Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 28
________________ ७४२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय आज के युग में प्रसिद्ध प्रिन्स ऑफ वेल्स, क्विन मेरी, ट्युटानिया आदि जहाजों के समान युद्ध,विनोद, भोग आदि सब प्रकार की सामग्री से संपन्न राजभोग्य एवं धनाढ्यों के योग्य समृद्ध जहाजों का वर्णन प्राकृत श्रीपालचरित आदि में मिलता है. रत्नप्रभसूरिविरचित नेमिनाथचरित में अलंकारशास्त्र की विस्तृत चर्चा आती है. प्रहेलिकाएं, प्रश्नोत्तर, चित्रकाव्य आदि का वर्णन तो अनेक कथाग्रंथों में पाया जाता है. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र की अर्थदीपिका वृत्ति में (पृ० १२७) मंत्रीपुत्रीकथानक में किसी वादी ने मंत्रीपुत्री को ५६ प्रश्नों का उत्तर प्राकृत भाषा में चार अक्षरों में देने का वादा किया है. मंत्रीपुत्री ने भी 'परवाया' इन चार अक्षरों में उत्तर दिया है. ऐसी क्लिपातिक्लिष्ट पहेलियाँ भी इन कथाग्रंथों में पाई जाती हैं. संक्षेप में कहना यही है कि-प्राकृत के इस वाङ्मय में विपुल ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सामग्री मिल सकती है. यदि इसका पृथक्करण किया जाय तो बहुत महत्त्व की सामग्री एकत्र हो सकती है. प्राकृतादि भाषाएं जहाँ आज तक पाश्चात्य और एतद्देशीय विद्वानों ने प्राकृत भाषा के विषय में पर्याप्त विचार किया हो, विशेषतः प्राकृतादि भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् डॉ० पिशल महाशय ने वर्षों तक इन भाषाओं का अध्ययन करके और चारों दिशाओं के तत्तद्विषयक सैकड़ों ग्रन्थों का अवलोकन, अध्ययन, परिशीलन, चिन्तन आदि करके प्राकृत आदि भाषाओं का महाकाय व्याकरण तैयार किया हो वहाँ इस विषय में कुछ भी कहना एक दुस्साहस ही है. मैं कोई प्राकृतादि भाषाओं का पारप्राप्त विद्वान् नहीं हूँ, फिर भी प्राकृत आदि भाषा एवं साहित्य के अभ्यासी विद्यार्थी की हैसियत से मुझे जो तथ्य प्रतीत हुए हैं उनको मैं आपके सामने रखता हूँ. प्राकृत आदि भाषाओं के विद्वानों ने १ प्राचीन व्याकरण २ प्राचीन ग्रन्थों में आने वाले प्राकृत भाषा के संक्षिप्त लक्षण और ३ प्राचीन ग्रन्थों में आने वाले प्राकृत भाषाओं के प्रयोगों को ध्यान में रख कर प्राकृतादि भाषाओं के विषय में जो विचार और निर्णय किया है वह पर्याप्त नहीं है. इसके कारण ये हैं१. व्याकरणकारों का उद्देश्य भाषा को नियमबद्ध करने का होता है, अत: वे अपने युग के प्रचलित सर्वमान्य तत्तद् भाषाप्रयोगों एवं तत्संवादी प्राचीन मान्य ग्रन्थों के प्रयोगों की अपनी दृष्टि से तुलना करके व्याकरण का निर्माण करते हैं. खास कर उनकी दृष्टि अपने युग की ओर ही रहती है. आज के व्याकरणों को देख कर हम इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं. अत: इन व्याकरणों से प्राचीन युग की भाषा का पूर्ण पता लगाना असंभव है. २. प्राचीन व्याख्याग्रन्थ आदि में अर्धमागधी आदि के जो एक-दो पंक्तियों में लक्षण पाये जाते हैं उनसे भी प्राकृत भाषाओं के वास्तविक स्वरूप का पता लगाना पर्याप्त नहीं है. डॉ. पिशल ने अर्धमागधी और मागधी के विषय में जैन व्याख्याकारों के अनेक उल्लेखों को दे कर प्रमाणपुरस्सर विस्तृत चर्चा की है. उसमें मैं इतनी पूर्ति करता हूँ कि-स्वर-व्यञ्जनों के परिवर्तन और विभक्तिप्रयोग आदि के अतिरिक्त तत्कालीन भिन्न-भिन्न प्रान्तीय (जहाँ भगवान् महावीर और उनके निर्ग्रन्थों ने विहार, धर्मोपदेश आदि किया था) शब्दों का स्वीकार या मिश्रण भी अर्धमागधी का लक्षण होने की सम्भावना है. जैन निर्ग्रन्थों को विहार-पादभ्रमण, भिक्षा, धर्मोपदेश, तत्तत्प्रान्तीय शिष्यप्रशिष्यों के अध्ययन-अध्यापन आदि के निमित्त तत्तद्देशीय जनता के संपर्क में रहना पड़ता है. अतः इनकी भाषा में सहज ही भिन्न-भिन्न प्रान्तीय भाषाओं के स्वर-व्यञ्जनपरिवर्तन, विभक्ति-कारक आदि के प्रयोगों के साथ प्रान्तीय शब्दप्रयोग भी आ जाते हैं. भाषा का इस प्रकार का प्रभाव प्राचीन युग की तरह आज के जैन निम्रर्थों की भाषा में भी देखा जाता है. जैन आगमों के नियुक्ति-भाष्य-चूणि आदि में अनेक स्थानों पर एकार्थक शब्द दिये जाते हैं और वहाँ कहा भी जाता है कि-"भिन्न-भिन्न देशों में रहने वाले शिष्यों को मतिभ्रम न हो इसलिए एकार्थक शब्द दिये हैं". इस उल्लेख से भी यही प्रतीत होता है कि-अर्धमागधी का स्वर-व्यञ्जनादि परिवर्तन आदि के अतिरिक्त 'तत्तत्प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों का संग्रह' यह भी एक प्रमुख लक्षण है. CHI TRAPAAAAAAIATIMIRMIRMIRP UNAMAMALIAURAHANIRALAALAAT Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private www.jainelibrary.org

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