Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 13
________________ मुनि श्रीपुण्यविजय : जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७२७ गुरूणं' इस वाक्य से बड़े आदर के साथ किया गया है. सम्भव है, चूर्णिकार का इन स्थविरों के साथ अनुयोगविषयक कोई खास घनिष्ठ सम्बन्ध होगा. (२६) गंधहस्ती-आचार्य शीलांक के आचारांगसूत्र की दृत्ति के प्रारम्भ में "शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम्" इस उल्लेख से गन्धहस्ति आचार्य को आचारांगसूत्र के प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा का विवरणकार बताया है. हिमवंतस्थविरावलि में आचार्य गन्धहस्ति के विषय में इस प्रकार का निर्देश है"तेषामार्यसिंहानां स्थविराणां मधुमित्रा-ऽऽर्यस्कन्दिलाचार्यनामानौ द्वौ शिष्यावभूताम्. आर्यमधुमित्राणां शिष्या आर्यगन्धहस्तिनोऽतीवविद्वांसः प्रभावकाश्चाभवन्. तैश्च पूर्वस्थविरोत्तंसोमास्वातिवाचकविरचिततत्त्वार्थोपरि अशीतिसहस्रश्लोकप्रमाण महाभाष्यं रचितम्. एकादशाङ्गोपरि चार्यस्कन्दिलस्थविराणामुपरोधतस्तैविवरणानि रचितानि. यदुक्तं तद्रचिताऽऽ वाराङ्गविवरणान्ते थेरस्स महुमित्तस्स सेहेहि तिपुब्वनाणजुत्तेहि । मुणिगणविवंदिएहिं ववगयरागाइदोसेहिं ।। बंभद्दीवियसाहामउडेहि गन्धहत्थिविबुहेहि। विवरणमेयं रइयं दोसयवासेसु विक्कमओ ॥" हिमवंतस्थविरावलि के इस अंश में आचार्य गन्धहस्ति को तत्त्वार्थगन्धहस्तिमहाभाष्य के प्रणेता एवं ग्यारह जैन अंग आगमों के विवरणकार बतलाया है जबकि आचार्य शीलांक ने इन्हें केवल आचाराङ्ग के प्रथम अध्ययन के रचयिता ही कहा है. दूसरी बात यह है कि-इनकी ग्यारह अंग की वृत्तियों के उद्धरण या नामोल्लेख भाष्य-चूणि-वृत्तियों में कहीं भी दिखाई नहीं देते. ऐसी स्थिति में पट्टावलि के इस उल्लेख को कहां तक माना जाय, यह एक प्रश्न है. यहाँ पर गन्धहस्ती, यह विशेषनाम है, विशेषण नहीं. शीलांकाचार्यनिर्दिष्ट गन्धहस्ती हिमवंतस्थविशवलिनिर्दिष्ट गन्धहस्ती ही हैं या अन्य, इसका निर्णय करना कठिन है. स्थविरावली में जो आचारांगविवरण की अंतिम प्रशस्ति का उद्धरण दिया गया है वह कहाँ तक ठीक है, यह कहना भी जरा कठिन है. इस विशेष नाम के साथ रहे हुए गौरव को देखकर ही बाद में इस नाम का उपयोग विशेषण के रूप में होने लगा. तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति के प्रणेता सिद्धसेनाचार्य 'गन्धहस्ती' कहे जाते थे. ये हिमवंतस्थविरावलि द्वारा निर्दिष्ट्र गन्धहस्ती से अन्य ही हैं. क्योंकि इनका समय विक्रम आठवीं के बाद का है, जबकि स्थविरावलिनिर्दिष्ट गन्थहस्ती का समय विक्रम २०० है. श्रीयशोविजयजी उपाध्याय ने अपनी गुरुतत्त्वविनिश्चय की स्वोपज्ञवृत्ति में सन्मतितर्क के प्रणेता सिद्धसेनाचार्य को भी 'गन्धहस्ती' लिखा है. (२७.२८) मित्तवायग-खमासमण व साधुरक्षितगणि क्षमाश्रमण-इन दोनों स्थविरों की मान्यता एवं नाम का उल्लेख व्यवहारभाष्य गा० ४६२ की चूणि में चूर्णिकार ने किया है. (२६) धम्मगणि खमासमण-इन क्षमाश्रमण के मंतव्य का उल्लेख कल्पविशेषचूणि में "अहवा धम्मगणिखमासमणा देसेणं सब्वेसु वि पदेसु इमा सोही-थेराईसुं अह्वा० गाहाद्वयम्" इस प्रकार है. (३०) अगस्त्यसिंह (भाष्यकारों के पूर्व-ये स्थविर आर्य वज्र की शाखा में हुए हैं. इन्होंने दशवकालिकसूत्र पर चूर्णि की रचना की है. यह चूणि दशवकालिकसूत्र के विविध पाठ भेद एवं भाषा की दृष्टि से बहुत महत्त्व की है. इस चूणि में भाष्यकार की गाथाओं का उल्लेख न होने से इसकी रचना भाष्यकारों के पूर्व की प्रतीत होती है. इसमें कई उल्लेख ऐसे भी हैं जो चालू साम्प्रदायिक प्रणाली से भिन्न प्रकार के हैं. आचार्य श्री हरिभद्र ने अपनी वृत्ति में कहीं भी इस चूणि का उल्लेख नहीं किया है, इसका कारण यही प्रतीत होता है. विद्वानों की भी ज्ञातियां होती हैं. इसमें कल्किविषयक जो मान्यता चलती है और जिसका विस्तृत वर्णन तित्थोगालियपइण्णय में पाया भी जाता है, इस विषय में "अणागतमट्ठ ण णिद्धारेज्ज-जधा कक्की अमुको वा एवं गुणो राया भविस्सइ "ऐसा लिखकर कल्किविषयक मान्यता को आदर नहीं दिया है. इस चूणि में "भणितं च वररुचिणा-'अंबं फलाणं मम दालिम पियं' [पृ० १७३] इस प्रकार वररुचि के कोई प्राकृत ग्रंथ का उद्धरण मिल सकता है. वररुचि का यह प्राकृत उद्धरण प्राकृतव्याकरणप्रणेता वररुचि XTA ह Jain Education sinelibrary.org

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