Book Title: Jain Darshan me Moksh ka Swaroop Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 7
________________ दृष्टिकोण जैन विचारणा के निर्वाण के अति समीप आ के बौद्ध निर्वाण को अभावात्मक एवं अनस्तित्व के रूप जाता है । क्योंकि यह जैन विचारणा के समान निर्वा- में देखते हैं। निर्वाण के भावात्मक, अभावात्मक और णावस्था में सत्ता (अस्तित्व) और चेतना (ज्ञानोपयोग अनिर्वचनीय पक्षों की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा एवं दर्शनोपयोग) दोनों को स्वीकार करता है । वैभाष्कि प्रतीत होता है कि सौत्रान्तिक विचारणा निर्वाण के दृष्टिकोण निर्वाण को संस्कारों की दृटि से अभावात्मक, अभावात्मक पक्ष पर अधिक बल देती है। यद्यपि इस द्रव्य सत्यता की दृष्टि से भावात्मक एवं बौद्धिक विवे- प्रकार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय का निर्वाण अभावात्मक चना की दृष्टि से अनिर्वचनीय मानता है, फिर भी दृष्टिकोण जैन विचारणा के विरोध में जाता है। लेकिन उसकी व्याख्याओं में निर्वाण का भावात्मक या सत्तात्मक सौत्रान्तिकों में भी एक ऐसा उपसम्प्रदाय था, जिसके पक्ष अधिक उभरा है। सौत्रान्तिक सम्प्रदाय वैभाषिक अनुसार निर्वाण पूर्णतया अभावात्मक दशा नहीं था। सम्प्रदाय के समान यह मानते हुए भी कि निर्वाण उनके अनुसार निर्वाण अवस्था में भी विशुद्ध चेतना संस्कारों का अभाव है, वह स्वीकार नहीं करता है कि पर्यायों का प्रवाह निर्वाण की अवस्था में रहता है। असंस्कृत धर्म की कोई भावात्मक सत्ता होती हैं । इनके यह दृष्टिकोण जैन विचारणा की इस मान्यता के निकट अनुसार केवल परिवर्तनशीलता ही तत्व का यथार्थ ___आता है, जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में भी स्वरूप है । अतः सौत्रान्तिक निर्वाण की दशा में किसी आत्मा में परिणामीपन बना रहता है अर्थात् मोक्ष दशा असंस्कृत अपरिवर्तनशील नित्य तत्व की सत्ता को में आत्मा में चैतन्य ज्ञान धारा सतत रूप से प्रवाहित स्वीकार नहीं करते । उनकी मान्यता में ऐसा करना होती रहती है। बुद्ध के अनित्यवाद और क्षणिकवाद की अवहेलना करना है । शरवात्स्की के अनुसार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय (3) विज्ञानवाद (योगाचार)-महायान के प्रमुख में निर्वाण का अर्थ है जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो ग्रंथ लंकावतारसूत्र के अनुसार निर्वाण सप्त प्रवृति जाना जिसके पश्चात् ऐसा कोई जीवन शून्य तत्व शेष विज्ञानों की अप्रवृतावस्था है; चित्त प्रवृत्तियों का निरोध नहीं रहता है, जिसमें जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो है।29 स्थिरमति के अनुसार निर्वाण क्लेशावरण और गई है" । निर्वाण क्षणिक चेतना प्रवाह का समाप्त हो ज्ञेयावरण का क्षय है।३० असंग के अनुसार निवृत चित्त जाना है, जिसके समाप्त हो जाने पर कुछ भी अवशेष (निर्वाण) उचित है क्योंकि वह विषयों का ग्राहक नहीं नहीं रहता। क्योंकि इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। वह अनुपलम्म है क्योंकि उसको कोई बाह्य आलहै । परिवर्तनशीलता के अतिरिक्त तत्व की कोई म्बन नहीं है और इस प्रकार आलम्बन रहित होने से स्वतंत्र सत्ता नहीं है। और निर्वाण दशा में परिवर्तनों लोकोत्तर ज्ञान है। दौष्ठूल्य अर्थात आवरण (क्लेशाकी शृखला समाप्त हो जाती है, अतः उसके परे कोई वरण और ज्ञेयावरण) के नष्ट हो जाने से निवृत चित्त सत्ता शेष नहीं रहती है। इस प्रकार सौत्रान्तिक निर्माण आलयविज्ञान) परावृत नहीं होता प्रवृत नहीं होता । मात्र अभावात्मक अवस्था है वर्तमान में वर्मा और लंका वह अनावरण और आस्त्रवधातू है, लेकिन असंग केवल 29. लंकावतार सूत्र--२१६२ 30. क्लेशज्ञेयावरण प्रहाणमपि मोक्ष सर्वज्ञत्वाघिगमार्थम । -स्थिरमति त्रिशिको को वि. भा. पृ. १५ 31. अचित्तोऽनुपलम्भो सो ज्ञानं लोकोत्तरं चतत । आश्रयस्यपरावृतिद्विघादौष्ठुल्य हानितः । --त्रिशिका २६ १४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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