं नरेश भी हुए हैं, और कहीं-कहीं बहुभाग जनसाधारण भी रहे हैं, कभी भी किसी अन्य धर्म पर अत्याचार नहीं किया, यद्यपि उसे स्वयं कतिपय विरोधियों के नृशंस अत्याचारों का कई बार शिकार होना पड़ा । वस्तुतः शान्तिप्रियता एवं सहिष्णुता जैनधर्म की महान विशेषताएँ रही हैं और उनका मुख्य कारण सप्तभंगी न्यायाश्रित अनेकान्तात्मक स्याद्वाद है। यह सिद्धान्त चार्वाक के थोथे यथार्थवाद और नैयायिकों के लचर आदर्शवाद, दोनों से ही बचकर चला है। प्रो. ध्रुव के अनुसार 'स्याद्वाद ऐसा काल्पनिक सिद्धान्त मात्र नहीं है जिसका प्रणयन किसी तत्त्विक समस्या का हल करने के लिए किया गया हो, अपितु उसका सम्बन्ध मनुष्य के वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक जीवन से है। स्याद्वाद में तो विरोधी स्वरों का ऐसा सुन्दर समन्वय हुआ है कि उससे एक पूर्ण समन्वित स्वरलहरी गूंज उठती है।" और डॉ. ए. एन. उपाध्ये का कथन है कि “स्याद्वाद का लक्ष्य आधुनिक दार्शनिक चिन्तन के क्षेत्र के सर्वथा अनुरूप है। स्याद्वाद का लक्ष्य वैयक्तिक दृष्टियों का एकीकरण, समीकरण, समन्वय तथा संश्लेषण करके उन्हें एक व्यवहारिक पूर्णता प्रदान करना है। यह दार्शनिक को एक सावभौमिक दृष्टि प्रदान करता है और उसे यह निश्चय करा देता है कि सत्य के ऊपर अपनी-अपनी परिधि में सीमित भिन्न नामधारी मत-मतान्तरों में से किसी का भी एकाधिपत्य नहीं है। धर्म मुमुक्षु को यह एक ऐसी बौद्धिक सहिष्णुता प्रदान करता है जो उस अहिंसा सिद्धान्त के सर्वथा अनुरूप है जिसकी पुष्टि जैनधर्म सहस्रों वर्षों से निरन्तर करता चला आ रहा है। जहाँ तक भारतीय दार्शनिक चिन्तन में जैन दर्शन के स्थान का प्रश्न है, महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा का कहना है कि 'निसंदेह कतिपय सिद्धान्तों में जैन दर्शन का बौद्ध, वेदांत, सांख्य-न्याय और वैशेषिक दर्शनों के साथ साम्य है, किन्तु इस तथ्य से जैन दर्शन का स्वतन्त्र अस्तित्व, उदय और विकास असिद्ध नहीं होते। यदि कतिपय भारतीय दर्शनों के साथ उसका कुछ सादृश्य भी है तो साथ ही उसकी अपनी भी निराली विशेषताएँ तथा उन दर्शनों से स्पष्ट मौलिक भेद भी हैं।' प्रो. जी. सत्यनारायण मूर्ति के शब्दों में 'जैन धर्म के कुछ सिद्धान्त उसके अपने विशिष्ट तथा निराले हैं और वे उसपर एक स्वतन्त्र स्वाधीन अस्तित्व की छाप छोड़ते हैं। चिन्ताहरण चक्रवर्ती का कथन है कि 'यद्यपि अपने वर्तमान ज्ञान के आधार पर हमारे लिए परिसंवाद-४ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन जैन और ब्राह्मण धर्मों से सम्बधित अनेक बातों की आपेक्षिक प्राचीनता को निश्चित करना सम्भव नहीं है तथापि जैनधर्म को यथार्थवादिता एवं बुद्धिवादिता एक सामान्य दृष्टा का भी ध्यान आकर्षित करने से नहीं चूकती? अन्त में डॉ. हर्मन जेकोबी के शब्दों में 'मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूँ कि जिन धर्म अन्य सब धर्मों से सर्वथा विलक्षण एवं स्वतन्त्र मौलिक धर्म है और इसी कारण प्राचीन भारत के दार्शनिक चिन्तन तथा धार्मिक जीवन का अध्ययन करने के लिए उसका प्रभूत महत्त्व है।' इस प्रकार, भारत की प्राचीन श्रमण संस्कृति तथा अध्यात्म प्रधान महान् मागध धर्म के सजीव, सतेज प्रतिनिधि के रूप में जन-धर्म जैन दर्शन और जैन संस्कृति का भारतीय धर्मों, दर्शनों और संस्कृतियों में ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व के दार्शनिक चिन्तन, धार्मिक इतिहास एवं सांस्कृतिक विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। दूसरी शती ईस्वी के आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में 'महावीर प्रभृति श्रमण तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित एवं प्रचारित यह सर्वोदय तीर्थ, मानवमात्र का उन्नायक एवं कल्याणकर्ता है।' ज्योति निकुंज, चारबाग लखनऊ, उत्तर प्रदेश / परिसंवाद-४