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जैनदर्शन में परमाणु
प्राचीन जैन धर्मग्रंथ के अनुसार असल में छः द्रव्य हैं : 1. जीव, 2. धर्म, 3. अधर्म, 4. आकाश, 5. काल और 6. पुद्गल । इनमें से धर्म अधर्म और आकाश पूर्णतः अमूर्त हैं अर्थात् वे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श व आकृति रहित हैं। जबकि जीव द्रव्य पुद्गल के संयोग से मूर्तत्व प्राप्त करता है । अन्यथा शुद्ध आत्म द्रव्य भी अमूर्त अर्थात् निरंजन निराकार है । जैन दार्शनिकों ने समय/ काल को भी एक द्रव्य माना है । यह जैनदर्शन की एक विशेषता है | ___ संक्षेप में संपूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक चीज, चाहे वह सूक्ष्म हो या स्थूल, दृश्य हो या अदृश्य, इन्द्रियगम्य हो या इन्द्रियातीत, सब का समावेश केवल पुद्गल द्रव्य या पुद्गलसंयुक्त जीव द्रव्य में होता है । और पुद्गल द्रव्य का अतिसूक्ष्मतम कण जिसके दो भाग भूतकाल में कभी भी नहीं हुये, वर्तमान में नहीं होते हैं और भविष्य में कभी भी उनके दो भाग होने की संभावना भी नहीं है ऐसे सूक्ष्मतम कण को परमाणु कहा जाता है ! ऐसे बहुत से सूक्ष्मतम परमाणु इकट्ठे होकर विश्व की कोई भी चीज का निर्माण कर सकते हैं । जैन सिद्धांत के अनुसार पुद्गल द्रव्य में अनंत शक्ति है । यद्यपि आत्मा (शुद्ध जीवतत्त्व) में भी अनंत शक्ति है, किन्तु दोनों में बहुत अन्तर है | आत्मा की शक्ति स्वनियंत्रित है जबकि पुद्गल की शक्ति परनियंत्रित है । __ जैनदर्शन के ग्रंथों में इस संपूर्ण ब्रह्मांड के और उसके प्रत्येक परमाणु व उस परमाणु-समूह से निष्पन्न पदार्थों के बारे में विस्तृत विवेचना की गई है। और आचारांग नामक पवित्र जैन आगम में बताया है कि -- "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।" (जो एक को पहचानता है वह सभी को पहचानता है, जो सभी को पहचानता है वह एक को भी पहचानता है ।) यही एक और सर्व क्या है उसकी स्पष्टता करते हुए टीकाकार महर्षि श्री शीलांकाचार्यजी कहते हैं कि यह एक का मतलब इसी ब्रह्मांड के प्रत्येक पदार्थ का आदिभूत परमाणु जिसका कभी भी किसी भी प्रकार से विभाजन नहीं होता है अर्थात् जो सदा के लिये अविभाज्य है । इस दृष्टि से वर्तमान विज्ञानमान्य परमाणु, परमाणु है ही नहीं क्योंकि उसका इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन,
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