Book Title: Jain Darshan me Tattva chintan
Author(s): Dharmasheeliashreeji
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 8
________________ ३४० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड C प्रकट कर और उसी में रमण करते हुए आत्मा से परमात्मा बन जाता है। उस परमात्मा पद की साधना और उसका स्वरूप समझने के लिए ही जैन विचारकों ने तत्त्वज्ञान का यह विस्तार किया है । आत्मा का आत्मा में अवस्थित हो जाने के बाद अन्य कुछ भी करना शेष नहीं रहता है। संक्षेप में तत्त्वज्ञान का उद्देश्य है-'बन्धप्पमोक्खों कर्मबन्धन से मुक्त होना । इस स्वरूप को समझकर उस ओर प्रवृत्त होना इसी में तत्त्वज्ञान की सार्थकता है । यही जैनदर्शनों में तत्त्व चिंतन है ।२८ मा सन्दर्भ-स्थल :१ (क) बृहद्नयचक्र--४ तत्तं तह परमठें दव्व सहावं तहेव परमपरं। ध्येयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुँति अभिहाणा ॥ तत्त्व, परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, पर, अपर, ध्येय, शुद्ध, परम ये सभी शब्द एकार्थक अर्थात् पर्यायवाची हैं। (ख) देखिए-जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण-लेखक देवेन्द्र मुनि शास्त्री। २ पंचाध्यायी पूर्वाद्ध श्लोक-८ तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मानं वा यतः स्वतः सिद्धम् । ३ 'सत् दव्वं वा'-भगवती दाह ४ नवसमाव पयत्या पण्णते, तं जहा-जीवा अजीवा, पुण्णं, पावो, आसवो, संवरो, णिज्जरा, बंधो, मोक्खो। -स्थानांग ।।६६५ ५ (क) स्थानांग ५-३-५३-गुणओ उवओगगुणे । (ख) भगवती १३-४-४८०-उवओग लक्खणेगा जीवे । (ग) उत्तराध्ययन २८-१०-जीवो उवओगलक्षणो । (घ) तत्त्वार्थ०२-८-उपयोगो लक्षणम् । ६ स्थानांग २/१/५७ ७ उत्त० २८/७-धम्मो अधम्मो आगासो कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगोत्ति पन्नतो जिणेहि वरदंसिहि ॥ ८ उत्त० २८/8-गइ लक्खणे उ धम्मो अधम्मो ठाण लक्षणे । 8 (क) तत्त्वार्थ सूत्र ५/६८-आकाशस्यावगाहः (ख) उत्त० २८/६-भायणं सववव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं । १० तत्वार्थसूत्र ५/२३ (क) स्पर्श रसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला: (ख) हरिवंश पुराण ७/३६-वर्णगन्धरसस्पर्शः-पूरणं गलनं च यत् । कुर्वन्ति स्कन्धवत् तस्मात् पुद्गलाः परमाणवः ॥ ११ (क) न्यायकोष, पृ०५०२–पूरणाद् गलनाद् इति पुद्गलाः । (ख) तत्त्वार्थवृत्ति ५/१-पूरणाद् गलनाच्च पुद्गलाः । (ग) शब्दकल्पद्र मकोष-पूरणात् पुद् गलयतीति गलः । (घ) तत्त्वार्थराजवार्तिक-५/१/२४-पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गलाः। १२ सर्वार्थसिद्धि टीका-सूत्र-५/२५ अन्तादि अन्तमझं अन्ततेणेव इन्दिएगेझं । जं दव्वं अविभागी तं परमाणु विजानाहि ॥ भगवती ८/१०/३६१-- जीवेणं ! पोग्गली पोग्गले ? जीवे पोग्गलीवि, पोग्गलेवि । 'शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य।' तत्त्वार्थ-६/३४ ०० १४ 'शुभः पुण्य , उ०-३. पाणपुण्णे वत्थपुणे, ले णवविहे पुण्णे पं० २० अन्नपुण्णे, पाणपुण्णे वत्थपुणे, लेणपुण्णे, सयनपुण्णे, मनपुण्णे, वयपुण्णे, कायपुण्णे नम्मोक्कारपणे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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