Book Title: Jain Darshan me Parmanu
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में परमाणु प्राचीन जैन धर्मग्रंथ के अनुसार असल में छः द्रव्य हैं : 1. जीव, 2. धर्म, 3. अधर्म, 4. आकाश, 5. काल और 6. पुद्गल । इनमें से धर्म अधर्म और आकाश पूर्णतः अमूर्त हैं अर्थात् वे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श व आकृति रहित हैं। जबकि जीव द्रव्य पुद्गल के संयोग से मूर्तत्व प्राप्त करता है । अन्यथा शुद्ध आत्म द्रव्य भी अमूर्त अर्थात् निरंजन निराकार है । जैन दार्शनिकों ने समय/ काल को भी एक द्रव्य माना है । यह जैनदर्शन की एक विशेषता है | ___ संक्षेप में संपूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक चीज, चाहे वह सूक्ष्म हो या स्थूल, दृश्य हो या अदृश्य, इन्द्रियगम्य हो या इन्द्रियातीत, सब का समावेश केवल पुद्गल द्रव्य या पुद्गलसंयुक्त जीव द्रव्य में होता है । और पुद्गल द्रव्य का अतिसूक्ष्मतम कण जिसके दो भाग भूतकाल में कभी भी नहीं हुये, वर्तमान में नहीं होते हैं और भविष्य में कभी भी उनके दो भाग होने की संभावना भी नहीं है ऐसे सूक्ष्मतम कण को परमाणु कहा जाता है ! ऐसे बहुत से सूक्ष्मतम परमाणु इकट्ठे होकर विश्व की कोई भी चीज का निर्माण कर सकते हैं । जैन सिद्धांत के अनुसार पुद्गल द्रव्य में अनंत शक्ति है । यद्यपि आत्मा (शुद्ध जीवतत्त्व) में भी अनंत शक्ति है, किन्तु दोनों में बहुत अन्तर है | आत्मा की शक्ति स्वनियंत्रित है जबकि पुद्गल की शक्ति परनियंत्रित है । __ जैनदर्शन के ग्रंथों में इस संपूर्ण ब्रह्मांड के और उसके प्रत्येक परमाणु व उस परमाणु-समूह से निष्पन्न पदार्थों के बारे में विस्तृत विवेचना की गई है। और आचारांग नामक पवित्र जैन आगम में बताया है कि -- "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।" (जो एक को पहचानता है वह सभी को पहचानता है, जो सभी को पहचानता है वह एक को भी पहचानता है ।) यही एक और सर्व क्या है उसकी स्पष्टता करते हुए टीकाकार महर्षि श्री शीलांकाचार्यजी कहते हैं कि यह एक का मतलब इसी ब्रह्मांड के प्रत्येक पदार्थ का आदिभूत परमाणु जिसका कभी भी किसी भी प्रकार से विभाजन नहीं होता है अर्थात् जो सदा के लिये अविभाज्य है । इस दृष्टि से वर्तमान विज्ञानमान्य परमाणु, परमाणु है ही नहीं क्योंकि उसका इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, 16 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | न्युट्रॉन, क्वार्क इत्यादि भिन्न भिन्न प्रकार के सूक्ष्म कण में विभाजन होता __ आज तक प्रोटॉन को अविभाज्य माना जाता था, किन्तु नवीनतम अनुसंधान से पता चलता है कि इस प्रोटॉन के मूलभूत कण क्वार्क हैं और तीन क्वार्क इकट्ठे होकर एक प्रोटॉन होता है । ___ जैनदर्शन की मान्यता के अनुसार परमाणु, इस ब्रह्मांड के सभी पदार्थों के लिये आदिभूत इकाई है और यही एक परमाणु को पूर्णतः पहचानने का मतलव है संपूर्ण ब्रह्मांड के सभी पदार्थ को पहचानना क्योकि यही एक परमाणु भूतकाल में इसी ब्रह्मांड के प्रत्येक पदार्थ के भाग के रूप में था और भविष्य में प्रत्येक पदार्थ की आदिभूत इकाई के रूप में रहनेवाला है । अतः वही एक ही परमाणु को पूर्णतः पहचानने के लिये समग्र ब्रह्मांड के प्रत्येक पदार्थ का ज्ञान जरूरी है । अतः कहा गया है कि जो एक परमाणु