Book Title: Jain Darshan me Moksh ka Swaroop Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 3
________________ • से चारित्र ( क्षायिकचारित्र) का प्रगटन होता है, लेकिन मोक्ष दशा में क्रिया रूप चारित्र नहीं होता, मात्र दृष्टि रूप चारित्र ही होता है, अतः उसे क्षायिक सम्यक्त्व के अन्तर्गत ही माना जा सकता है, वैसे आठ कर्मों की 31 प्रकृतियों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के 31 गुण माने गये हैं, उसमें यथास्यात चारित्र को स्वतंत्र गुण माना गया है। 5 जायुकर्म के क्षय हो जाने से मुक्तात्मा अशरीरी होता है अतः वह इन्द्रियग्राह्य नहीं होता । 7 गोत्र कर्म के नष्ट हो जाने से वह अगुरुलघुत्व से मुक्त हो जाता है अर्थात् सभी सिद्ध समान होते हैं उनमें छोटा बड़ा या ऊँच नीच का भाव नहीं होता। 8 अन्तरायकर्म का प्रहाण हो जाने से बाधा रहित होता है, अर्थात् अनन्त शक्ति सम्पन्न होता है" । अनन्त शक्ति का यह विचार मूलतः निषेधात्मक ही है यह मात्र बाधाओं का अभाव है । लेकिन इस प्रकार अष्ट कर्मों के प्रहाण के आधार पर मुक्तात्मा के आठ गुणों की व्याख्या का मात्र एक व्यवहारिक संक ल्पना ही है। उसके वास्तविक स्वरूप का निर्वाचन नहीं है। व्यवहारिक दृष्टि से उसे समझने का प्रयास मात्र है इसका मात्र व्यवहारिक मूल्य है। वस्तुतः तो वह अनिर्वचनीय है। आचार्य नेमीचन्द्र गोम्मटसार में स्पष्ट रूप से कहते हैं, सिद्धों के इन गुणों का विधान मात्र सिद्धारमा के स्वरूप के सम्बन्ध में जो एकान्तिक मान्यताएं हैं उनके निषेध के लिए है" । मुक्तात्मा में केवल ज्ञान और केवल दर्शन के रूप में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके मुक्तात्मा को जड़ मानने वाली वैभाषिक बौद्धों और न्याय-वैशेषिक दर्शन की धारणा का प्रतिषेध किया गया है। मुक्तात्मा के अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को अभावात्मक रूप में मानने वाले जड़वादी तथा सौत्रान्तिक बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष दशा का समग्र भावात्मक चित्रण अपना निषेधात्मक मूल्य ही रखता है । यह विधान भी निषेध के लिए है। अभावात्मक दृष्टि से मोक्ष तत्व पर विचार- जैनागमों में मोक्षावस्था चित्रण निषेधात्मक रूप से भी हुआ है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग में मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया गया है। मोक्षावस्था में समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा में समस्त कर्म जन्य उपाधियों का भी अभाव होता है अतः मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्वस्व है न वृताकार है न त्रिकोण है न चतुष्कोण है, न परिमण्डल संस्थान वाला है। वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेतवर्ण वाला भी नहीं है, वह सुगन्ध और दुर्गन्धवाला भी नहीं है। न वह तीक्ष्ण कटुक, खड्डा, मीठा एवं अम्ल रस वाला है । उसमें गुरू, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध कक्ष, शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श गुणों का भी अभाव है । वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुसंक है । इस प्रकार मुक्तात्मा में रूप, रस, वर्ण, गन्ध और स्पर्श भी नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में 8. कुछ विद्वानों ने अगुरुलघुत्व का अर्थ न हल्का न भारी ऐसा भी किया है । 9. प्रवचनसारोद्वार द्वार २७६, गाथा १५१३-१५९४ 10. सदासिव ससो मक्कडि बुद्धौ नैवाइयो य बेसेसी । ईसर मंडल दंसण विदूसणट्ठे कयं एदं ॥ गोम्मटसार ( नेमिचन्द्र ) 11. से न दीहे, न हस्से, न वट्टे, न तंसे, न चउरंसे, न परिमंडले, न किण्हे, न नीले, न लोहिए, न हालिदे, न सुकिल्ले, न सुरभिगन्धे, न दुरभिगन्धे, न तित्ते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न मेहुरे, न कक्खड़े, न मउए, न गुरूए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निद्ध े न लुक्खे, न काऊ, न रूहे, न संगे, न इत्थी, न पुरिसे, न अग्रहा, से न सद्दे न रूवे न गंधे, न रसे, न फासे आचारसंगसूत्र १२५२६ " J Jain Education International १४३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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