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जैन दर्शन में
मोक्ष का स्वरूप,
एक तुलनात्मक अध्ययन
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जैन दर्शन के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो निष्कर्म शुद्धावस्था होती है उसे 'मोक्ष' कहा जाता है । कर्म मलों के अभाव में कर्म जनित आवरण या बन्धन भी नहीं रहते और यह बन्धन का अभाव ही मुक्ति है" । मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है । अनात्मा में ममत्व आसक्ति रूप आत्माभिमान का दूर हो जाना यही मुक्ति है । यही आत्मा की शुद्धावस्था है । बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्याय दृष्टि का विषय है । आत्मा की विरूप पर्याय हो बन्धन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष है। पर पदार्थं, पुद्गल परमाणु या जड़ कर्म वाणिओं के निमत्त से आत्मा में जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं और जिनके कारण पर मैं
( मेरा पन) उत्पन्न होता है यही विरूप पर्याय है, परपरिगति है, स्व की पर में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है । बन्धन और मुक्ति दोनों एक ही आत्म द्रव्य या चेतना की दो अवस्थाएं मात्र हैं, जिस प्रकार स्वर्ण कुण्डल और स्वर्ण मुकुट
1. कृत्स्न कर्मक्षयान् मोक्षः, तत्वार्थ सूत्र १०१
2. बन्ध वियोगो मोक्षः - अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ६, पृ. ४३१
स्वर्ण की दो अवस्थाएं हैं। लेकिन यदि मात्र विशुद्ध तत्व दृष्टि से विचार किया जाए तो बन्धन और मुक्ति दोनों की व्याख्या सम्भव नहीं है क्योंकि आत्मतत्व स्वरूप का परित्याग कर परस्वरूप में कभी भी परिणित नहीं होता । विशुद्ध तत्वदृष्टि से तो आत्मा नित्य मुक्त
3. मुक्खो जीवस्स शुद्ध रूबस्स - बही, खण्ड ६, पृ. ४३१
4. तुलना कीजिए (अ) आत्मा मीमांसा (दलसुखभाई), पृ. ६६-६७
डाँ. सागरमल जैन
( ब ) ममेति बध्यते जन्तुर्नममेति प्रमुच्यते । - गरुड़ पुराण ।
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है लेकिन जब तत्व की पर्यायों के सम्बन्ध में विचार । प्रारम्भ किया जाता है तो बन्धन और मुक्ति की सम्भावनाएं स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि बन्धन और मुक्ति, पर्याय अवस्था में ही सम्भव होती है। मोक्ष को तत्व माना गया है लेकिन वस्तुतः मोक्ष बन्धन के अभाव का ही नाम है। जैनागमों में मोक्ष तत्व पर तीन दृष्टियों से विचार किया है 1 भावात्मक दृष्टिकोण 2. अनावात्मक दृष्टिकोण अनिर्वचनीय दृष्टि
3.
कोण |
मोक्ष पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार
जैन दार्शनिकों ने मोक्षावस्था पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार करते हुए उसे निबाध अवस्था कहा हैं । मोक्ष में समस्त बाधाओं के अभाव के कारण आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं, मोक्ष बाधक तत्वों की अनुपस्थिति और पूर्णता प्रगटन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष की भावात्मक दशा का चित्रण करते हुए उसे शुद्ध, अनन्त चतुष्टय युक्त अक्षय, अविनाशी, निर्बाध, अतीन्द्रिय अनुपम, नित्य, अविचल, अनालम्ब कहा है। आचार्य उसी ग्रन्थ में आगे चलकर मोक्ष में निम्न बातों की विद्यमानता की सूचना करते हैं । ( 1 ) पूर्णज्ञान (2) पूर्णदर्शन ( 3 ) पूर्ण सौख्य (3) पूर्ण पौरूष (4) पूर्णवीर्य (शक्ति) (5) अमूर्तता (6) अस्तित्व (7) सप्रदेशता आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष दशा के । जिन सात भावात्मक तथ्यों का उल्लेख किया है वे सभी भारतीय दर्शनों को स्वीकार नहीं है । वेदान्त सप्रदेशता को अस्वीकार कर देता है। सांख्य, सौख्य एवं वीर्य को,
5. अन्नावा अवस्थाणं अभिधान राजेन्द्र खण्ड ६, पृ. ४३१
6. नियमसार १७६.१७७
7. विज्जदि केवलणाणं, केवल सोक्खं च केवलविरियं । केवलदिट्ठ अमुत अस्थित्त सप्पदेसतं |
और न्याय, वैशेषिक ज्ञान और दर्शन को भी अस्वीकार कर देते हैं । बौद्ध शून्यवाद अस्तित्व को भी निराश कर देता है और चार्वाक दर्शन मोक्ष की धारणा को भी समाप्त कर देता है। वस्तुतः मोक्षावस्था को अनिर्वचनीय मानते हुए भी विभिन्न दार्शनिक मान्य ताओं के प्रति उत्तर के लिए ही मोक्ष की इस भावात्मक अवस्था का चित्रण किया गया है। भावात्मक दृष्टि से जैन विचारणा मोक्षावस्था में अनन्त चतुष्ठय की उपस्थिति पर बल देती है । अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को जैन विचारणा में अनन्त चतुष्ठय कहा जाता है। बीज रूप में यह अनन्त चतुष्ठय सभी जीवात्माओं में उपस्थित है मोक्ष दशा में इनके अवरोधक कर्मों का क्षय हो जाने से यह पूर्ण रूप में प्रगट हो जाते हैं । यह प्रत्येक आत्मा के स्वभाविक गुण है जो मोक्षावस्था में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो जाता है । अनन्त चतुष्टय में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त शक्ति और अनन्त सौख्य (अध्यावाघसुख) आते हैं। लेकिन अष्टकमों के प्राण के आधार पर सिद्धों के आठ गुणों की मान्यता भी जनविचारणा में प्रचलित है। 