का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करता है, उसे समग्र ब्रह्मांड का ज्ञान हो जाता है और जिसको समग्र ब्रह्मांड का ज्ञान है वह एक परमाणु को पूर्णतः जानता है । पुदगल द्रव्य के प्रत्येक परमाणु में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होता है| और वही पुद्गल का लक्षण है । अतः जहाँ भी किसी भी यंत्र से या इन्द्रिय से वर्ण या गंध या रस या स्पर्श का अनुभव होता है, वहाँ परमाणुसमूह अवश्य होते हैं । और उस पदार्थ को पौद्गलिक माना जाता है । क्वचित परमाणुसमूह बहुत ही अल्प मात्रा में होनेसे उसी पदार्थ के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अपनी इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं होते हैं किन्तु इसी वजह से उसके अस्तित्व का निषेध नहीं किया जा सकता । उदाहरण के तौर पर . अल्ट्रावायोलेट (पारजामुनी) किरणें और इन्फ्रारेड (अधोरक्त) किरणें, जो चक्षु से ग्राह्य नहीं हैं तथापि फोटोग्राफिक प्लेट पर उसकी असर पायी जाती है । जैन ग्रंथो में शब्द (ध्वनि), अंधकार, उद्योत, (ठंडा प्रकाश, जैसे चंद्र का प्रकाश). आतप (ठंडे पदार्थ में से निकलने वाला उष्ण प्रकाश) अर्थात् सूर्य का प्रकाश, प्रभा अर्थात् प्रकाश का अनियंत्रित प्रसार या परावर्तन या व्यतिकरण, इत्यादि को पुद्गल के विकार स्वरूप बताया हैं । अर्थात् पुद्गल के सूक्ष्मतम अणु (परमाणु) से निष्पन्न माने हैं । पुद्गल का वर्णन करते हुए तत्त्वार्थ सूत्र (रचयिता : वाचक श्री उमास्वातिजी) के पाँचवें 17 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय में बताया है कि "पूरयन्ति गलयन्ति इति पुद्गलाः" । पुद्गल द्रव्य में उसके नाम के अनुसार पूरण व गलन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है | सभी प्रकार के पौद्गलिक पदार्थों में सर्जन अर्थात् नये नये परमाणुओं के जुडने की तथा पूर्व के परमाणुसमूह में से कुछेक की अलग होने की प्रक्रिया अर्थात विसर्जन निरंतर चलता ही रहता है | सूक्ष्मबुद्धि से देखने पर कोई भी पदार्थ निरंतर एक समान कभी भी नहीं रहता है । जैसे अपने शरीर में | अरबों कोशिकायें हैं, उसमें से हररोज लाखों कोशिकाओं का विनाश होता है और दूसरी प्रायः उतनी ही या उनसे कम या ज्यादा कोशिकाओं का निर्माण होता रहता है । ___ परमाणु भौतिकी में प्राप्त बंध (fussion) व भेद (fission) की प्रक्रियायें पूरण व गलन के श्रेष्ठतम उदाहरण हैं । इन दोनों प्रक्रिया में | शक्ति की जरूरत होती है । कुछेक परिस्थिति में बंध (fussion) की प्रक्रिया से अणुशक्ति प्राप्त होती है तो कुछेक परिस्थिति में भेद (fission) की प्रक्रिया से अणुशक्ति प्राप्त होती है । परमाणु प्रक्रिया में इस्तेमाल किये जाने वाले युरेनियम तथा रेडियम में से तीन प्रकार के किरण (आल्फा, वीटा, गामा किरण) निकलते हैं । ये किरण भी एक प्रकार के कणों की बारिश ही है और यह ऑसीलोस्कोप जैसे यंत्र में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है | आल्फा किरण के कण हिलियम के अणु की नाभि जैसे होते हैं । बीटा किरण में इलेक्ट्रॉन होते हैं। | जबकि गामा किरण प्रकाश के किरण जैसे होते हैं । प्रकाश के किरण में| भी फोटॉन कण होते हैं । जैन ग्रंथों के अनुसार परमाणुसमूह के प्रकार को वर्गणा कहा जाता है ।। संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसी वर्गणाओं के अनंतानंत प्रकार हैं किन्तु जीवों के लिये| उपयोग में आनेवाली वर्गणा मुख्य रूप से आठ प्रकार की है । 