Book Title: Jain Darshan me Moksh ka Swaroop Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 4
________________ मोक्षदशा का निषेधात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हुए लिखते है मोक्षदशा में न सुख है न दुःख है, न पीला है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण है। न वहां इन्द्रियां है, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न निद्रा है; न वहा चिन्ता है, न आर्त और रौद्र विचार ही, वहाँ तो धर्म (शुभ) और शुक्ल ( प्रशस्त ) विचारों का भी अभाव है। मोक्षावस्था तो सर्व संकल्पों का अभाव है, वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं है वह पातिक्रांत है। इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक विवेचन उसकी अनिर्वचनीयता को बताने के लिए है। मोक्ष का अनिर्वचनीय स्वरूप मोक्षतत्व का निषेधात्मक निर्वाचन अनिवार्य रूप से हमें उसकी अनिर्वचनीयता की और ही ले जाता है । पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते हुए जैन दार्शनिकों ने उसे अनिर्वचनीय ही माना है । आवारांग सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है समस्त स्वर वहां से लौट आते हैं, अर्थात् मुक्तात्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृति का विषय नहीं है, वाणी उसका निर्वचन करने में कदापि समर्थ नहीं है वहां वाणी मूक हो जाती, तर्क की वहां तक पहुंच नहीं है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है, 14 अर्थात् यह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। । किसी भी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता है क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है, अरूपी सत्ताधान है। उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके 13 । उसके बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है, वह अरूप, अरस अवर्ण, अगंध और अस्पर्श है क्योंकि यह इन्द्रियग्राह्म नहीं है । Jain Education International गीता में मोक्ष का स्वरूप 12. गवि दुःखं गवि सुक्लं गवि पीडा णेवविज्जदे बाहा । णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होई निव्वाणं || णिव इंदिय उवसग्गा णिव मोहो विम्हियो ण णिद्दाय । ण व तिण्हा शेव छुहा तत्थेव हवदि निव्वाणं ॥ 13. सब्वे सरा नियति, तक्क जत्थ न विज्जद, मई तत्व न - उबम्प न विज्जए अस्वी सत्ता अपयस्स पयं नत्थ । तुलना कीजिए यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह - तैत्तरीय २६ न चक्षुषा गृह्यते नाऽपि वाचा -मुण्डक ३।११६ ततः पदं तत्परिमार्गितव्य, यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः । गीता की समग्र साधना का लक्ष्य परमतत्व, ब्रह्म अक्षर पुरुष अथवा पुरुषोतम की प्राप्ति कहा जा सकता है । गीताकार प्रसंगान्तर से उसे ही मोक्ष निर्वाणपद, अव्यय पद, परमपद परमगति और परमधाम भी कहता है। जैन एवं बौद्ध विचारणा के समान गीताकार की दृष्टि में भी संसार पुनरागमन या जन्म मरण की प्रक्रिया से युक्त है जबकि मोक्ष पुनरागमन या जन्म मरण का अभाव है। गीता का साधक इसी प्रेरणा को लेकर आगे बढ़ता है ( जरामरणमोक्षाय 7.29) और कहता है, "जिसको प्राप्त कर लेने पर पुनः संसार में नहीं लौटना होता है उस परम पद की गवेषणा करना चाहिए "14 | गीता का ईश्वर भी साधक ** - - नियमसार १७६-१७६ गहिया ओए अप्यइट्ठाणस्स वेयन - आचारांग १।५।६ । १७१ For Private & Personal Use Only गीता १५३४ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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