Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): Indra Chandra Shastri
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 2
________________ ३५८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय दर्शनयुग का प्रारम्भ ५वीं शताब्दी में माना जाता है. इसी समय सिद्धसेन दिवाकर और समंतभद्र, मल्लीवादी और पात्रकेसरी नामक आचार्य हुए. सिद्धसेन श्वेताम्बर थे और समंतभद्र दिगम्बर. दोनों ने जनदर्शन के प्राण अनेकान्तवाद की स्थापना की. भगवान् महावीर ने नयवाद का प्रतिपादन किया था. सिद्धसेन ने उसे आधार बनाकर सन्मतितर्क की रचना की जो अनेकान्तवाद पर प्रथम ग्रंथ माना जाता है. उनकी दूसरी रचना न्यायावतार जैनतर्कशास्त्र का प्रथम ग्रंथ है. सिद्धसेन ने ३२ द्वात्रिशिकायें भी रची. उनमें से २२ उपलब्ध हैं. इनमें स्तोत्र के रूप में दार्शनिक चर्चा की गई है. समंतभद्र की दर्शनशास्त्र से सम्बन्ध रखने वाली ३ रचनाएँ हैं(१) आप्तमीमांसा में उन्होंने यह चर्चा की है कि आप्त अर्थात् विश्वास एवं पूजा के योग्य महापुरुष वही हो सकता है जो राग द्वेषादि से परे हो तथा जिसकी वाणी में पूर्वापर बिरोध न हो. इस कसौटी पर बुद्ध, कपिल, कणाद आदि नहीं उतरते. अतः उन्हें आप्त नहीं कहा जा सकता. साथ ही नित्यानित्य, भेदाभेद, सामान्य-विशेष, गुण और गुणी का परस्पर सम्बन्ध आदि विषयों को लेकर प्रचलित एकान्त दृष्टियों का खण्डन और अनेकान्त का प्रतिपादन किया है. इस पर अकलंक की अष्टशती और विद्यानन्द की अष्टसहस्त्री नामक टीकाएँ हैं. उनका दार्शनिक साहित्य में मूर्धन्य स्थान है. समंतभद्र के अन्य ग्रन्थ. (२) युक्त्यनुशासन और (३) स्वयंभूस्तोत्र हैं. सभी में उनकी प्रौढ़ ताकिकता का परिचय मिलता है. मल्लिवादी ने नयचक्रम् तथा वादन्याय की रचना की. उनका अथन है कि विभिन्न मत चक्र में आरों के समान हैं. सभी एक-दूसरे का खण्डन करते रहते हैं. किन्तु निष्कर्ष पर कोई नहीं पहुँचता. सम्पूर्ण सत्य चक्र के समान है और समस्त मत उसके घटक हैं. अपने आप में अर्थात् निरपेक्ष होने पर मिथ्या हैं और सापेक्ष होने पर सत्य के अंग बन जाते हैं. क्षमाश्रमण (७वीं शताब्दी) ने नयचक्र पर बृहद् टीका लिखी है. पात्रकेसरी या पात्र स्वामी ने 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामक ग्रंथ रचा. इसमें बौद्धों द्वारा प्रतिपादित हेतु के स्वरूप का खण्डन है. अकलंक (८०० ईसवी) ने दिग्नाग, धर्मकीति, आदि बौद्ध आचार्यों का खंडन करते हुए जैनदृष्टि से प्रमाणव्यवस्था का प्रतिपादन किया. उनके मुख्य ग्रंथ हैं-अशती, प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय तथा सिद्धिविनिश्चय. इसी समय श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र सूरि हुए. उन्होंने बहुसंख्यक ग्रन्थों की रचना की. दर्शनशास्त्र से सम्बन्ध रखने वाले ग्रन्थ हैं-अनेकान्तजयपताका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय तथा लोकतत्त्व निर्णय. उनके षोडशक और अपृकों में भी दार्शनिक चर्चाएँ हैं. योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु तथा योगविशिका योगविषयक ग्रंथ हैं. धर्मसंग्रहणी प्राकृत में है. हरिभद्र ने दिङ्नाग के न्यायप्रवेश पर टीका लिखकर अपनी उदारदृष्टि का परिचय दिया है. अकलंक के भाष्यकार विद्यानन्द हुए. अतृसहस्री के अतिरिक्त उनके मुख्य ग्रंथ हैं-प्रमाणपरीक्षा, आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, तथा श्लोकवार्तिक आदि. इस समय अनंतकीर्तिने लघुसर्वज्ञसिद्धि, बृहत्सर्वज्ञसिद्धि तथा जीवसिद्धि और अनन्तवीर्य ने उस पर सिद्धिविनिश्चय टीका रची. माणिक्यनंदी (१०वीं शताब्दी) का परीक्षामुख जैन तर्कशास्त्र का प्रथम सूत्र ग्रंथ है. इसी समय सिद्धर्षि ने सिद्धसेन कृत न्यायावतार पर टीका रची. अभयदेव (१०५४) की सन्मतितर्क पर 'वादमहार्णव' नामक विशाल टीका भी इसी समय की है. प्रभाचन्द्र (१०३७ से ११२२) ने परीक्षामुख पर प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा लघीयस्त्रय पर न्यायकुमुन्दचन्द्र नामक टीकायें रची. वादिराज ने न्यायावतार पर न्यायविनिश्चय विवरण और जिनेश्वर (११ वीं शताब्दी) ने न्यायावतार पर प्रमाणलक्ष्य नामक बार्तिक तथा उन पर टीका रची. अनन्तवीर्य (१२ वीं शताब्दी) की परीक्षामुख पर प्रमेयरत्नमाला नामक संक्षिप्त टीका है. वादी देवसूरि (११४३-१२२६) ने प्रमाणनयतत्त्वालोक नामक सूत्र ग्रंथ और उस पर स्याद्वादरत्नाकर नामक विशाल टीका लिखी. कहा जाता है कि इसकी श्लोक संख्या ८४००० थी, किन्तु संपूर्ण उपलब्ध नहीं है. वादी देव श्वेताम्बर थे. उनकी रचनाएँ परीक्षामुख और प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रतिक्रिया हैं. उन्होंने स्त्रीमुक्ति और केवली के आहार को लेकर विस्तृत चर्चा की है. कहा जाता है इन विषयोंको लेकर कुमुन्दचन्द्र और वादी देवसूरि में शास्त्रार्थ हुआ था. प्रमाणनयतत्त्वालोक पर वादी देव के शिष्य रत्नप्रभ ने रत्नाकरावतारिका टीका लिखी. इसी समय हेमचन्द्राचार्य (११४५ से १२२६) हुए. उन्होंने स्वोपज्ञ टीका के साथ प्रमाणमीमांसा नामक सूत्र ग्रंथ तथा Jain Educatta &Parsenal Use Only Dandrary.org

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