Book Title: Jain Achar Darshan Ek Mulyankan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 2
________________ Ne १३८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थ चारित्र के रूप में आचार दर्शन का एक ऐसा सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसमें परम्पराओं का समुचित समन्वय था । इस प्रकार महावीर एवं जैनदर्शन का प्रथम विभिन्न एकांगी दृष्टिकोणों के मध्य समन्वय स्थापित करना था । यद्यपि यहाँ हमें परम्परा सन्देहवाद को किसी भी अर्थ में स्वीकृत नहीं करती है । Jain Education International : (ब) नैतिकता के बहिर्मुखी एवं अन्तर्मुखी दृष्टिकोणों का समन्वय जैन दर्शन ने न केवल ब्राह्मणवाद द्वारा प्रतिपादित यज्ञ याग की परम्परा का विरोध किया वरन् श्रमण परम्परा के देह खण्डन की तपस्यात्मक प्रणाली का भी विरोध किया। सम्भवतः महावीर के पूर्व तक नैतिकता का सम्बन्ध वाह्य तथ्यों से ही जोड़ा गया था, यही कारण था कि जहाँ ब्राह्मण वर्ग यज्ञ-याग के क्रिया-काण्डों में नैतिकता की इतिश्री मान लेता था, वहाँ श्रमण वर्ग भी विविध प्रकार के देह खण्डन में ही नैतिकता की इतिश्री मान लेता था। सम्भवत: जैन परम्परा के महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्वनाथ की नैतिक एवं आध्यात्मिक साधना के परिणामस्वरूप कुछ श्रमण परम्पराओं ने इस आन्तरिक पहलू पर अधिक बल देना प्रारम्भ कर दिया था लेकिन महावीर के युग तक नैतिकता एवं सधना का मुवी दृष्टिकोण पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया था वरन् ब्राह्मण परम्परा में तो पत श्राद्धादि के रूप में वह अधिक प्रसार पा गया था। दूसरी ओर जिन विचारकों ने नैतिकता के आन्तरिक पक्ष पर बल देना प्रारम्भ किया था, उन्होंने बाह्य पक्ष की पूरी तरह अवहेलना करना प्रारम्भ कर दिया था, परिणामस्वरूप वे भी एक दूसरी अति की ओर जाकर एकांगी वन गये थे । अतः महावीर ने दोनों ही पक्षों के मध्य समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया और यह बताया कि नैतिकता का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है, उसमें आचरण के बाह्य पक्ष के रूप में क्रिया का जो स्थान है उससे भी अधिक स्थान आचरण के आन्तरिक प्रेरक का है। इस प्रकार उन्होंने नैतिक जीवन में आचरण के प्रेरक और आचरण के परिणाम दोनों पर ही बल दिया । मानव मात्र की समानता का उद्घोष ज्ञानवादी, कर्मवादी और भक्तिमार्गी प्रयास आचार दर्शन के सम्बन्ध में यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन उस युग की सामाजिक समस्याओं में वर्ण व्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण समस्या थी। वर्ण का आधार, कर्म और स्वभाव को छोड़कर, जन्म मान लिया गया था, परिणामस्वरूप वर्ण व्यवस्था विकृत हो गई थी और उसके आधार पर ऊँच-नीच के भेदभाव खड़े हो गये थे जिसके कारण सामाजिक स्वास्थ्य विषमता के ज्वर से आक्रान्त था । जैन विचारणा ने जन्मना जातिवाद का विरोध किया और मानवों की समानता का उद्घोष किया। एक ओर उसने हरकेशबल जैसे निम्न कुलोत्पन्न को तो दूसरी ओर गौतम जैसे ब्राह्मण कुलोत्पन्न साधकों को अपने साधना मार्ग में समान रूप से दीक्षित किया। न केवल जातिगत विभेद वरन् आर्थिक विभेद भी साधना की दृष्टि से उसके सामने कोई मूल्य नहीं रखता है । जहाँ एक ओर मगध सम्राट श्रेणिक तो दूसरी ओर पुणिया जैसे निर्धन श्रावक उसकी दृष्टि में समान थे। इस प्रकार उसने जातिगत आधार पर ऊँच-नीच का भेद अस्वीकार कर मानव मात्र की समानता का उद्घोष किया। ईश्वरवाद से मुक्ति और मानवीय स्वतन्त्रता में निष्ठा उस युग की दूसरी समस्या यह थी कि मानवीय स्वतन्त्रता का मूल्य लोगों की दृष्टि में कम आँका जाने लगा था। एक ओर ईश्वरवादी धारणाएँ तो दूसरी ओर कालवादी एवं अन्य नियतिवादी धारणाएँ मानवीय स्वतन्त्रता को अस्वीकार करने लगी थी। जैन आचार दर्शन ने इस कठिनाई को समझा और मानव की स्वतन्त्रता की पुनः प्राणप्रतिष्ठा की उसने यह उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न अन्य शक्ति ही मानव की निर्धारक है, वरन् मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है । इस प्रकार उसने मनुष्य को ईश्वरवाद की उस धारणा से मुक्ति दिलाई जो मानवीय स्वतन्त्रता का अपहरण कर रही थी वस्तुतः मानवीय स्वतन्त्रता में निष्ठा ही नैतिक दर्शन का सच्चा आधार बन सकती है। 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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