Book Title: Jain Darshan me Parmanu Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 2
________________ | न्युट्रॉन, क्वार्क इत्यादि भिन्न भिन्न प्रकार के सूक्ष्म कण में विभाजन होता __ आज तक प्रोटॉन को अविभाज्य माना जाता था, किन्तु नवीनतम अनुसंधान से पता चलता है कि इस प्रोटॉन के मूलभूत कण क्वार्क हैं और तीन क्वार्क इकट्ठे होकर एक प्रोटॉन होता है । ___ जैनदर्शन की मान्यता के अनुसार परमाणु, इस ब्रह्मांड के सभी पदार्थों के लिये आदिभूत इकाई है और यही एक परमाणु को पूर्णतः पहचानने का मतलव है संपूर्ण ब्रह्मांड के सभी पदार्थ को पहचानना क्योकि यही एक परमाणु भूतकाल में इसी ब्रह्मांड के प्रत्येक पदार्थ के भाग के रूप में था और भविष्य में प्रत्येक पदार्थ की आदिभूत इकाई के रूप में रहनेवाला है । अतः वही एक ही परमाणु को पूर्णतः पहचानने के लिये समग्र ब्रह्मांड के प्रत्येक पदार्थ का ज्ञान जरूरी है । अतः कहा गया है कि जो एक परमाणु का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करता है, उसे समग्र ब्रह्मांड का ज्ञान हो जाता है और जिसको समग्र ब्रह्मांड का ज्ञान है वह एक परमाणु को पूर्णतः जानता है । पुदगल द्रव्य के प्रत्येक परमाणु में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होता है| और वही पुद्गल का लक्षण है । अतः जहाँ भी किसी भी यंत्र से या इन्द्रिय से वर्ण या गंध या रस या स्पर्श का अनुभव होता है, वहाँ परमाणुसमूह अवश्य होते हैं । और उस पदार्थ को पौद्गलिक माना जाता है । क्वचित परमाणुसमूह बहुत ही अल्प मात्रा में होनेसे उसी पदार्थ के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अपनी इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं होते हैं किन्तु इसी वजह से उसके अस्तित्व का निषेध नहीं किया जा सकता । उदाहरण के तौर पर . अल्ट्रावायोलेट (पारजामुनी) किरणें और इन्फ्रारेड (अधोरक्त) किरणें, जो चक्षु से ग्राह्य नहीं हैं तथापि फोटोग्राफिक प्लेट पर उसकी असर पायी जाती है । जैन ग्रंथो में शब्द (ध्वनि), अंधकार, उद्योत, (ठंडा प्रकाश, जैसे चंद्र का प्रकाश). आतप (ठंडे पदार्थ में से निकलने वाला उष्ण प्रकाश) अर्थात् सूर्य का प्रकाश, प्रभा अर्थात् प्रकाश का अनियंत्रित प्रसार या परावर्तन या व्यतिकरण, इत्यादि को पुद्गल के विकार स्वरूप बताया हैं । अर्थात् पुद्गल के सूक्ष्मतम अणु (परमाणु) से निष्पन्न माने हैं । पुद्गल का वर्णन करते हुए तत्त्वार्थ सूत्र (रचयिता : वाचक श्री उमास्वातिजी) के पाँचवें 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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