1. ज्ञानवरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से मुक्तात्मा अनन्त ज्ञान या पूर्ण ज्ञान से युक्त होता है । 2. दर्शनावरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से अनन्त दर्शन से सम्पन्न होता है। 3. वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से विशुद्ध, अनश्वर, आध्यात्मिक सुखों से युक्त होता है । 4. मोह कर्म के नष्ट हो जाने से यथार्थ दृष्टि ( क्षायिक सम्यकत्व) से युक्त होता है। मोह कर्म के दर्शन मोह और चारित्र मोह ऐसे, दो भाग किए जाते हैं । दर्शन मोह के प्रहाण से प्रथार्थ दृष्टि और चारित्र मोह के यथार्थ
नियमसार १०१
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से चारित्र ( क्षायिकचारित्र) का प्रगटन होता है, लेकिन मोक्ष दशा में क्रिया रूप चारित्र नहीं होता, मात्र दृष्टि रूप चारित्र ही होता है, अतः उसे क्षायिक सम्यक्त्व के अन्तर्गत ही माना जा सकता है, वैसे आठ कर्मों की 31 प्रकृतियों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के 31 गुण माने गये हैं, उसमें यथास्यात चारित्र को स्वतंत्र गुण माना गया है। 5 जायुकर्म के क्षय हो जाने से मुक्तात्मा अशरीरी होता है अतः वह इन्द्रियग्राह्य नहीं होता । 7 गोत्र कर्म के नष्ट हो जाने से वह अगुरुलघुत्व से मुक्त हो जाता है अर्थात् सभी सिद्ध समान होते हैं उनमें छोटा बड़ा या ऊँच नीच का भाव नहीं होता। 8 अन्तरायकर्म का प्रहाण हो जाने से बाधा रहित होता है, अर्थात् अनन्त शक्ति सम्पन्न होता है" । अनन्त शक्ति का यह विचार मूलतः निषेधात्मक ही है यह मात्र बाधाओं का अभाव है । लेकिन इस प्रकार अष्ट कर्मों के प्रहाण के आधार पर मुक्तात्मा के आठ गुणों की व्याख्या का मात्र एक व्यवहारिक संक ल्पना ही है। उसके वास्तविक स्वरूप का निर्वाचन नहीं है। व्यवहारिक दृष्टि से उसे समझने का प्रयास मात्र है इसका मात्र व्यवहारिक मूल्य है। वस्तुतः तो वह अनिर्वचनीय है। आचार्य नेमीचन्द्र गोम्मटसार में स्पष्ट रूप से कहते हैं, सिद्धों के इन गुणों का विधान मात्र सिद्धारमा के स्वरूप के सम्बन्ध में जो एकान्तिक मान्यताएं हैं उनके निषेध के लिए है" । मुक्तात्मा में केवल ज्ञान और केवल दर्शन के रूप में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके मुक्तात्मा को जड़
मानने वाली वैभाषिक बौद्धों और न्याय-वैशेषिक दर्शन की धारणा का प्रतिषेध किया गया है। मुक्तात्मा के अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को अभावात्मक रूप में मानने वाले जड़वादी तथा सौत्रान्तिक बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष दशा का समग्र भावात्मक चित्रण अपना निषेधात्मक मूल्य ही रखता है । यह विधान भी निषेध के लिए है।
अभावात्मक दृष्टि से मोक्ष तत्व पर विचार-
जैनागमों में मोक्षावस्था चित्रण निषेधात्मक रूप
से भी हुआ है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग में मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया गया है। मोक्षावस्था में समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा में समस्त कर्म जन्य उपाधियों का भी अभाव होता है अतः मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्वस्व है न वृताकार है न त्रिकोण है न चतुष्कोण है, न परिमण्डल संस्थान वाला है। वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेतवर्ण वाला भी नहीं है, वह सुगन्ध और दुर्गन्धवाला भी नहीं है। न वह तीक्ष्ण कटुक, खड्डा, मीठा एवं अम्ल रस वाला है । उसमें गुरू, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध कक्ष, शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श गुणों का भी अभाव है । वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुसंक है । इस प्रकार मुक्तात्मा में रूप, रस, वर्ण, गन्ध और स्पर्श भी नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में
8. कुछ विद्वानों ने अगुरुलघुत्व का अर्थ न हल्का न भारी ऐसा भी किया है । 9. प्रवचनसारोद्वार द्वार २७६, गाथा १५१३-१५९४
10. सदासिव ससो मक्कडि बुद्धौ नैवाइयो य बेसेसी ।
ईसर मंडल दंसण विदूसणट्ठे कयं एदं ॥ गोम्मटसार ( नेमिचन्द्र )
11.
