Book Title: Jain Dharm Aur Sanskriti Author(s): Jyotiprasad Jain Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 1
________________ जैन धर्म और संस्कृति डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन स्वामी (ज्ञात तिथि शाके ७५९-८३७ ई.) के अनुसार,' 'इति इह आसीत्'–यहाँ ऐसा घटित हुआ—इस प्रकार की घटनावलि एवं कथानकों का निरूपण करने वाला साहित्य 'इतिहास', 'इतिवृत्त' या 'ऐतिह्य कहलाता है, परम्परागत होने से वह 'आम्नाय', प्रमाण पुरुषों द्वारा कहा गया या निबद्ध हुआ होने से 'आर्ष', तत्त्वार्थ का निरूपक होने से 'सूक्त' और धर्म (हेयोपादेय विवेक अथवा पुण्य प्रवृत्तियों) का प्रतिपादक एवं पोषक होने के कारण 'धर्मशास्त्र' कहलाता है। इस प्रकार इस परिभाषा में इतिहास का तत्त्व, प्रकृति, तथा उसके राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सभी अंगों का समावेश हो जाता है। आज इतिहास का जो विशद व्यापक अर्थ ग्रहण किया जाता है, उक्त पुरातन जैनाचार्य को भी वह अभिप्रेत था । इतिहास, विशेषकर प्राचीन भारतीय इतिहास का आशय भारतीय संस्कृति का यथासम्भव सर्वांग इतिहास है, जिसके अन्तर्गत विवक्षित युग में देश में प्रचलित विभिन्न धर्मों, दर्शनों, समुदायों तथा तत्तद संस्कृतियों, साहित्य-कला, आचार-विचार, लोक-जीवन आदि के विकास का इतिहास समाविष्ट होता है। जैन संस्कृति भारतवर्ष की सुदूर अतीत से चली आई, पूर्णतया देशज एवं पर्याप्त महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक धारा है। उसके सम्यक् ज्ञान के बिना भारतीय संस्कृति के इतिहास का ज्ञान अधूरा-अपूर्ण रहता है। ___ 'जयतीति जिनः' व्युत्पत्ति के अनुसार सर्व प्रकार के आत्मिक-मानसिक विकारों पर पूर्ण विजय प्राप्त करके इसी जीवन में परम प्राप्तव्य को प्राप्त करने वाले 'परमात्मा', 'जिन' या 'जिनेन्द्र' कहलाते हैं। वन्दनीय, पूजनीय एवं उपासनीय होने १. इतिहास इतीष्टं तद् इतिहासीदिति श्रुतेः । इतिवृत्तमथैतिह्यमाम्नायञ्चामनन्ति तत् ॥ २४ ॥ ऋषिप्रणीतमार्षस्यात् सूक्तं सुनृतशासनात् । धर्मानुशासनाच्चेदं धर्मशास्त्रमिति स्मृतम् ॥ २५ ॥ --आदिपुराण, सर्ग १। परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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