1. औदारिक वर्गणा, 2. वैक्रिय वर्गणा, 3. आहारक वर्गणा, 4. तेजस् वर्गणा, 5. भाषा वर्गणा, 6. श्वासोच्छ्वास वर्गणा, 7. मनो वर्गणा, व 8. कार्मण वर्गणा । वर्गणा अर्थात् किसी भी एक निश्चित संख्या में जुड़े हुए परमाणुओं का समूह | प्रथम वर्गणा अर्थात् इस ब्रह्मांड में विद्यमान भिन्न भिन्न परमाणु, जिनका स्वतंत्र अस्तित्व है | उन सभी परमाणुओं का समावेश प्रथम वर्गणा में होता है । उसी तरह दूसरी वर्गणा का अर्थ दो दो परमाणुओं के समूह । 18 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | तृतीय वर्गणा का अर्थ तीन तीन परमाणुओं के समूह । ऐसे अनंत परमाणुओं के समूह रूप परमाणुसमूह का समावेश औदारिक वर्गणा में होता है । इसी औदारिक वर्गणा के प्रत्येक परमाणुसमूह में अनंत परमाणु होते हैं । और उससे ही वर्तमान विश्व के प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाले प्रायः सभी पदार्थ बने हैं । इन वर्गणाओं के परमाणुसमूह में जैसे-जैसे परमाणुओं की संख्या बढती है वैसे-वैसे उसमें परमाणुओं का परिणाम ज्यादा ज्यादा सूक्ष्म होता जाता है | वर्तमान सजीव सृष्टि या देव और नारक को छोड़कर सभी जीवों के शरीर इसी औदारिक वर्गणा के परमाणुसमूह से निष्पन्न हैं । औदारिक वर्गणा में स्थित परमाणु बहुत ही स्थूल है । जबकि वैक्रिय वर्गणा के परमाणुसमूह में इस औदारिक वर्गणा के परमाणुसमूह में स्थित परमाणु से ज्यादा परमाणु होते हैं । अतः स्वभावतः | उसका परिणाम ज्यादा सूक्ष्म बनता है । तीसरे क्रम में आनेवाली आहारक वर्गणा के परमाणुसमूह में वैक्रिय वर्गणा के परमाणुसमूह से ज्यादा परमाणु होते हैं । अतः वे ज्यादा घन व सूक्ष्म होते हैं । इस आहारक वर्गणा के परमाणुसमूह का उपयोग विशिष्ट | प्रकार के ज्ञानी साधु-संतपुरुष ही कर सकते हैं । वर्तमान समय में इस पृथ्वी पर ऐसे कोई ज्ञानी संत पुरुष नहीं है, अतः इस वर्गणा के | परमाणुसमूह का कोई उपयोग नहीं है । उसके बाद चौथे क्रम में आयी तैजस् वर्गणा के परमाणुसमूह में स्थित | परमाणु ज्यादा सूक्ष्म होते हैं । और प्रत्येक सजीव पदार्थ का सूक्ष्म शरीर | इसी वर्गणा के परमाणुसमूह से निष्पन्न है । इस वर्गणा के परमाणुसमूह का मुख्य कार्य उसी सजीव पदार्थ के शरीर में आहार का पाचन करना है और उससे भूख लगती है । बाद में उससे भी ज्यादा सूक्ष्म परिणामवाले परमाणुओं के समूह स्वरूप भाषा वर्गणा है । इस वर्गणा के परमाणुसमूह का उपयोग केवल प्राणी ही कर सकते हैं । किन्तु वनस्पति इत्यादि जिनको | केवल एक ही इन्द्रिय है वे इस भाषा वर्गणा के परमाणुसमूह का उपयोग नहीं कर सकते हैं । संक्षेप में, आवाज भी पौद्गलिक है । श्वासोच्छ्वास वर्गणा के | परमाणु से ज्यादा सूक्ष्म है परमाणुसमूह के परमाणु, भाषा वर्गणा के । इनका उपयोग सजीव सृष्टि के सभी जीव 19 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं । और बिना श्वासोच्छवास कोई भी जीव जी नहीं सकता है ऐसा आधुनिक विज्ञान भी कहता है । जैन शास्त्रों के अनुसार वनस्पति सहित पृथ्वी अर्थात् पत्थर, मिट्टी इत्यादि , पानी, अग्नि व वायु में भी जीव हैं । वे भी श्वासोच्छवास की क्रिया करते हैं तब इस वर्गणा के परमाणुसमूह का | उपयोग निश्चितरूप से करते हैं । मनो वर्गणा के