से न दीहे, न हस्से, न वट्टे, न तंसे, न चउरंसे, न परिमंडले, न किण्हे, न नीले, न लोहिए, न हालिदे, न सुकिल्ले, न सुरभिगन्धे, न दुरभिगन्धे, न तित्ते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न मेहुरे, न कक्खड़े, न मउए, न गुरूए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निद्ध े न लुक्खे, न काऊ, न रूहे, न संगे, न इत्थी, न पुरिसे, न अग्रहा, से न सद्दे न रूवे न गंधे, न रसे, न फासे आचारसंगसूत्र १२५२६
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मोक्षदशा का निषेधात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हुए लिखते है मोक्षदशा में न सुख है न दुःख है, न पीला है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण है। न वहां इन्द्रियां है, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न निद्रा है; न वहा चिन्ता है, न आर्त और रौद्र विचार ही, वहाँ तो धर्म (शुभ) और शुक्ल ( प्रशस्त ) विचारों का भी अभाव है। मोक्षावस्था तो सर्व संकल्पों का अभाव है, वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं है वह पातिक्रांत है। इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक विवेचन उसकी अनिर्वचनीयता को बताने के लिए है।
मोक्ष का अनिर्वचनीय स्वरूप
मोक्षतत्व का निषेधात्मक निर्वाचन अनिवार्य रूप से हमें उसकी अनिर्वचनीयता की और ही ले जाता है । पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते हुए जैन दार्शनिकों ने उसे अनिर्वचनीय ही माना है ।
आवारांग सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है समस्त स्वर वहां से लौट आते हैं, अर्थात् मुक्तात्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृति का विषय नहीं है, वाणी उसका निर्वचन करने में कदापि समर्थ नहीं है वहां वाणी मूक हो जाती, तर्क की वहां तक पहुंच नहीं है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है,
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अर्थात् यह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। । किसी भी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता है क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है, अरूपी सत्ताधान है। उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके 13 । उसके बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है, वह अरूप, अरस अवर्ण, अगंध और अस्पर्श है क्योंकि यह इन्द्रियग्राह्म नहीं है ।
गीता में मोक्ष का स्वरूप
12. गवि दुःखं गवि सुक्लं गवि पीडा णेवविज्जदे बाहा । णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होई निव्वाणं || णिव इंदिय उवसग्गा णिव मोहो विम्हियो ण णिद्दाय । ण व तिण्हा शेव छुहा तत्थेव हवदि निव्वाणं ॥ 13. सब्वे सरा नियति, तक्क जत्थ न विज्जद, मई तत्व न - उबम्प न विज्जए अस्वी सत्ता अपयस्स पयं नत्थ । तुलना कीजिए
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह - तैत्तरीय २६ न चक्षुषा गृह्यते नाऽपि वाचा -मुण्डक ३।११६
ततः पदं तत्परिमार्गितव्य, यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
गीता की समग्र साधना का लक्ष्य परमतत्व, ब्रह्म अक्षर पुरुष अथवा पुरुषोतम की प्राप्ति कहा जा सकता है । गीताकार प्रसंगान्तर से उसे ही मोक्ष निर्वाणपद, अव्यय पद, परमपद परमगति और परमधाम भी कहता है। जैन एवं बौद्ध विचारणा के समान गीताकार की दृष्टि में भी संसार पुनरागमन या जन्म मरण की प्रक्रिया से युक्त है जबकि मोक्ष पुनरागमन या जन्म मरण का अभाव है। गीता का साधक इसी प्रेरणा को लेकर आगे बढ़ता है ( जरामरणमोक्षाय 7.29) और कहता है, "जिसको प्राप्त कर लेने पर पुनः संसार में नहीं लौटना होता है उस परम पद की गवेषणा करना चाहिए "14 | गीता का ईश्वर भी साधक
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- नियमसार १७६-१७६
गहिया ओए अप्यइट्ठाणस्स वेयन - आचारांग १।५।६ । १७१
गीता १५३४
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को आश्वस्त करते हुए यही कहता है कि "जिसे प्राप्त ब्रह्म परमतत्व, स्वभाव (आत्मा की स्वभाव दशा) कर लेने पर पुनः संसार में आना नहीं होता, वही और आध्यात्म भी कहा जाता है । गीता की दृष्टि में मेरा परमधाम (स्वस्थान) है।" परमसिद्धि को प्राप्त मोक्ष निर्वाण है परमशान्ति का अधिस्थान है। । जैन हुए महात्माजन मेरे को प्राप्त होकर दुःखों के घर इस दार्शनिकों के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि अस्थिर पुर्नजन्म को प्राप्त नहीं होते हैं। ब्रह्मलोक मोक्ष सुखावस्था है। गीता के अनुसार मुक्तात्मा ब्रह्मभूत पर्यन्त समन जगत पुनरावृति युक्त है । लेकिन जो भी होकर अत्यन्त सुख (अनन्त सौख्य) का अनुभव करता मुझे प्राप्त कर लेता है उसका पुर्नजन्म नहीं होता। है1 । यद्यपि गीता एवं जैन दर्शन में मुक्तात्मा में जिस "मोक्ष