Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 25
________________ मुनि श्रीपुण्यविजय : जैन श्रागमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७३६ माध्यम में प्राकृतादि भाषाओं के साथ अपभ्रंश भाषाओं को शामिल किया है फिर भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अपभ्रंश भाषा का प्रयोग विशेष नहीं हुआ है. सामान्यतया श्वेताम्बर आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में सुभाषित और प्रसंगागत कथाओं के लिए इस भाषा का उपयोग किया है. मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति, भवभावनाप्रकरणवृत्ति, आख्यानकमणिकोशवृत्ति, उपदेशमाला दोघट्टिवृत्ति, कुमारपालप्रतिबोध आदि में अपभ्रश कथाएं आती हैं, जो दो सौ-चार सौ श्लोक से अधिक परिमाण वाली नहीं होती है. दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में इससे विपरीत बात है. दिगम्बर आचार्यों ने धर्मकथाओं के लिए प्राकृत-मागध के स्थान में अपभ्रश भाषा का ही विशेषरूप से उपयोग किया है. दिगम्बरसम्प्रदाय में शास्त्रीय ग्रन्थों के लिए प्राचीन आचार्यों ने शौरसेनीभाषा का बहुत उपयोग किया है. उन्होंने अतिमहाकाय माने जाएँ ऐसे धवल, जयधवल, महाधवल शास्त्रों की रचना की है. समयसार, पंचास्तिकाय आदि सैकड़ों शास्त्र भी शौरसेनी में लिखे गये हैं. जैनस्तुति स्तोत्रादि जैनाचार्यों ने स्तुति-स्तोत्रादि साहित्य काफी लिखा है. फिर भी प्रमाण की दृष्टि से देखा जाय तो प्राकृत भाषा में वह बहुत ही कम है. आचार्य पादलिप्त, आचार्य अभयदेव, देवभद्रसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनवल्लभ आदि का समग्र स्तुतिस्तोत्रादि साहित्य एकत्र किया जाय तो मेरा अनुमान है कि वह दो-चार हजार श्लोकों से अधिक नहीं होगा. इन स्तोत्रों . में यमक, समसंस्कृत प्राकृत, षड्भाषामय स्तोत्रों का समावेश कर लेना चाहिए. व्याकरण व कोश प्राकृतादि भाषाओं के व्याकरणों एवं देशी आदि कोशों का विस्तृत परिचय प्राकृत भाषा के पारंगत डॉ. पिशल ने अपने 'कम्पेरेटिव ग्रामर ऑफ दी प्राकृत लेंग्वेजेज' ग्रन्थ में पर्याप्त मात्रा में दिया है अत: मैं विशेष कुछ नहीं कहता हूं. इस युग में महत्त्वपूर्ण चार प्राकृत शब्दकोश जैन विद्वानों ने तैयार किये हैं. १. त्रिस्तुतिक आचार्य श्री राजेन्द्रसूरि का अभिधानराजेन्द्र २. पंडित हरगोविंददास का पाइयसद्दमहण्णवो ३. स्थानकवासी मुनिश्री रत्नचन्द्रजी का पांच भागों में प्रकाशित अर्धमागधी कोश ४. श्री सागरानन्दसूरि का अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोश काव्य और सुभाषित प्राकृत भाषा में रचित प्रवरसेन के सेतुबंध महाकाव्य, वाक्पतिराज के गउडवहो, हेमचन्द्र के प्राकृत वृद्धाश्रय महाकाव्य आदि से आप परिचित हैं ही. सेतुबंध महाकाव्य का उल्लेख निशीथ सूत्र की चूणि में भी पाया जाता है. महाकवि धनपाल ने (वि० ११वीं शती) अपनी तिलकमंजरी आख्यायिका में सेतुबंध महाकाव्य व वाक्पतिराज के गउडवहो की स्तुति जितं प्रवरसेनेन रामेणेव महात्मना, तरत्युपरि यत् कीर्तिसेतुर्वाङ्मयवारिधेः । दृष्ट्वा वाक्पतिराजस्य शक्ति गौडवधोद्धराम्, बुद्धि: साध्वसरुद्धव वाचं न प्रतिपद्यते ॥३१॥ इन शब्दों में की है. इसी कवि ने अपनी इस आख्यायिका में प्राकृतेषु प्रबन्धेषु रसनिःष्यन्दिभिः पदैः । राजन्ते जीवदेवस्य वाच: पल्लविता इव ॥२४॥ इस प्रकार आचार्य जीवदेव की प्राकृत कृति का उल्लेख किया है जो आज उपलब्ध नहीं है. आचार्य दाक्षिण्यांक श्रीउद्योतनकी कुवलयमालाकहा प्राकृत महाकाव्य की सर्वोत्कृष्ट रसपूर्ण रचना है. METTE m 2).BE. ONS Q. DAS4 JANA dan E BENESENENINGSURENESLOUISERENISININESE NENES

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