Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 26
________________ ७४० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय हाल कवि की गाथासप्तशती, वज्जालग्ग आदि को सभी जानते हैं. इसी प्रकार लक्ष्मण कवि का गाथाकोश भी उपलब्ध है. समयसुन्दर का गाथाकोश भी मुद्रित हो चुका है. बृहट्टिप्पनिकाकार ने "सुधाकलशाख्यः सुभाषितकोशः पं० रामचन्द्र कृतः" इस प्रकार श्रीहेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र के सुभाषितकोश का नामोल्लेख किया है जो आज अलभ्य है. ऊपर जिन कथा-चरितादि ग्रंथों के नाम दिये हैं उन सबमें सुभाषितों की भरमार है. यदि इन सबका विभागशः संग्रह और संकलन किया जाय तो प्राकृत भाषा का अलंकार स्वरूप एक बड़ा भारी सुभाषित भण्डार तैयार हो सकता है. अलंकारशास्त्र जैसलमेर के श्री जिनभद्रीय ताडपत्र ज्ञान भडार में प्राकृत भाषा में रचित अलंकारदर्पण नामक एक अलंकार ग्रंथ है जिसके प्रारंभ में ग्रंथकार ने :-- संदरपयविण्णासं विमलालंकाररेहिअसरीरं । सुइदेवियं च कव्वं च पणविशं पवरवण्णडु ॥३॥ इस आर्या में 'श्रुतदेवता' को प्रणाम किया है. इससे प्रतीत होता है कि यह किसी जैनाचार्य की कृति है. इसका प्रमाण १३४ आर्या हैं तथा यह हस्तप्रति विक्रम की तेरहवीं शताब्दी पूर्वार्ध में लिखी प्रतीत होती है. नाटक व नाट्य शास्त्र राजा आदि उच्च वर्ग के व्यक्तियों को छोड़ कर नाटकों में शेष सभी पात्र प्राकृत भाषा का ही प्रयोग करते हैं. यदि हिसाब लगाया जाय तो पता लगेगा कि- सब मिलाकर नाटकों में संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत अधिक नहीं तो कम भी प्रयुक्त नहीं हुई है. अतएव प्राकृत भाषा के साहित्य की चर्चा में नाटकों को भुलाया नहीं जा सकता. स्वतंत्ररूप से लिखे गये नाटकों से तो आप परिचित हैं ही, किंतु कथाग्रंथों के अन्तर्गत जो नाटक आये हैं उन्हीं की विशेष चर्चा यहाँ अभीष्ट है. प्रसंगवशात् यह भी कह दूं कि-आवश्यकणि में प्राचीन जैन नाटकों के होने का उल्लेख है. शीलांक के चउप्पन्नमहापुरिसचरियं में (वि० १० वीं शती) विबुधानंद नामक एकांकी नाटक है. देवेन्द्रसूरि ने चन्द्रप्रभचरित में वज्रायुध नाटक लिखा है. आचार्य भद्रेश्वर ने कहावली में व देवेन्द्रसूरि ने कहारयणकोस में नाटकाभास नाटक दिये हैं. ये सब कथाचरितान्तर्गत नाटक हैं. स्वतंत्र नाटकों की रचना भी जैनाचार्यों ने काफी मात्रा में की है. आचार्य देवचंद्र के चंद्रलेखाविजयप्रकरण, विलासवती नाटिका और मानमुद्राभंजन ये तीन नाटक हैं. मानमुद्राभंजन अभी अप्राप्य है. यशश्चन्द्र का मुद्रित कुमुदचंद्र और राजीमती नाटिका, यशःपालका मोहराजपराजय, जयसिंह मूरि का, हम्मीरमदमर्दन, रामभद्र का प्रबुद्धरौहिणेय, मेघप्रभ का धर्माभ्युदय व बालचंद्र का करुणावज्रायुध नाटक प्राप्त हैं. रामचंद्रसूरि के कौमुदीमित्राणंद नलविलास, निर्भयभीमव्यायोग, मल्लिकामकरंद, रघुविलास व सत्य हरिश्चन्द्र नाटक उपलब्ध हैं; राधवाभ्युदय, यादवाभ्युदय, यदुविलास आदि अनुपलब्ध हैं. इन्होंने नाटकों के अलावा नाट्यविषयक स्वोपज्ञटीकायुक्त नाट्यदर्पण की भी रचना की है. इसके प्रणेता रामचंद्र व गुणचंद्र दो हैं. इन दोनों ने मिलकर स्वोपज्ञटीकायुक्त द्रव्यालंकार की भी रचना की है. नाट्यदर्पण के अतिरिक्त रामचंद्र का नाट्यशास्त्रविषयक 'प्रबंधशत' नामक अन्य ग्रंथ भी था जो अनुपलब्ध है. यद्यपि बहुत से विद्वान् 'प्रबंधशत' का अर्थ 'चिकोर्षित सौ ग्रंथ' ऐसा करते हैं किन्तु प्राचीन ग्रंथसूची में “रामचंद्रकृतं प्रबन्धशतं द्वादशरूपकनाटकादिस्वरूपज्ञापकम्" ऐसा उल्लेख मिलता है. इससे ज्ञात होता है कि 'प्रबंधशत' नामकी इनकी कोई नाट्यविषयक रचना थी. इनके अतिरिक्त ज्योतिष, रत्नपरीक्षा शास्त्र, अंगलक्षण, आयुर्वेद आदि विषयक प्राकृत ग्रंथ मिलते हैं. आयुर्वेद विषयक एक प्राकृत ग्रंथ मेरे संग्रह में है जिसका नाम 'योगनिधान' है. पं० अमृतलाल के संग्रह में प्राकृतभाषा में रचित कामशास्त्र का 'मयणमउड' नामक ग्रंथ भी है. Jain Education in www.jainelibrary.org

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