के अनावृत्ति रूप लक्षण को बताने के साथ ही सुख की कल्पना की गई है वह न ऐन्द्रिय सुख है न वह मोक्ष के स्वरूप का निर्वचन करते हुए गीता कहती है मात्र दु:खाभाव रूप सुख है। वरन् वह अतीन्द्रिय "इस अव्यक्त से भी परे अन्य सनातन अव्यक्त तत्व हैं, ज्ञानगम्य अनश्वर सुख है। जो सभी प्राणियों में रहते हुए भी उनके नष्ट होने पर नष्ट नहीं होता है अर्थात् चेतना पर्यायों में जो अव्यक्त बौद्ध दर्शन में निर्वाण का स्वरूपहै उनसे भी परे उनका आधार भूत आत्मतत्व है। भगवान बुद्ध की दृष्टि में निर्वाण का स्वरूप क्या चेतना की अवस्थाएँ नश्वर है, लेकिन उनसे परे रहने है? यह प्रश्न प्रारम्भ से विवाद का विषय रहा है। वाला यह आत्मतत्व सनातन है जो प्राणियों में चेतना स्वयं बौद्ध दर्शन के आवन्तर सम्प्रदायों में भी निर्वाण (ज्ञान) पर्यायों के रूप में अभिव्यक्त होते हुए भी उन के स्वरूप को लेकर आत्यन्ति विरोध पाया जाता है। प्राणियों तथा उनकी चेतना पर्यायों (चेतन अवस्थाओं) आधुनिक विद्वानों ने भी इस सम्बन्ध में परस्पर विरोधी के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। उसी आत्मा निष्कर्ष निकाले हैं जो एक तुलनात्मक अर्ध्यता को को अक्षर और अव्यक्त कहा गया है, और उसे ही अधिक कठिनाई में डाल देते हैं। वस्तुतः इस कठिनाई परमगति भी कहते हैं वही परमधाम भी है वही मेरा का मूल कारण पालि निकाय में निर्वाण का विभिन्न परमात्म स्वरूप आत्मा का निज स्थान है, जिसे प्राप्त दृष्टियों से अलग-अलग प्रकार से विवेचन किया जाना कर लेने पर पुनः निवर्तन नहीं होता। उसे अक्षर है। आदरणीय श्री पुसें एयं प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त
15. (अ) यंप्राप्य न निर्वतन्ते तध्दाम परमं मम । -गीता ८।२१
(ब) यंगत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। -गीता १५४६ (स) मामुपेत्य पुर्नजन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
____ नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः । -गीता ८।१५ 16. गीता-८।२०-२१ 17. अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्मुच्यते । -गीता ८।३ 18. शान्तिं निर्वाणपरमं । -गीता ६.१५ 19. सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शभत्यन्तं सुखमश्नुते । -गीता ६।२८ 20. सुखमात्यन्तिकं यताद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । -गीता ६।२१ 21. इनसाइक्लोपेडिया आफ इथिक्स एण्ड रिलीजन 22. आस्पेक्टस ऑफ महायान इन रिलेशन ट्रहीनयान
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ने बौद्ध निर्वाण के सम्बन्ध में विद्वानों के दृष्टिकोणों धर्म है। प्रोफेसर घरवात्स्की ने वैभाषिक निर्वाण को निम्न रूप से वर्गीकृत किया है ।
की अनन्त मृत्यु कहा है। उनके अनुसार निर्वाण आध्यात्मिक अवस्था नहीं वरन् चेतना एवं क्रिया शून्य जड़ अवस्था है । लेकिन समादरणीय एस. के. मुकर्जी, प्रोफेसर नविनाक्ष दत्त और प्रोफेसर मूर्ति" ने प्रोफेसर शारवात्स के इस दृष्टिकोण का विरोध किया है। इन विद्वानों के अनुसार वैभाषिक निर्वाण निश्चित रूप के एक भावात्मक अवस्था है । जिसमें यद्यपि संस्कारों का अभाव होता लेकिन फिर भी उसकी असंस्कृत धर्म के रूप में भावात्मक सत्ता होती है। वैभाषिक निर्वाण में चेतना का अस्तित्व होता है या नहीं है ? यह प्रश्न भी विवादास्पद है, प्रोफेसर शरवात्सकी निर्वाण दशा में चेतना का अभाव मानते हैं लेकिन प्रोफेसर मुकर्जी इस सम्बन्ध में एक परिष्कारित दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, उनके अनुसार यशोमित्र की अभिधर्मकोष की टीका के आधार पर निर्वाण की दशा में विशुद्ध मानस या चेतना रहती है।
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(1) निर्वाण एक अभावात्मक तथ्य है । (2) निर्वाण अनिवर्चनीय अव्यक्त अवस्था है। ( 3 ) निर्वाण की बुद्ध ने कोई व्याख्या नहीं दी है। (4) निर्वाण भावात्मक विशुद्ध पूर्ण चेतना की अवस्था है ।
बौद्ध दर्शन के आवन्तर प्रमुख निर्वाण के स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न भेद हैं
सम्प्रदायों का प्रकार से दृष्टि
( 1 ) वैभाषिक सम्प्रदाय के अनुसार निर्वाण संस्कारों या संस्कृत धर्मों का अभाव है क्योंकि संस्कृत धर्मता ही अनित्यता है, यही बन्धन है, यही दुःख है, लेकिन निर्वाण तो दु:ख निरोध है, बन्धनाभाव है और इसलिए वह एक असंस्कृत धर्म है और असंस्कृत धर्म के रूप में उसकी भावात्मक सत्ता है। वैभाषिक मत के निर्वाण के स्वरूप को अभिधर्म कोष व्याख्या में निम्न प्रकार से बताया गया है "निर्वाण नित्य असंस्कृत स्वतन्त्र सत्ता, पृथक-भूत, सत्य पदार्थ (द्रव्यसत) है": । निर्वाण में संस्कार या पर्यायों का अभाव होता है लेकिन यहां संस्कारों के अभाव का अर्थ अनसित्व नहीं है, वरन् एक भावात्मक अवस्था ही है। निर्वाण असंस्कृत
