Book Title: Jain Darshan me Moksh ka Swaroop Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 2
________________ है लेकिन जब तत्व की पर्यायों के सम्बन्ध में विचार । प्रारम्भ किया जाता है तो बन्धन और मुक्ति की सम्भावनाएं स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि बन्धन और मुक्ति, पर्याय अवस्था में ही सम्भव होती है। मोक्ष को तत्व माना गया है लेकिन वस्तुतः मोक्ष बन्धन के अभाव का ही नाम है। जैनागमों में मोक्ष तत्व पर तीन दृष्टियों से विचार किया है 1 भावात्मक दृष्टिकोण 2. अनावात्मक दृष्टिकोण अनिर्वचनीय दृष्टि 3. कोण | मोक्ष पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार जैन दार्शनिकों ने मोक्षावस्था पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार करते हुए उसे निबाध अवस्था कहा हैं । मोक्ष में समस्त बाधाओं के अभाव के कारण आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं, मोक्ष बाधक तत्वों की अनुपस्थिति और पूर्णता प्रगटन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष की भावात्मक दशा का चित्रण करते हुए उसे शुद्ध, अनन्त चतुष्टय युक्त अक्षय, अविनाशी, निर्बाध, अतीन्द्रिय अनुपम, नित्य, अविचल, अनालम्ब कहा है। आचार्य उसी ग्रन्थ में आगे चलकर मोक्ष में निम्न बातों की विद्यमानता की सूचना करते हैं । ( 1 ) पूर्णज्ञान (2) पूर्णदर्शन ( 3 ) पूर्ण सौख्य (3) पूर्ण पौरूष (4) पूर्णवीर्य (शक्ति) (5) अमूर्तता (6) अस्तित्व (7) सप्रदेशता आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष दशा के । जिन सात भावात्मक तथ्यों का उल्लेख किया है वे सभी भारतीय दर्शनों को स्वीकार नहीं है । वेदान्त सप्रदेशता को अस्वीकार कर देता है। सांख्य, सौख्य एवं वीर्य को, 5. अन्नावा अवस्थाणं अभिधान राजेन्द्र खण्ड ६, पृ. ४३१ 6. नियमसार १७६.१७७ 7. विज्जदि केवलणाणं, केवल सोक्खं च केवलविरियं । केवलदिट्ठ अमुत अस्थित्त सप्पदेसतं | और न्याय, वैशेषिक ज्ञान और दर्शन को भी अस्वीकार कर देते हैं । बौद्ध शून्यवाद अस्तित्व को भी निराश कर देता है और चार्वाक दर्शन मोक्ष की धारणा को भी समाप्त कर देता है। वस्तुतः मोक्षावस्था को अनिर्वचनीय मानते हुए भी विभिन्न दार्शनिक मान्य ताओं के प्रति उत्तर के लिए ही मोक्ष की इस भावात्मक अवस्था का चित्रण किया गया है। भावात्मक दृष्टि से जैन विचारणा मोक्षावस्था में अनन्त चतुष्ठय की उपस्थिति पर बल देती है । अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को जैन विचारणा में अनन्त चतुष्ठय कहा जाता है। बीज रूप में यह अनन्त चतुष्ठय सभी जीवात्माओं में उपस्थित है मोक्ष दशा में इनके अवरोधक कर्मों का क्षय हो जाने से यह पूर्ण रूप में प्रगट हो जाते हैं । यह प्रत्येक आत्मा के स्वभाविक गुण है जो मोक्षावस्था में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो जाता है । अनन्त चतुष्टय में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त शक्ति और अनन्त सौख्य (अध्यावाघसुख) आते हैं। लेकिन अष्टकमों के प्राण के आधार पर सिद्धों के आठ गुणों की मान्यता भी जनविचारणा में प्रचलित है। 1. ज्ञानवरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से मुक्तात्मा अनन्त ज्ञान या पूर्ण ज्ञान से युक्त होता है । 2. दर्शनावरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से अनन्त दर्शन से सम्पन्न होता है। 3. वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से विशुद्ध, अनश्वर, आध्यात्मिक सुखों से युक्त होता है । 4. मोह कर्म के नष्ट हो जाने से यथार्थ दृष्टि ( क्षायिक सम्यकत्व) से युक्त होता है। मोह कर्म के दर्शन मोह और चारित्र मोह ऐसे, दो भाग किए जाते हैं । दर्शन मोह के प्रहाण से प्रथार्थ दृष्टि और चारित्र मोह के यथार्थ Jain Education International नियमसार १०१ १०२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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