परमाणुसमूह के परमाणु की संख्या श्वासोच्छवास वर्गणा के परमाणुसमूह में स्थित परमाणुओं की संख्या से ज्यादा होती है । इस वर्गणा के परमाणुसमूह का उपयोग मनवाले मनुष्य व प्राणी कर सकते हैं ।। इनका विशेष उपयोग विचार करने में ही होता है । वर्तमानकालीन विज्ञानी भी मन को तीव्र गतिवाला मानते है क्योंकि अपना मन एक सैकंड में या | उनसे भी सूक्ष्म समय में लाखों या करोडों माईल दूर जा सकता है और | उनके बारे में विचार कर सकता है । यह चमत्कार मन व मनोवर्गणा के | परमाणुसमूह का ही है | __ अब अंत में अत्यंत सूक्ष्म परमाणुओं के समूह स्वरूप कार्मण वर्गणा की बात आती है । इस वर्गणा के परमाणुसमूह में सब से ज्यादा परमाणु होते हैं| | इस वर्गणा का उपयोग प्रत्येक सजीव पदार्थ करता है । सभी सजीव पदार्थ की आत्मा से संबद्ध कर्म, इस कार्मण वर्गणा के परमाणुसमूह स्वरूप ही होते हैं । यदि कोई विज्ञानी, इस वर्गणा के परमाणुओं को किसी भी यंत्र से देखने में समर्थ हो सके, तो वह उसी व्यक्ति या सजीव पदार्थ के भूत-भविष्य व वर्तमान देखने में समर्थ हो सकता है किन्तु इस वर्गणा के परमाणु किसी भी यंत्र से नहीं देखे जा सकते हैं । इसिलिए तो आध्यात्मिक शक्ति व अतीन्द्रिय ज्ञान चाहिये । जो वर्तमान समय में प्राप्त करना अशक्य नहीं तथापि बहुत दुर्लभ तो है ही । विज्ञानीयों ने अणु, परमाणु तथा इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, पोझिट्रॉन, क्वार्क इत्यादि बहूत से मूलभूत सूक्ष्म कणों का आविष्कार किया हैं वे सभी इस वर्गणा के प्रथम प्रकार औदारिक वर्गणा में आ सकते हैं । जैन शास्त्रकारों ने पुद्गल द्रव्य के वर्णन में इसके वर्ण के मुख्य रूप से पाँच प्रकार बताये हैं । सफेद, लाल, पीला, नीला (भूरा) व काला । चित्रकाम के विषय में सफेद व काले रंग को छोडकर मुख्यरूप से तीन रंग बताये हैं । बाकी के सभी रंग इन तीनों रंगों के संयोजन से बनते हैं । 20 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रंगीन छवि के छपाई काम में भी लाल, पीला, भूरा व काले रंग का उपयोग होता है । गंध के दो प्रकार हैं :1. सुगंध, और 2. दुर्गध । रस के पाँच प्रकार हैं : 1. कडुआ, 2. तीखा, 3. कसैला, 4. खटटा, 5. मधुर । खारे (लवण) रस की यहाँ गिनती नहीं की है किन्तु कहीं कहीं खारे रस को छठे रस के रूप में ग्रहण किया है ।। स्पर्श के आठ प्रकार हैं : 1. गुरु अर्थात भारी, 2. लघु अर्थात हलका, 3. मृदु / कोमल, 4. कर्कश, 5. शीत / ठंडा, 6. उष्ण / गर्म, 7. स्निग्ध / |चिकना, 8. रुक्ष अर्थात् खुरदरा ।। | एक ही स्वतंत्र परमाणु में शीत या उष्ण, और स्निग्ध या रुक्ष ऐसे केवल दो ही स्पर्श होते हैं । जबकि अनंत परमाणुओं से निष्पन्न परमाणुसमूह में कभी कभी परस्पर विरुद्ध न हो ऐसे चार स्पर्श होते हैं । तो कुछेक में आठो स्पर्श होते हैं । ऊपर बतायी गई आठों प्रकार की वर्गणामें से प्रथम चार प्रकार की वर्गणा के परमाणुसमूह में आठों प्रकार के स्पर्श होते हैं तो शेष चार प्रकार की वर्गणा के परमाणुसमूह में चार प्रकार के स्पर्श होते हैं | ___ बंगाली विज्ञानी डॉ. सत्येन्द्रनाथ बोस का बोस-आइन्स्टाइन स्टॅटिस्टिक्स, डॉ. प्र. चु. वैद्य का किरणोत्सारी तारा के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र संबंधित अनुसंधान जैनदर्शन की परमाणु संबंधित कुछेक अवधारणाओं को समर्थन देते हैं । बोस-आइन्स्टाइन स्टॅटिस्टिक्स आदर्श वायु के कण व फोटॉन की समझ देता है । जैनदर्शन अनुसार इसी ब्रह्मांड में आकाश प्रदेश (Space-points) मर्यादित प्रमाण में हैं । जबकि पुद्गल परमाणु की संख्या अनंत है । एक आकाश प्रदेश (Space-point) अर्थात एक स्वतंत्र परमाणु को रहने के लिये आवश्यक अवकाश 1 ऐसे मर्यादित आकाश प्रदेश |में अनंत पुद्गल परमाणु कैसे हो सकते हैं ? एक आकाश प्रदेश में केवल एक ही परमाणु रह सकता है तथापि उसी आकाश प्रदेश में अनंत परमाणुओं के समूह स्वरूप पुद्गल-स्कंध अर्थात् अनंत पुदगल परमाणु भी रह सकते हैं। जैनदर्शन में प्राप्त भौतिकी का यही सिद्धांत आठों प्रकार के कर्म से मुक्त शरीररहित आत्मा पर भी लागू होता है । 21 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष में मुक्त आत्मा का स्थान है । ये मुक्त आत्माएँ अरूपी व अशरीरी हैं| | उनमें सभी का स्वतंत्र अस्तित्व और जैन सिद्धांत अनुसार मुक्त होते| समय अर्थात निर्वाण के समय उनके शरीर की जो ऊँचाई होती है उस की दो तृतीयांश ऊँचाई मोक्ष में उसी आत्मा की होती है । तथापि जिस स्थान पर एक मुक्त आत्मा होती है उसी स्थान पर अन्य अनंत मुक्त आत्माएँ भी होती है । इसकी सरल समझ देते हुए जैन धर्मग्रंथों में उस के वृत्तिकार आचार्य भगवंत दीपक के प्रकाश का उदाहरण देते हैं । जैसे कि एक खंड में एक छोटा सा दीपक जलाया जाय तो संपूर्ण खंड में उसका प्रकाश फैल जाता है। यदि उसी खंड में ऐसे 20 - 25 या सेंकडों दीपक जलाया जाय तो खंड की दिवालों के ऊपर और खंड में सभी जगह सभी दीपक का प्रकाश होता है किन्तु किसी एक जगह केवल एक ही दीपक का प्रकाश हो ऐसा नहीं होता है । मध्यप्रदेश के प्रो. पी. एम. अग्रवाल के मतानुसार एक ही आकाश प्रदेश में अनंत परमाणुओं का अवस्थान व उसी प्रकार मोक्ष में समान आकाश प्रदेश में अनंत आत्माओं का अवस्थान बोस-आइन्स्टाइन स्टॅटिस्टिक्स द्वारा समझाया जा सकता है | डॉ. प्र. चु. वैद्य का किरणोत्सारी तारक के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र संबंधित अनुसंधान भी जैनदर्शन के पुद्गल परमाणु सिद्धांत का समर्थन करता है ।। उनके अनुसंधान अनुसार किरणोत्सारी तारे या सूर्य के गुरुत्वाकर्षण उतने ही द्रव्यमान व कद वाले सामान्य अर्थात किरणोत्सर्ग नहीं करने वाले तारे या सूर्य से कम होता है । उसका गणित उन्होंने समीकरण द्वारा दिया है । । जैनदर्शन अनुसार शक्ति गुण है और ' गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ' (गुण व पर्याययुक्त हो वह द्रव्य कहलाता है।) (तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय 5. सूत्र - 37) अनुसार वह द्रव्य में रहता है । और जो पुद्गल मूर्त / रूपी द्रव्य है उसे द्रव्यमान (mass) अवश्य होता है । प्रकाश की किरण भी द्रव्य हैं, गुण नहीं । " किरणा गुणा न, दव्वम् ।' उसी द्रव्य में ही शक्ति स्वरूप गुण है ।। अतः किरणोत्सारी तारा या सूर्य, प्रकाश का उत्सर्जन करता है तब वस्तुतः उसमें से सूक्ष्म कण ही उत्सर्जित होते हैं इन सूक्ष्म कण का भी द्रव्यमान (mass) होता है और वे जिनमें से उत्सर्जित होते हैं उसका द्रव्यमान भी कम होता है और वे उनके गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में आये हुये पदार्थ पर आपात होते हैं और उसकी गति में या उस तारे या सूर्य की ओर के आकर्षण में 22 