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शरीर छोड़ दिया, संज्ञा निरुद्ध हो गई, सारी वेदनाओं को भी बिलकुल जला दिया। संस्कार शान्त होगए विज्ञान अस्त हो गया" ।
लेकिन दीप शिखा और अग्नि के बुझ जाने अथवा संज्ञा के निरुद्ध हो जाने का अर्थ अभाव नहीं माना जा सकता, आचार्य बुद्धघोष विशुद्धिमग्ग में कहते हैं निरोध का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है"। प्रोफेसर कीथ एवं प्रोफेसर नलिनाक्षदत्त अग्गि बच्छ गोत्तमुत्त के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि बुश जाने का अर्थ अभावात्मकता नहीं है, वरन अस्तित्व की रहस्यमय, अवर्णणीय अवस्था है। प्रोफेसर कीथ के अनुसार निर्माण अभाव नहीं वरन चेतना का अपने मूल ( वास्तविक शुद्ध ) स्वरूप में अवस्थित होना है। प्रोफेसर निलनाक्षदस के शब्दों में निर्वाण की अग्नि शिखा के बुझ जाने से की जाने वाली तुलना समुचित है, क्योंकि भारतीय चिन्तन में आग के बुझ जाने से तात्पर्य उसके अनस्तित्व से न होकर उसका स्वभाविक शुद्ध अदृश्य अव्यक्त अवस्था में चला जाना है, जिसमें की वह अपने हृदय प्रगटन के पूर्व रही हुई थी बौद्ध दार्शनिक संभद्र का भी यही निरूपण है कि अग्नि की उपमा से हमको यह कहने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण अभाव है" । मिलिन्द प्रश्न के अनुसार भी निर्वाण अस्ति धर्म (अस्थिधम्म) एकान्त सुख एवं अप्रतिभाग है
45. उदान चाह
46. विशुद्धिमग्ग, परिच्छेद ८ एवं १६
47. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. २६४ पर उदघृत
उसका लक्षण स्वरूपतः नहीं बताया जा सकता किन्तु गुणतः दृष्टान्त के रूप में कहा जासकता है कि जिस प्रकार जल प्यास को शान्त करता है, निर्वाण त्रिविध तृष्णा को शान्त करता है। निर्वाण को अकुत कहने से भी उसकी एकान्त अभावरमकता सिद्ध नहीं होती। आयें ( साधक) निर्वाण का उत्पाद नहीं करता फिर भी वह उसका साक्षात्कार ( साक्षीकरोति) एवं प्रतिलाभ ( प्राप्नोति) करता है। वस्तुतः निर्वाण को अभावात्मक रूप में इसीलिए कहा जाता है कि अनिर्वचनीय का निर्वचन करना भावात्मक भाषा की अपेक्षा अभावात्मक भाषा अधिक युक्तिपूर्ण होती है।
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निर्वाण को अनिर्वचनीयता निर्वाण की अनियंचनीयता के सम्बन्ध में निम्न बुद्ध वचन उपलब्ध है-"मिओ न तो मैं उसे अगति और न गति कहता हूँ. न स्थिति और न च्युति कहता हूँ, उसे उत्पत्ति भी नहीं कहता हूँ । वह न तो कहीं ठहरा है, न प्रवर्तित होता है और न उसका कोई आधार है यही दुःखों का अन्त है 148 भिक्षुओ ! अनन्त " का समझना कठिन है, निर्वाण का समझना आसान नहीं । ज्ञानी की तृष्णा नष्ट हो जाती है उसे ( रागादिक्लेश) कुछ नहीं है 10 जहाँ (निर्वाण जन, पृथ्वी, अग्नि और वायु नहीं ठहरती, वहाँ न तो शुक्र और न आदित्य प्रकाश करते है। यहाँ चन्द्रमा की प्रभा भी नहीं है, न वहाँ अंधकार ही होता है । जब क्षीणाश्रव भिक्षु अपने आपको जान लेता है।
48. उदान ८१
49. मूल पाली में यहाँ पाठान्तर है-तीन पाठ मिलते है १. अनतं २. अनतं ३ अनन्तं । हमने यहाँ "अनन्त " शब्द का अर्थ ग्रहण किया है। आदरणीय काश्यपजी ने अनत (अनात्म) पाठ को अधिक उपयुक्त माना है लेकिन अट्ठकथा में दोनों ही अर्थ लिए गए हैं।
50. उदान ८।३
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