Book Title: Jain Darshan aur Vigyan Author(s): Indra Chandra Shastri Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 3
________________ इन्द्रचन्द्र शास्त्री : जैनदर्शन : ३१६ दो द्वात्रिंशिकायें रची. इनकी 'अन्ययोग-व्यवच्छेदिका' नामक द्वात्रिंशिका पर मल्लिषेण की स्याद्वादमंजरी नामक टीका है. १२ वीं शताब्दी में ही शांत्याचार्य ने न्यायावतार पर स्वोपज्ञ टीका के साथ न्यायवार्तिक की रचना की. गुणरत्न (१५ वीं शताब्दी) की षड्दर्शनसमुच्चय पर टीका दार्शनिक साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है. भट्टारक धर्मभूषण (१५ वीं शताब्दी) की न्यायदीपिका जैनन्याय का प्रारम्भिक ग्रंथ है. सत्रहवीं शताब्दी में यशोविजय नामक प्रतिभाशाली आचार्य हुए. उन्होंने जनदर्शन में नव्य न्याय का प्रवेश किया. उनके मुख्य ग्रंथ है-अनेकांतव्यवस्था, जैनतर्क भाषा, ज्ञानबिन्दु, नयप्रदीप, नयरहस्य और नयामृततरंगिणी, सटीक नयोपदेश. न्यायखंडखाद्य तथा न्यायालोक में नव्य न्याय शैली में नैयायिकादि दर्शनों का खंडन है. अष्टसहस्री पर विवरण तथा हरिभद्रकृत शास्त्रवार्तासमुच्चय पर स्याद्वादकल्पलता नामक टीकाएं हैं. भाषारहस्य, प्रमाण रहस्य, वादरहस्य नामक ग्रन्थों में नव्यन्याय के ढंग पर जैन तत्वों का प्रतिपादन है. उन्होंने योग तथा अन्य विषयों पर भी ग्रंथ रचे. इसी युग में विमलदास गरणी ने 'सप्तभंगीतरंगिणी' नामक ग्रंथ नव्यन्याय शैली पर रचा. ज्ञानमीमांसा वेदान्त में आत्मा को सत् चित् और आनंद स्वरूप माना गया है. इसी प्रकार जैनदर्शन में उसे अनंत चतुष्टयरूप माना गया है. वे हैं अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य. प्रथम दो—ज्ञान एवं दर्शन चेतना ही के दो रूप हैं. प्रत्येक आत्मा अपने आप में सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी है. उसके ये गुण बाह्य आवरण के कारण छिपे हुए हैं. ज्ञान का स्वरूप :---जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान प्रकाश के समान है अर्थात् वह अपने आप में विद्यमान वस्तु को प्रकाशित करता है. नई रचना या अपनी ओर से उसमें कोई सम्मिश्रण नहीं करता. यहाँ एक प्रश्न होता है किसी व्यक्ति को देखकर हमें यह प्रत्यक्ष होता है कि वह हमारा शत्रु है. क्या शत्रुत्व उस व्यक्ति में है ? यदि ऐसा है तो वह दूसरों को भी शत्रु के रूप में क्यों नहीं दिखाई देता ? उत्तर में जैनदर्शन का कथन है कि व्यक्ति या वस्तु में प्रतीत होने वाले सभी धर्म सापेक्ष होते हैं. एक ही वस्तु एक व्यक्ति को छोटी दिखाई देती है और दूसरे को बड़ी. दोनों की अपनी-अपनी अपेक्षाएं होती हैं और उस दृष्टि से दोनों सच्चे हैं. इसी प्रकार वही व्यक्ति एक को शत्रु दिखाई देता है और दूसरे को मित्र. दोनों का यह ज्ञान अपनी-अपनी अपेक्षा को लिए हुए है. यदि मित्रता का दर्शन करने वाला व्यक्ति शत्रुतादर्शन करने वाले की अपेक्षा को दृष्टि में रख कर विचार करे तो उसे भी शत्रुता का ही दर्शन होगा. एक ही स्त्री एक व्यक्ति की दृष्टि में माता है, दूसरे की दृष्टि में बहिन, तीसरे की दृष्टि में पत्नी, चौथे की दृष्टि में पुत्री. इनमें से कोई भी दृष्टि मिथ्या नहीं है. मिथ्यापन तभी आयगा जब अपेक्षा बदल जाये. सभी ज्ञान आंशिक सत्य को लिए रहते हैं और यदि उन्हें आंशिक सत्य के रूप में स्वीकार किया जाय तो सभी सच्चे हैं. वे ही जब पूर्ण सत्य मान लिये जाते हैं और दूसरी दृष्टि या अपेक्षा का निराकरण करने लगते हैं तो मिथ्या हो जाते हैं. जैनदर्शन के अनुसार पूर्ण सत्य का साक्षात्कार सर्वज्ञ को ही हो सकता है और उसी का ज्ञान पूर्ण सत्य कहा जा सकता है. ज्ञान के भेद ज्ञान के ५ भेद हैं. (१) मति–इंद्रिय और मन से होने वाला ज्ञान. (२) श्रुत-शास्त्रों से होने वाला ज्ञान. (३) अवधि-दूरवर्ती तथा व्यवधान वाले पदार्थों का ज्ञान, जो विशिष्ट योगियों को होता है. इसके द्वारा योगी केवल रूप वाले पदार्थों को ही देख सकता है. (४) मनःपर्यय-दूसरे के मनोभावों का प्रयत्न. (५) केवलज्ञान--सर्वज्ञों का ज्ञान, जिसके द्वारा वे विश्व के समस्त पदार्थों को एक साथ जानते हैं. प्राचीन परंपरा में इनमें से प्रथम दो को परोक्ष माना गया और अंतिम तीन को प्रत्यक्ष. कालांतर में अन्यदर्शनों के समान इन्द्रिय से होने वाले ज्ञान को भी प्रत्यक्ष में सम्मिलित कर लिया गया. अकलंक ने इस बात को लक्ष्य में रखकर प्रत्यक्ष के दो भेद कर दिये. सांव्यवहारिक और पारमाथिक. इन्द्रिय तथा मन से होने वाले प्रत्यक्ष को प्रथम कोटि में ले लिया और अवधि आदि तीन ज्ञानों को द्वितीय कोटि में. FG Jain Edulation Intematonal jainelibrary.orgPage Navigation
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