23. द्रव्यं सत् प्रतिसंख्या निरोधः सत्यचतुष्टय निर्देश- निद्धिं ष्टत्वात, मार्ग सत्येव इति वैभाषिकाः । - यशोमित्र अभिधर्म कोष व्याख्या, पृ. १७ ।
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डा. लाड ने अपने शोध प्रबन्ध में एवं विद्वत्वर्य बलदेव उपाध्याय ने बौद्ध दर्शन मीमांसा में वैभाषिक बौद्धों के एक तिव्वतीय उप सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में केवल वासनात्मक एवं वलेशोत्पादक (सास्त्रव) चेतना का ही अभाव होता है। इसका तात्पर्य यह है कि निर्वाण की दिशा में अनास्त्रव विशुद्ध चेतना का अस्तित्व बना रहता है" । वैभाषिकों के इस उप सम्प्रदाय का यह
24. बुद्धिस्ट निर्वाण, पृ. २७
25. आस्पेक्ट्स ऑफ महायान इन रिलेशन ट्ट हीनयान, पृ. १६२
26. सेंट्रल फिलासफी आफ बुद्धिज्म, पृ. २७२-७३
27. बुद्धिस्ट फिलासफी आप युनिवर्सल पलक्स पू. २५२
28. ए कम्परेटिव स्टेडी ऑफ दी कानसेप्ट आफ लिबरेशन इन इंडियन फिलासफी, पू. ६६
(ब) बौद्ध दर्शन मीमांसा पृ. १४७
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दृष्टिकोण जैन विचारणा के निर्वाण के अति समीप आ के बौद्ध निर्वाण को अभावात्मक एवं अनस्तित्व के रूप जाता है । क्योंकि यह जैन विचारणा के समान निर्वा- में देखते हैं। निर्वाण के भावात्मक, अभावात्मक और णावस्था में सत्ता (अस्तित्व) और चेतना (ज्ञानोपयोग अनिर्वचनीय पक्षों की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा एवं दर्शनोपयोग) दोनों को स्वीकार करता है । वैभाष्कि प्रतीत होता है कि सौत्रान्तिक विचारणा निर्वाण के दृष्टिकोण निर्वाण को संस्कारों की दृटि से अभावात्मक, अभावात्मक पक्ष पर अधिक बल देती है। यद्यपि इस द्रव्य सत्यता की दृष्टि से भावात्मक एवं बौद्धिक विवे- प्रकार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय का निर्वाण अभावात्मक चना की दृष्टि से अनिर्वचनीय मानता है, फिर भी दृष्टिकोण जैन विचारणा के विरोध में जाता है। लेकिन उसकी व्याख्याओं में निर्वाण का भावात्मक या सत्तात्मक सौत्रान्तिकों में भी एक ऐसा उपसम्प्रदाय था, जिसके पक्ष अधिक उभरा है। सौत्रान्तिक सम्प्रदाय वैभाषिक अनुसार निर्वाण पूर्णतया अभावात्मक दशा नहीं था। सम्प्रदाय के समान यह मानते हुए भी कि निर्वाण उनके अनुसार निर्वाण अवस्था में भी विशुद्ध चेतना संस्कारों का अभाव है, वह स्वीकार नहीं करता है कि पर्यायों का प्रवाह निर्वाण की अवस्था में रहता है। असंस्कृत धर्म की कोई भावात्मक सत्ता होती हैं । इनके यह दृष्टिकोण जैन विचारणा की इस मान्यता के निकट अनुसार केवल परिवर्तनशीलता ही तत्व का यथार्थ ___आता है, जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में भी स्वरूप है । अतः सौत्रान्तिक निर्वाण की दशा में किसी आत्मा में परिणामीपन बना रहता है अर्थात् मोक्ष दशा असंस्कृत अपरिवर्तनशील नित्य तत्व की सत्ता को में आत्मा में चैतन्य ज्ञान धारा सतत रूप से प्रवाहित स्वीकार नहीं करते । उनकी मान्यता में ऐसा करना होती रहती है। बुद्ध के अनित्यवाद और क्षणिकवाद की अवहेलना करना है । शरवात्स्की के अनुसार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय (3) विज्ञानवाद (योगाचार)-महायान के प्रमुख में निर्वाण का अर्थ है जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो ग्रंथ लंकावतारसूत्र के अनुसार निर्वाण सप्त प्रवृति जाना जिसके पश्चात् ऐसा कोई जीवन शून्य तत्व शेष विज्ञानों की अप्रवृतावस्था है; चित्त प्रवृत्तियों का निरोध नहीं रहता है, जिसमें जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो है।29 स्थिरमति के अनुसार निर्वाण क्लेशावरण और गई है" । निर्वाण क्षणिक चेतना प्रवाह का समाप्त हो ज्ञेयावरण का क्षय है।३० असंग के अनुसार निवृत चित्त जाना है, जिसके समाप्त हो जाने पर कुछ भी अवशेष (निर्वाण) उचित है क्योंकि वह विषयों का ग्राहक नहीं नहीं रहता। क्योंकि इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। वह अनुपलम्म है क्योंकि उसको कोई बाह्य आलहै । परिवर्तनशीलता के अतिरिक्त तत्व की कोई म्बन नहीं है और इस प्रकार आलम्बन रहित होने से स्वतंत्र सत्ता नहीं है। और निर्वाण दशा में परिवर्तनों लोकोत्तर ज्ञान है। दौष्ठूल्य अर्थात आवरण (क्लेशाकी शृखला समाप्त हो जाती है, अतः उसके परे कोई वरण और ज्ञेयावरण) के नष्ट हो जाने से निवृत चित्त सत्ता शेष नहीं रहती है। इस प्रकार सौत्रान्तिक निर्माण आलयविज्ञान) परावृत नहीं होता प्रवृत नहीं होता । मात्र अभावात्मक अवस्था है वर्तमान में वर्मा और लंका वह अनावरण और आस्त्रवधातू है, लेकिन असंग केवल
29. लंकावतार सूत्र--२१६२ 30. क्लेशज्ञेयावरण प्रहाणमपि मोक्ष सर्वज्ञत्वाघिगमार्थम । -स्थिरमति त्रिशिको को वि. भा. पृ. १५ 31. अचित्तोऽनुपलम्भो सो ज्ञानं लोकोत्तरं चतत । आश्रयस्यपरावृतिद्विघादौष्ठुल्य हानितः ।
--त्रिशिका २६
