Book Title: Jain Darshan me Tattva chintan
Author(s): Dharmasheeliashreeji
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 3
________________ जैनदर्शन में तत्त्व-चिन्तन ३३५ . o० त्रस जीवों को उनकी इन्द्रियों के आधार पर चार भागों में बांटा गया है-(१) बेइन्द्रिय (२) तेइन्द्रिय (४) चउरिन्द्रिय (४) पंचेन्द्रिय । मनुष्य, देव तथा नारक त्रस माने जाते हैं। इस प्रकार संसारी जीवों के ४ भेद हैं-(१) नारक (२) तिर्यच, (३) मनुष्य, (४) देव । इन संसारी जीवों में सामान्यतः देव सौधर्म विमान से लेकर सर्वार्थसिद्ध पर्यंत ऊर्ध्वलोक में, मनुष्य और तिर्यंच मध्यलोक में और नारक रत्नप्रभादि अधोलोक में निवास करते हैं । देवों और नारकों के उनके निवास स्थान की अपेक्षा से और भी अनेक भेद हैं, जिनका विस्तृत विवेचन अन्य दूसरे ग्रन्थों में किया गया है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में से द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव अपने हित के लिए हलनचलन कर सकते हैं, अतः उन्हें 'त्रस' कहा जाता है । एकेन्द्रिय जीव अपने हिताहित के लिए हलन-चलन नहीं कर सकते, ' इसलिए उन्हें 'स्थावर' कहते हैं । एकेन्द्रिय जीव में भी सजीवता बताने के लिए भगवान महावीर ने मानव शरीर के साथ वनस्पति की तुलना की है और बताया है कि, मनुष्य की तरह वनस्पति भी बाल, युवा और वृद्धावस्थाओं का उपभोग करती है। वृक्ष भी मनुष्य की तरह सुख-दुःख के अनुभव करते हैं । मनुष्य की तरह उन्हें भी भूख प्यास लगती है। वे भी मनुष्य की तरह बढ़ते हैं और सूखते हैं । आयुष्य पूर्ण हो जाने पर वृक्ष भी मनुष्य की तरह मरते हैं, इसलिए वे सजीव हैं। वनस्पति की तरह पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में भी वही समझना चाहिए। भगवान महावीर ने हजारों वर्षों पूर्व वनस्पति में जीव है, इस तथ्य का निरूपण कर दिया था। आज के विज्ञान युग में वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. जगदीशचन्द्र बसु ने इसे सिद्ध कर दिया है । जीव ज्ञान, दर्शन, आनन्दादि उत्तमोत्तम गुणों का धाम होने से नव तत्त्वों में सर्वोत्तम, सर्वप्रधान माना गया है। वह कर्म का कर्ता एवं भोक्ता है, इसलिए उसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। अजीव-जीव तत्त्व का प्रतिपक्षी अजीव तत्त्व है। अर्थात् जीव के विपरीत अजीव है । जिसमें चेतना नहीं है, जो सुख-दुःख की अनुभूति भी नहीं कर सकता है, वह अजीव है । अजीव को जड़, अचेतन भी कहते हैं । जगत के समस्त जड़-पदार्थ ईट, चूना, चाँदी, सोना आदि भौतिक-मूर्त तथा आकाश, काल आदि जो अमूर्त-जड़ पदार्थ हैं, वे सब अजीव हैं। अजीव तत्त्व के भेद-अजीव के पांच भेद हैं-(१) पुद्गल, (२) धर्म, (३) अधर्म, (४) आकाश और (५) काल । उक्त पाँच भेदों में से धर्म, अधर्म, आकाश और काल अमूर्त हैं और पुद्गल मूर्त है । अमूर्त के लिए आगमों में 'अरूपी' तथा मूर्त के लिए 'रूपी' शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श न हों, जो आँखों से दिखाई न दे, उसे 'अरूपी' कहते हैं । जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श है तथा जिसके अनेक आकार-प्रकार बन सकें उसे 'रूपी' कहते हैं। धर्म-यह गति सहायक तत्त्व है । जिस प्रकार मछली को गमन करने में पानी सहकारी निमित्त है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल द्रव्य को धर्म द्रव्य गमन करने में सहकारी कारण माना गया है।' अधर्म-यह स्थिति सहायक तत्त्व है । जीव और पुद्गलों को ठहराने में उसी प्रकार सहायक है जैसे वृक्ष की शीतल छाया पथिक को ठहराने में सहायक है। यह धर्म और अधर्म द्रव्य जीव पुद्गल द्रव्यों को न तो जबरदस्ती चलाते हैं और न ठहराते हैं । किन्तु विभिन्न रूप से उनके लिए सहायक बन जाते हैं। आकाश-जो सब द्रव्य को अवकाश देता है, वह आकाश है। अर्थात् जीवादि सब द्रव्य आकाश में ठहरे हुए हैं । आकाश के दो भेद हैं-(१) लोकाकाश (२) अलोकाकाश । जितने क्षेत्र में जीवादि द्रव्य रहते हैं, वह लोकाकाश है। शेष सब अलोकाकाश है। __ काल-जो द्रव्यों की नवीन, पुरातन आदि अवस्था को बदलने में निमित्त रूप से सहायता करता है, वह काल द्रव्य है । घड़ी, घंटा, मिनट, समय आदि सब काल की पर्यायें हैं। पुद्गल-विज्ञान ने जिसे (Matter) मेटर, न्याय-वैशेषिकदर्शन ने जिसे भौतिक तत्त्व, बौद्धदर्शन ने जिसे आलयविज्ञान-चेतना-संतति, सांख्यदर्शन ने जिसे प्रकृति कहा है, उसे ही जैनदर्शन ने पुद्गल कहा है। जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण हों, उसे 'पुद्गल' कहते हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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