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कमी होती है । हालाँकि, यह कमी प्रकाश के वेगमान (momentum = p=mv=me) अनुसार बहुत ही कम होती है । ऐसी नगण्य कमी का गणित डॉ. प्र. चु. वैद्य ने हमें दिया है । यद्यपि आधुनिक विज्ञान में कहीं कहीं फोटॉन कणों का द्रव्यमान 3.0 x 10 43 बताया है तथापि आधुनिक | भौतिकी फोटॉन को शून्य द्रव्यमान युक्त मानती है । __ आधुनिक भौतिकी ऐसा मानती है कि सूर्य आदि या उससे अधिक द्रव्यमान वाले ताराओं के ज्यादातर गुरुत्वाकर्षण के कारण उसके आसपास का आकाश संकुचित होता है । उसमें से प्रसारित होने वाले पदार्थ का मार्ग भी थोड़ासा वक्राकार बनता है । वस्तुतः जैन दार्शनिक मान्यता अनुसार आकाश एक अखंड द्रव्य है । वह अपौद्गलिक है अतः वह निष्क्रिय और निर्गुण है । हालाँकि नैयायिक दर्शनवाले शब्द को आकाश का गुण मानते हैं किन्तु जैनदर्शन शब्द को पूर्णतः पौद्गलिक मानता है और वह आधुनिक वैज्ञानिक उपकरण द्वारा भी सिद्ध हो सकता है । अतः जैन दार्शनिक मान्यता अनुसार निर्गुण व निष्क्रिय आकाश पर किसी भी पदार्थ के गुरुत्वाकर्षण का तनिक भी असर नहीं होता है किन्तु किसी भी पदार्थ के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में आनेवाले पौद्गलिक पदार्थों पर ही उसके गुरुत्वाकर्षण का असर होता है । यदि वही पदार्थ - तारा या सूर्य - किरणोत्सर्ग करता हो तो, वही किरणोत्सर्ग उसी तारा या सूर्य का गुरुत्वाकर्षण कम करता है । यही कमी प्रकाश / फोटॉन के स्वरूप में जिन शक्ति का उत्सर्जन तारा या सूर्य करता है, उसी शक्ति अर्थात् फोटॉन को भी द्रव्यमान (mass) होने का प्रमाण है। __ आइन्स्टाइन की जनरल थ्योरी ओफ रिलेटीविटी (General Theory of Relativity) के अनुसार सूर्य के गुरुत्वाकर्षण से तारे के किरण के वक्रीकरण (Solar deflection of Star light) द्वारा प्राप्त उसी तारे का स्थानांतर संपूर्ण खग्रास सूर्यग्रहण के दौरान नापा गया । अतएव फोटॉन को है ऐसा सिद्ध होता है क्योंकि जो पौद्गलिक है अर्थात् जिसके द्रव्यमान है उस पर ही गुरुत्वाकर्षण का असर होता है, यदि प्रकाश के कणों का द्रव्यमान शून्य होता तो किसी भी प्रकार के प्रबल गुरुत्वाकर्षण का उन पर | कोई असर नहीं हो सकता । किन्तु ऊपर बताया उसी प्रकार G. T. R. में | तारे की किरण पर सूर्य के प्रबल गुरुत्वाकर्षण की असर पायी जाती है । 23 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतएव प्रकाश के कणों का द्रव्यमान शून्य नहीं है, ऐसा सिद्ध होता है / हालाँकि यह मेरा अपना अनुसंधान है इसके साथ सब लोग सहमत हो ऐसा मैं नहीं कह सकता, किन्तु निकट के भविष्य में सभी विज्ञानी मेरे इस | अनुसंधान से सहमत होंगे तो मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं होगा / यही है जैनदर्शन का अद्भुत परमाणु विज्ञान / If physics leads us today to a world view which essentially mystical. it returns. in a way, to its beginning. 2500 years ago...... Western science is finally overcoming this view and coming back to those of the early Greek and Eastern philosophies. This time. however, it is not only based on intuition. but also on experiments of great precision and sophistication, and on a rigorous and consistent mathematical formalism. Fritjof Capra 24