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इस निषेधात्मक विवेचन से सन्तुष्ट नहीं होते, वे निर्वाण आलय विज्ञान को अपरिवर्तनीय या कूटस्थ माना है।83 की अनिर्वचनीय एवं भावात्मक व्याख्या भी लेकिन आदरणीय बलदेव उपाध्याय उसे प्रवाहमान प्रस्तुत करते हैं । निर्वाण अचिन्त्य है क्योंकि तर्क से या परिवर्तनशील ही मानते हैं।4 (4) निर्वाणावस्था उसे जाना नहीं जा सकता लेकिन अचिन्त्य होते हुए भी सर्वज्ञता की अवस्था है। जैन विचारणा के अनुसार वह कुशल है, शाश्वत है, सुख रूप है, विमुक्तकाय है, उस अवस्था में केवल ज्ञान और केवल दर्शन है । असंग
और धर्माख्य है। इस प्रकार विज्ञानवादी मान्यता में ने महायान सूत्रालंकार में धर्मकाय को, जो कि निर्वाण निर्वाण की अभाव परक और भावपरक व्याख्याओं के की पर्यायवाची है, स्वाभाविक काय कहा है 135 जैन साथ-साथ उनकी अनिर्वचनीयता को भी स्वीकार किया विचारणा भी मोक्ष को स्वभाव दशा कहा जाता है। गया है वस्तुत: निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप के विकास स्वाभाविक काय और स्वभाव दशा अनेक अर्थों में अर्थका श्रेय विज्ञानवाद और शून्यवाद को ही है। लंका- साम्य रखते हैं। वतार सूत्र में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वोच्च विकास देखा जा सकता है। लंकावतार सूत्र के अनु- (4) शून्यवाद-बौद्ध दर्शन के माध्यमिक सम्प्रसार निर्वाण विचार की कोटियों से परे है लेकिन फिर दाय में निर्वाण के अनिवर्चनीय स्वरूप का सर्वाधिक भी विज्ञानवाद निर्वाण को इस आधार पर नित्य विकास हुआ है। जैन तथा अन्य दार्शनिकों ने शून्यता माना जा सकता है कि निर्वाण लाभ से ज्ञान उत्पन्न । का अभावात्मक अर्थ ग्रहण कर माध्यमिक निर्वाण को होता है।
अभावात्मक रूप में देखा है, लेकिन यह उस सम्प्रदाय
के दृष्टिकोण को समझने में सबसे बड़ी भ्रान्ति ही कही तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर विज्ञानवादी जा सकती है । माध्यमिक दृष्टि से निर्वाण अनिवर्चनीय निर्वाण का जैन विचारणा से निम्न अर्थों में साम्य है। है, चतुष्कोटि विनिमुक्त है, वही परमतत्व है। वह न (1) निर्वाण चेतना का अभाव नहीं हैं, वरन् विशुद्ध भाव है, न अभाव है। यदि वाणी से उसका निर्वचन चेतना की अवस्था है। (2) निर्वाण समस्त संकल्पों करना ही आवश्यक हो तो मात्र यह कहा जा सकता का क्षय है, वह चेतना की निर्विकल्पावस्था है। (3) है कि निर्वाण अप्रहाण, असम्प्राप्त अनुच्छेद अशाश्वत, निर्वाणावस्था में भी चैतन्य धारा सतत प्रवाहमान रहती अनिरुद्ध, अनुत्पन्न है । निर्वाण को भाव रूप इसलिए है (आत्मपरिणमीपन) यद्यपि डा. चन्द्रधर शर्मा ने नहीं माना जा सकता है कि भावात्मक वस्तु या तो
32. स एवानास्त्रवो धातुरचिन्त्यः कुशलो ध्र वः । -त्रिशिका 30 33. देखिये-A critical survey of Indian Philosophy-ty C. D. Sharma 34. बौद्ध दर्शन मीमांसा 35. महायान सूत्रालंकार ६।६० (महायान-शान्तिभिक्षु पृष्ठ ७३) 36. भावाभाव परामर्शक्षयो निर्वाणं उच्यते । -माध्यमिककारिका वृति पृष्ठ ५२४
[उद्धृत दी सेंट्रल फिलासफी आफ बुद्धीज्म (टी. आर. व्ही. मुर्ती) पृष्ठ २७४] 37. अप्रहीणम सम्प्राप्तमनुच्छिन्नमशाश्वतम् ।
अनिरूद्धमनुत्पन्नमेतन्निर्वाण मुच्यते ॥ -माध्यमिक कारिका वृति पृ. ५२१
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नित्य होगी या अनित्य । नित्य मानने पर निर्वाण के लिए किये प्रयासों का कोई अर्थ नहीं होगा । अनित्य मानने पर बिना प्रयास ही मोक्ष होगा। निर्वाण को अभाव भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा तथागत के द्वारा उसकी प्राप्ति का उपदेश क्यों दिया जाता । निर्वाण को प्रहाण और सम्प्राप्त भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा निर्वाण कृतक एवं कालिक होगा और यह मानना पड़ेगा । वह काल विशेष में उत्पन्न हुआ और यदि वह उत्पन्न हुआ तो वह जरामरण के समान अनित्य ही होगा । निर्वाण को उच्छेद या शाश्वत भी नहीं कहा जा सकता अन्यथा शास्ता के मध्यम मार्ग का उल्लंघन होगा और हम उच्छेदवाद या शाश्वतवाद की मिथ्या दृष्टि से ग्रसित होंगे। इसलिए माध्यमिक नय में निर्वाण भाव और अभाव दोनों नहीं हैं । वह तो सर्व संकल्पनाओं का क्षय है, प्रपंचोपशमता है ।
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बौद्धदार्शनिकों एवं वर्तमान युग के विद्वानों में बौद्ध दर्शन में निर्वाण के स्वरूप को लेकर जो मतभेद दृष्टिगत होता है उसका मूल कारण बुद्ध द्वारा निर्वाण का विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विविध रूप से कथन किया जाना है। पाली- निकाय में निर्वाण के इन विविध स्वरूपों का विवेचन उपलब्ध होता है । उदान नामक एक लघु ग्रन्थ में ही निर्वाण के इन विविधरूपों को देखा जा सकता है
(निर्वाण ) अजात अभूत, अकृत, असंस्कृत है। भिक्षुओं यदि वह अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत नहीं होता तो जात, भूत, कृत और संस्कृत का व्युपशम नहीं हो सकता । भिक्षुओं क्योंकि वह अजात, अभूत, अकृत और असंस्कृत है इसलिए जात भूत, कृत और संस्कृत
