Book Title: Jain Darshan me Tattva chintan
Author(s): Dharmasheeliashreeji
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 7
________________ सम्यग्दर्शन यह साधना रूपी भव्य महल की नींव है। नींव मजबूत होगी तो ही ज्ञान और चारित्र रूपी साधना महल टिक सकेगा । उमास्वाति के शब्दों में कहे तो तत्त्वरूप पदार्थ की श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है । जैनदर्शन में तत्त्व- चिन्तन ३३ε आत्म-तत्त्व की पहचान करना याने (Right Knowledge) सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान याने आत्मज्ञान । आत्मज्ञान प्राप्त करना यही सच्चा मोक्ष मार्ग है। ज्ञान यह आत्मा का निजगुण है। जो आत्मा है वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वह आत्मा है । २५ संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीन दोष से रहित, नय और प्रमाण से होने वाले जीवादि पदार्थ का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं । २६ आत्म-स्वरूप में रमण करना, जिनेश्वर देव के वचन पर पूर्ण श्रद्धा रखना और वैसा ही आचरण करना (Right Conduct) सम्यक्चारित है। आत्मा को शुद्ध रखना और पाप से दूर रहना यही सम्पवारित्र है । चारित्र के दो भेद हैं- (१) सराग चारित्र (२) वीतराग चारित्र । हिन्दू शास्त्र में आत्मा को सत्-चित्-आनन्दमय कहा है तो जैनधर्म में आत्मा को दर्शन, ज्ञान, चारित्रमय कहा है। बात एक ही है, सिर्फ शब्दान्तर है । सम्यक् चारित्र का आचरण करने वाला जीव शुद्ध और ज्ञानी बनकर निर्वाण पंथ की ओर जाता है और वह धीर-वीर पुरुष अक्षय, अनन्त, अव्यय मोक्ष सुख को प्राप्त करता है । सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र ये तीनों साधन जब परिपूर्ण रूप में प्राप्त होते हैं, तभी सम्पूर्ण मोक्ष सम्भव है अन्यथा नहीं । एक भी साधन जब तक अपूर्ण रहेगा तब तक परिपूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । चार्वाकदर्शन को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शनों का मोक्ष के विषय में एक मत है । चार्वाक का मन्तव्य है कि शरीर का अन्त होना ही मोल है। न्यायवैशेषिकदर्शन ने दुःखों की अत्यधिक निवृत्ति को मोक्ष कहा है। न्यायवार्तिककार ने सभी दुःखों के आत्यन्तिक अभाव को मोक्ष माना है । वे मानते हैं कि मोक्ष में बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, संकल्प, पुण्य-पाप तथा पूर्वानुभव के संस्कार इन नौ गुणों का आत्यन्तिक उच्छेद हो जाता है।" बौद्धदर्शन ने मोक्ष को निर्वाण कहा है। बुद्ध के निवृत्ति अथवा निर्वाण है। निर्वाण बौद्ध दर्शन का महत्वपूर्ण मतानुसार जीवन का चरम लक्ष्य दुःख की आत्यन्तिक शब्द है । सामान्य रूप से भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय, कर्म, ज्ञान, भक्ति और पातंजलि योग को कम-अधिक परिमाण में मोक्ष के साधन के रूप में स्वीकार करते हैं । मीमांसकदर्शन केवल कर्म ( यज्ञ - भजनादि) से ही मोक्ष प्राप्ति हो सकती है, ऐसा मानते हैं । वैष्णव, वेदान्ती के अनुसार ईश्वर की भक्ति ही मोक्ष का सर्वश्रेष्ठ साधन है । सांख् योग के मन्तव्यानुसार केवल्य प्राप्ति के लिए योगाभ्यास ही अनिवार्य है। जैनदर्शन एक आध्यात्मिक दर्शन है । जैनदर्शन की मान्यता है कि मुक्त जीव अशरीरी होते हैं । गति, शरीरसापेक्ष हैं, इसलिए वे गतिशील नहीं होते । मुक्त दशा में आत्मा का किसी दूसरी शक्ति में विलय नहीं होता । मुक्त ' जीवों की विकास की स्थिति में मेद नहीं होता किन्तु उनकी सत्ता स्वतन्त्र होती है । सत्ता का स्वातन्त्र्य मोक्ष की स्थिति का बाधक नहीं है । अविकास या स्वरूपावरण उपाधिजन्य होता है । इसलिए कर्म उपाधि मिटते ही वह मिट जाता है । सब मुक्त आत्माओं का विकास और स्वरूप समकोटिक हो जाता है। आत्मा की जो पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र सत्ता है, वह उपाधिकृत नहीं हैं, वह सहज है, इसलिए किसी भी स्थिति में उनकी स्वतन्त्रता पर कोई आँच नहीं आती । आत्मा अपने आप में पूर्ण अवयवी है, इसलिए उसे दूसरों पर आश्रित रहने की कोई आवश्यकता नहीं होती । मुक्त दशा में आत्मा समस्त वैभाविक आधेयों, औपाधिक विशेषताओं से विरहित हो जाती है । मुक्त होने पर पुनरावर्तन नहीं होता । उस ( पुनरावर्तन) का हेतु कर्म चक्र है। उसके रहते हुए मुक्ति नहीं होती । कर्म का निर्मूल नाश होने पर फिर उसका बन्ध नहीं होता । कर्म का लेप सकर्म के होता है । अकर्म कर्म से लिप्त नहीं होता । Jain Education International जैनदर्शन की नव तत्त्व की तात्त्विक व्यवस्था मोक्षमार्ग परक है याने जीव को कर्मबन्धन से मुक्त होने का पुरुषार्थ करने और मोक्ष पाप्त करने के लिए प्रेरित करती है । इस दृष्टि से इन जीवादि नौ तत्त्वों में से प्रथम जीव अजीव ये दो तत्त्व मूल द्रव्य के वाचक हैं | आस्रव, पुण्य, पाप और बंध ये चार तत्त्व संसार और उसके कारण रागद्वेषादि का निर्देश कर मुमुक्षु को जागृत करने के लिए है तथा संवर और निर्जरा ये दो तत्त्व संसार-मुक्ति की साधना का विवेचन करते हैं । अन्तिम मोक्ष तत्त्व साधना के फल-परिणाम का संकेत करता है कि जीव स्वयं अपने स्वभाव को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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