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७३० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
"पञ्चाशकादिशास्त्रव्यूहप्रविधायका विवृतिमस्याः। आरेभिरे विधातुं पूर्व हरिभद्रसूरिवराः ॥७॥ ते स्थापनाख्यदोषं यावद् वित्ति विधाय दिवमगमन् । तदुपरितनी तु कैश्चिद् वीराचार्य: समाप्येषा ।।८।। तत्रामीभिरमुष्याः सुगमा गाथा इमा इति विभाव्य । काश्चिन्न व्याख्याताः, या विवृतास्ता अपि स्तोकम् ।।६।। ताः सम्प्रति मन्दधियां दुर्बोधा इति मया समस्तानाम् ।
तास व्यक्तव्याख्याहेतोः क्रियते प्रयासोऽयम् ॥१०॥ (४२) शीलांकाचार्य (वि० १० श०)-इन्होंने आचारांग व सूत्रकृतांग की टीका की है. इन दो टीकाओं में दार्शनिक पदार्थों की अनेक प्रकार से विचारणा की गई है. आचारांग प्रथम श्रुतस्कंधटीका की समाप्ति वि० सं० ६०७ में हुई है और द्वितीय श्रुतस्कन्धटीका की समाप्ति वि० सं० ६१६ या ६३३ में हुई है. चउप्पन्न महापरिसचरिय के प्रणेता शीलांक से ये शीलांक भिन्न हैं. (४३) वादिवेताल शान्तिसूरि (वि० ११ वीं शताब्दी)-उत्तराध्ययनसूत्र की पाइयटीका के प्रणेता यही आचार्य हैं. ये विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में हुए हैं. गोपालिकमहत्तरशिष्यप्रणीत चूणि के बाद अनेक दार्शनिक वादों से पूर्ण समर्थ टीका यही है. इसके बाद जो अनेक टीकाएँ लिखी गईं उन सब का मूल स्रोत यही टीका है. इसमें प्राकृत अंश की अधिकता है अतः इसका नाम ' पाइय टीका' प्रचलित हो गया है. आचार्य हरिभद्रविरचित और आचार्य मलयगिरिविरचित आवश्यकसूत्र की टीकाएँ, द्रोणाचार्य की ओघनियुक्तिवृत्ति व नेमिचन्द्रसूरि की उत्तराध्ययनसूत्र की सुखबोधा टीका प्राकृतप्रधान ही है. (४४) द्रोणाचार्य (वि० १२ श०)—ये जैन आगमों के अतिरिक्त स्व-परदर्शनशास्त्रों के भी ज्ञाता आचार्य थे. इन्होंने अभयदेवाचार्यविरचित जैन अंग आगमों की टीकाओं के अतिरिक्त अन्य टीकाग्रन्थों का भी संशोधन आदि किया है. इनकी अपनी एक ही कृति है और वह है ओधनियुक्तिवृत्ति. (४५) अभयदेवसूरि (वि. १२ वीं श०)-इन्होंने स्थानांग आदि नौ अंगसूत्रों पर वृत्तियां बनाई हैं अत: ये 'नवाङ्गवृत्तिकार' के नाम से पहचाने जाते हैं. इन अंग आगमों में जगह-जगह वर्णक-संदर्भो का निर्देश किया गया है अतः सर्वप्रथम इन्होंने औपपातिक उपांगसूत्र की वृत्ति बनाई जिससे बार-बार आनेवाले निर्दिष्ट वर्णकस्थानों में एकवाक्यता बनी रहे. आचार्य अभयदेवसूरि की इन वृत्तियों का संशोधन व परिवर्धन उपर्युक्त चैत्यवासी श्रीद्रोणाचार्य ने किया है, जो उस युग के एक महान् आगमधर आचार्य थे. आचार्य अभयदेवसूरि ने अपनी इन वृत्तियों में काफी दत्तचित्त हो कर अपने युग में प्राप्त अनेकानेक प्राचीन-प्राचीनतम सूत्रप्रतियों को एकत्र कर अंगसूत्रों के पाठों को व्यवस्थित करने का महान कार्य किया है, अत: इनकी वृत्तियों में पाठभेद एवं वाचनान्तर आदि का काफी संग्रह हुआ है. इस कार्य में इनके अनेक विद्वान् शिष्य-प्रशिष्यों ने इन्हें सहायता दी है, इस प्रकार का उल्लेख इन्होंने अपनी ग्रन्थप्रशस्तियों में किया है. (४६) मलधारी हेमचन्द्रसूरि (वि० १२ श०)-ये आचार्य जैन आगमों के समर्थ ज्ञाता थे. इन्होंने जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणविरचित विशेषावश्यकमहाभाष्य पर २८००० श्लोकपरिमित विस्तृत विवरण की रचना वि० सं० ११७५ में की. अनुयोगद्वारसूत्र पर इन्होंने विस्तृत व्याख्या रची है. आवश्यकसूत्र की हारिभद्रीवृत्ति पर विस्तृत टिप्पन भी इन्होंने लिखा है. ये रचनाएं इनके प्रखर पाण्डित्य की सूचक हैं. इन विवरणों के अतिरिक्त इन्होंने प्राचीन शतककर्मग्रन्थवृत्ति, जीवसमासप्रकरणवृत्ति, पुष्पमालाप्रकरण स्वोपज्ञवृत्तियुक्त, भवभावनाप्रकरण स्वोपज्ञवृत्तियुक्त आदि ग्रन्थ भी बनाये हैं. विशेषावश्यकमहाभाष्य की टीका के अन्त में आपने अपनी ग्रन्थरचनाओं का क्रम इस प्रकार दिया है-- "ततो मया तस्य परमपुरुषस्योपदेशं श्रुत्वा विरचय्य झटिति निवेशितमावश्यकटिप्पनकाभिधानं सद्भावनामञ्जूषायां
PARADAV
Jin EBELIN NENNENE SINONIRESENTSERRURENEROSONO