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का व्युपशम जाना जाता है"। धम्मपद में निर्वाण को परम सुख अच्युत स्थान अमृत पद " कहा गया है जिसे प्राप्त कर लेने पर न च्युति का भय होता । है, न शोक होता है । उसे शान्त ससांरोपशम एवं सुख पद भी कहा गया है" । इति वृत्तक में कहा गया वह ध्रुव, न उत्पन्न होने वाला, शोक और राग रहित है, सभी दुःखों का वहा निरोध हो जाता है, वहां संस्कारों की शान्ति एवं सुख है" । आचार्य बुद्ध घोष निर्वाण की भावात्मकता का समर्थन करते हुए विशुद्धिमा लिखते हैं - निर्वाण नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए । प्रभव और जरामरण के अभाव से नित्य है -- अशिथिल, पराक्रम सिद्ध, विशेष ज्ञान से प्राप्त किए जाने से और सर्वज्ञ के वचन तथा परमार्थ से निर्वाण अविधमान नहीं है ।
निर्वाण की अभावात्मकता निर्वाण की अभा वात्मकता के सम्बन्ध में उदान के रूप में निम्न बुद्ध वचन है, "लोहे पर धन की चोट पड़ने पर जो चिन गारियां उठती है सो तुरन्त ही बुझ जाती है-कहां गई कुछ पता नहीं चलता। इसी प्रकार काम बन्धन से मुक्त हो निर्वाण पाए हुए पुरुष की गति का कोई इस सन्दर्भ में बुद्ध वचन इस प्रकार है "भिक्षुओं भी पता नहीं लगा सकता 44 |
निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है
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38. उदान ८ । ३ पृ. ११० १११ ( ऐसा ही वर्णन इतिवृत्तक २२६ में भी है )
39. धम्मपद २०३, २०४ ( निव्वाणं परम सु)
40. अमतं सन्ति निव्वाण पदमत्वृतं - सुत्तनिपात पारायण वग्ग
41 पद सन्त सखारूपसमं सखधम्मपद ३६८
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42. इत्तिवृत्तक २२६
43. विशुद्धि मग्ग (परिच्छेद १६ ) भाग २, पृ. १९१६-१२१ ( हिन्दी अनुवाद - भिक्षुधर्म रक्षि ) 44. उदान पाटलिग्राम वर्ग ८।१०
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शरीर छोड़ दिया, संज्ञा निरुद्ध हो गई, सारी वेदनाओं को भी बिलकुल जला दिया। संस्कार शान्त होगए विज्ञान अस्त हो गया" ।
लेकिन दीप शिखा और अग्नि के बुझ जाने अथवा संज्ञा के निरुद्ध हो जाने का अर्थ अभाव नहीं माना जा सकता, आचार्य बुद्धघोष विशुद्धिमग्ग में कहते हैं निरोध का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है"। प्रोफेसर कीथ एवं प्रोफेसर नलिनाक्षदत्त अग्गि बच्छ गोत्तमुत्त के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि बुश जाने का अर्थ अभावात्मकता नहीं है, वरन अस्तित्व की रहस्यमय, अवर्णणीय अवस्था है। प्रोफेसर कीथ के अनुसार निर्माण अभाव नहीं वरन चेतना का अपने मूल ( वास्तविक शुद्ध ) स्वरूप में अवस्थित होना है। प्रोफेसर निलनाक्षदस के शब्दों में निर्वाण की अग्नि शिखा के बुझ जाने से की जाने वाली तुलना समुचित है, क्योंकि भारतीय चिन्तन में आग के बुझ जाने से तात्पर्य उसके अनस्तित्व से न होकर उसका स्वभाविक शुद्ध अदृश्य अव्यक्त अवस्था में चला जाना है, जिसमें की वह अपने हृदय प्रगटन के पूर्व रही हुई थी बौद्ध दार्शनिक संभद्र का भी यही निरूपण है कि अग्नि की उपमा से हमको यह कहने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण अभाव है" । मिलिन्द प्रश्न के अनुसार भी निर्वाण अस्ति धर्म (अस्थिधम्म) एकान्त सुख एवं अप्रतिभाग है
45. उदान चाह
46. विशुद्धिमग्ग, परिच्छेद ८ एवं १६
47. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. २६४ पर उदघृत
उसका लक्षण स्वरूपतः नहीं बताया जा सकता किन्तु गुणतः दृष्टान्त के रूप में कहा जासकता है कि जिस प्रकार जल प्यास को शान्त करता है, निर्वाण त्रिविध तृष्णा को शान्त करता है। निर्वाण को अकुत कहने से भी उसकी एकान्त अभावरमकता सिद्ध नहीं होती। आयें ( साधक) निर्वाण का उत्पाद नहीं करता फिर भी वह उसका साक्षात्कार ( साक्षीकरोति) एवं प्रतिलाभ ( प्राप्नोति) करता है। वस्तुतः निर्वाण को अभावात्मक रूप में इसीलिए कहा जाता है कि अनिर्वचनीय का निर्वचन करना भावात्मक भाषा की अपेक्षा अभावात्मक भाषा अधिक युक्तिपूर्ण होती है।
निर्वाण को अनिर्वचनीयता निर्वाण की अनियंचनीयता के सम्बन्ध में निम्न बुद्ध वचन उपलब्ध है-"मिओ न तो मैं उसे अगति और न गति कहता हूँ. न स्थिति और न च्युति कहता हूँ, उसे उत्पत्ति भी नहीं कहता हूँ । वह न तो कहीं ठहरा है, न प्रवर्तित होता है और न उसका कोई आधार है यही दुःखों का अन्त है 148 भिक्षुओ ! अनन्त " का समझना कठिन है, निर्वाण का समझना आसान नहीं । ज्ञानी की तृष्णा नष्ट हो जाती है उसे ( रागादिक्लेश) कुछ नहीं है 10 जहाँ (निर्वाण जन, पृथ्वी, अग्नि और वायु नहीं ठहरती, वहाँ न तो शुक्र और न आदित्य प्रकाश करते है। यहाँ चन्द्रमा की प्रभा भी नहीं है, न वहाँ अंधकार ही होता है । जब क्षीणाश्रव भिक्षु अपने आपको जान लेता है।
