Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): Indra Chandra Shastri
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 8
________________ 0-0--0-0 ३६४ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय रहते हैं. पुद्गल के दो रूप हैं परमाणु और स्कंध अर्थात् अवयवी. दृश्यमान समस्त जगत् पुद्गल परमाणुओं का संघटन या रचना विशेष है. न्यायदर्शन के अनुसार परमाणु में रहने वाले रूप, रस आदि गुण नित्य हैं, उनमें परिवर्तन नहीं होता. स्थूल वस्तु में जब परिवर्तन होता है तो परमाणु ही बदल जाते हैं, उनके गुण नहीं बदलते. घड़ा पकने पर जब मिट्टी अपना रंग छोड़कर नया रंग लेती है तो मिट्टी के रंग वाले परमाणु बिखर जाते हैं और उसका स्थान लाल रंग के 'परमाणु ले लेते हैं. किन्तु जैनदर्शन ऐसा नहीं मानता. वहां परमाणु वही रहते हैं किन्तु उनके रूप, रस आदि गुण बदल जाते हैं. आठ वर्गनायें जैनदर्शन में पुद्गल का विभाजन आठ वर्गणाओं के रूप में किया गया है. वर्गणा का अर्थ है विभिन्न प्रकार के वर्ग या श्रेणियां. यह विभाजन उनके द्वारा होने वाले स्थूल पदार्थों के आधार पर किया गया है. (१) श्रदारिक वर्गणा - स्थूल शरीर के रूप में परिणत होने वाले परमाणु. जैनदर्शन के अनुसार पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु तथा वनस्पतियों में भी जीव हैं. इनके रूप में प्रतीत होने वाले स्थूल पदार्थ उन जीवों का शरीर है. यह शरीर कहीं सजीव दिखाई देता है और कहीं निर्जीव. इसे औदारिक शरीर माना जाता है. इसी प्रकार पशु-पक्षी तथा मनुष्यों का शरीर भी औदारिक है. (२) वैक्रियक वर्गणा – देवता तथा नारकी जीवों के शरीर के रूप में परिणत होने वाले परमाणु- योगी अपनी योगशक्ति के द्वारा जिस शरीर की रचना करते हैं वह भी इन परमाणुओं से बनता है. (३) आहारक वर्गणा विचारों का संक्रमण करने वाले शरीर के रूप में परिणत होने वाले परमाणु ( ४ ) भाषा वर्गणा - वाणी के रूप में परिणत होने वाले परमाणु. (५) मनोवर्गणा - मनोभावों के रूप में परिणत होने वाले परमाणु. (६) श्वासोच्छ्रवास वर्गणा - प्राणवायु के रूप में परिणत होने वाले परमाणु. (७) तेजस वर्गणा - तेजस नामक सूक्ष्म शरीर के रूप में परिणत होने वाले पुद्गल परमाणु. (८) कार्माण वर्गणा - कार्माण या लिंग शरीर के रूप में परिणत होने वाले परमाणु कार्माण शरीर का अर्थ है आत्मा के साथ लगे हुए कर्मपुद्गल. ये ही जीव को विविध योनियों में ले जाकर स्थूल शरीर के साथ संबन्ध जोड़ते हैं और सुख दुःख का भोग कराते हैं. सांख्यदर्शन में जो स्थान लिंग शरीर का है वही जैनदर्शन में कार्माण शरीर का है और वहाँ जो सूक्ष्म शरीर का है यहाँ वही तेजस शरीर का मरने पर जीव स्थूल शरीर को छोड़ देता है, तेजस और कार्माण उसके साथ जाते हैं. 4 आठ वर्गणाओं में से वैक्रियक और आहारक का देवता, नारकी या योगियों के साथ संबन्ध है. शेष ६ हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं. (३-४) धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय - धर्म द्रव्य जीव तथा पुद्गल की गति में सहायक है और अधर्म स्थिति में. वर्तमान विज्ञान विद्युत् शक्ति के दो रूप मानता है. पन (Positive) और ऋण ( Negative) धर्म और अपने वही कार्य करते हैं. ( ५-६ ) आकाशास्तिकाय और काललाता है. कुछ आचार्यों का मत है कि की आवश्यकता नहीं है. वर्तमान विज्ञान की दृष्टि से हम इन द्रव्यों को नीचे लिखे अनुसार विभक्त कर सकते हैं : Jain Education International -आकाश जीव और पुद्गल को स्थान प्रदान करता है और काल उनमें परिवर्तन परिवर्तन जीव और पुद्गल का स्वभाव है, अतः उसके लिए अलग द्रव्य मानने For Private & Personal Use Only www.jaihelibrary.org

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