48. उदान ८१
49. मूल पाली में यहाँ पाठान्तर है-तीन पाठ मिलते है १. अनतं २. अनतं ३ अनन्तं । हमने यहाँ "अनन्त " शब्द का अर्थ ग्रहण किया है। आदरणीय काश्यपजी ने अनत (अनात्म) पाठ को अधिक उपयुक्त माना है लेकिन अट्ठकथा में दोनों ही अर्थ लिए गए हैं।
50. उदान ८।३
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________________ तब रूप-अरूप तथा सुख-दुःख से छूट जाता है। उदान का अभाव है। लेकिन जिस प्रकार रोग का अभाव, का यह वचन हमें गीता के उस कथन की याद दिला अभाव होते हए भी सद्भुत है, उसे आरोग्य कहते हैं देता है, जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं जहाँ न पवन बहता है, उसी प्रकार तृष्णा का अभाव भी सद्भूत है उसे सुख न चन्द्र सूर्य प्रकाशित होते हैं, जहाँ जाने पर पुन: इस कहा जाता है। दूसरे उसे अभाव इसलिए भी कहा संसार में आया नहीं जाता वही मेरा (आत्मा का) परम जाता है कि साधक में शाश्वतवाद की मिथ्या दृष्टि भी धाम (स्वस्थान) है। उत्पन्न नहीं हो / राग का प्रहाण होने से निर्वाण में मैं बोद्ध निर्वाण की यह विशद विवेचना में हम (अत्त) और मेरापन (अत्ता) नहीं होता इस दृष्टिकोण निष्कर्ष पर ले जाती है कि प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन का के आधार पर उसे अभाव कहा जाता है। निर्वाण राग निर्वाण अभावात्मक तथ्य नहीं था। इसके लिए निम्न का अहं का पूर्ण विगलन है। लेकिन अहं या ममत्व तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं : की समाप्ति को अभाव नहीं कहा जा सकता / निर्वाण की अभावात्मक कल्पना 'अनत' शब्द का गलत अर्थ (1) निर्वाण यदि अभाव मात्र होता तो वह ततीय समझने से उत्पन्न हई है। बौद्ध दर्शन में अनात्म आर्य सत्य कैसे होता? क्योंकि अभाव आर्यचित का (अनत्त) शब्द आत्म (तत्व) का अभाव नहीं बताता आलम्बन नहीं हो सकता / वरन् यह बताता है कि जगत में अपना या मेरा कोई नहीं है, अनात्म का उपदेश असक्ति के प्रहाण के लिए, (2) तृतीय आर्य सत्य का विषय द्रव्य सत नहीं तृष्णा के क्षय के लिए है, निर्वाण 'तत्व' का अभाव है तो उसके उपदेश का क्या मूल्य होगा ? नहीं वरन् अपनेपन या अहं का अभाव है। वह (3) यदि निर्वाण मात्र निरोध या अभाव है तो वैयक्तिकता का अभाव है, व्यक्तित्व का नहीं। उच्छेद दृष्टि सम्यक दृष्टि होगी लेकिन बुद्ध ने तो सदैव अनत्त (अनात्म) वाद की पूर्णता यह बताने में है कि ही उच्छेद दृष्टि को मिथ्या दृष्टि कहा है। जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मेरा या अपना कहा जा सके / सभी अनात्म है। इस शिक्षा का सच्चा (4) महावान की धर्म काय की धारणा और अर्थ यही है कि मेरा कुछ भी नहीं है। क्योंकि जहाँ ता तथा विज्ञानवाद के मेरापन (अत्त भाव) आता है वहाँ राग एवं तृष्णा का आलय विज्ञान की धारणा निर्वाण की अभावात्मक उदय होता है। स्व पर में अवस्थित होता है, आत्म व्याख्या के विपरीत पड़ते हैं। अतः निर्वाण का तात्विक दृष्टि (ममत्व) उत्पन्न होती है / लेकिन यही आत्म स्वरूप अभाव सिद्ध नहीं होता है। उसे अभाव या निरोध दृष्टि स्व का पर में अवस्थित होना अथवा राग एव कहने का तात्पर्य यही है कि उसमें वासना या तृष्णा तृष्णा की वृत्ति बन्धन है, जो तृष्णा है, वही राग है; 51. यस्थ आपो न पठवी तेजो वायो न गाधति / न तत्थ सुक्का जोवन्ति आदिच्चो न प्पकासति / / म तस्थ चन्दिमा भाति तमो तत्थ न विज्जति / उदान 1110 तुलना कीजिए-न तम्दासयते सूर्यों न शशांको न पावकः / यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम / / गीता 156 151
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________________ ग है वही अपनापन है। निर्वाण में तृष्णा का भाषा उसका यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं क्षय होने से राग नहीं होता, राग नहीं होने से अपना है क्योंकि भाव किसी पक्ष को बताता है और पक्ष के पन (अत्ता) भी नहीं होता / बौद्ध निर्वाण की अभावा- लिए प्रतिपक्ष की स्वीकृति अनिवार्य है जबकि निर्वाण त्मकता का सही अर्थ इस अपनेपन का अभाव है वह तो पक्षातिक्रांत है। निषेधमूलक कथन की यह विशेषता तत्व अभाव नहीं है। वस्तुतः तत्व लक्षण की दृष्टि से होती है कि उसके लिए किसी प्रतिपक्ष की स्वीकृति निर्वाण एक भावात्मक अवस्था है। मात्र वासनात्मक को आवश्यक नहीं बढ़ा सकता / अतः अनिर्वचनीय का पर्यायों के अभाव के कारण ही वह अभाव कहा जाता निर्वचन करने में निषेधात्मक भाषा का प्रयोग ही अधिक है। अतः प्रोफेसर कीथ और नलिनाक्षदत्त की यह समीचीन है। इस निषेधात्मक विबेचनाशली ने निर्वाण मान्यता कि बौद्ध निर्वाण अभाव नहीं है, बौद्ध विचारणा की अभावात्मक कल्पना को अधिक प्रबल बनाया है। की मूल विचारदृष्टि के निकट ही है। यद्यपि बौद्ध वस्तुतः निर्वाण अनिर्वचनीय है। निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है फिर भी भावात्मक ARE 152 |