Book Title: Jain Achar Darshan Ek Mulyankan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 8
________________ १४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड मनुष्य में स्वतः ही त्याग की वृत्ति का उदय हो और वह स्वेच्छा से ही सम्पत्ति के विसर्जन की दिशा में आगे आवे । भारतीय परम्परा और विशेषकर जैन परम्परा न केवल सम्पत्ति के विसर्जन की बात करती है वरन् उसके समवितरण पर भी जोर देती है। हमारे प्राचीन साहित्य में दान के स्थान पर संविभाग शब्द का ही अधिक प्रयोग हुआ है । जो यह बताता है कि जो कुछ हमारे पास है उसका समविभाजन करना है । महावीर का यह उद्घोष कि 'असंविभागी न हु तस्स मोक्ख' यह स्पष्ट बताता है कि जैन आचार दर्शन आर्थिक विषमता के निराकरण के लिए समवितरण की धारणा को प्रतिपादित करता है। जैनदर्शन के इन सिद्धान्तों को यदि युगीन सन्दर्भो में नवीन दृष्टि से उपस्थित किया जाय तो समाज की आर्थिक समस्याओं का निराकरण खोजा जा सकता है। वर्तमान युग में भ्रष्टाचार के रूप में समाज में आर्थिक क्षेत्र में जो बुराई पनप रही है उसके मूल में भी या तो व्यक्ति की संग्रहेच्छा है या भोगेच्छा । भ्रष्टाचार केवल अभावजनित बीमारी नहीं है वरन् वह एक मानसिक बीमारी है जिसके मूल में संग्रहेच्छा एवं भोगेच्छा के कीटाणु रहे हुए हैं । वस्तुत: वह आवश्यकताओं के कारण नहीं वरन् तृष्णा के कारण उत्पन्न होती है । आवश्यकताओं का निराकरण पदार्थों को उपलब्ध करके किया जा सकता है, लेकिन इस तृष्णा का निराकरण पदार्थों के द्वारा सम्भव नहीं है। इसीलिए जैनदर्शन ने अनासक्ति की वृत्ति को नैतिक जीवन में प्रमुख स्थान दिया है। तृष्णाजनित विकृतियाँ केवल अनासक्ति के द्वारा ही दूर की जा सकती हैं। हमारे वर्तमान युग की प्रमुख कठिनाई यह नहीं है कि हमें सामान्य जीवन जीने के साधन उपलब्ध नहीं है अथवा उनका अभाव है, वरन् कठिनाई यह है कि आज का मानव तृष्णा से इतना अधिक ग्रसित है कि वह एक अच्छा सुखद एवं शान्तिपूर्ण जीवन नहीं जी सकता है। मनुष्य की वासनाएँ ही उसके शान्त जीवन जीने में बाधक हैं। ३. वैचारिक वैषम्य विभिन्न वाद और उनके कारण उत्पन्न वैचारिक विषमता सामाजिक जीवन का एक बड़ा अभिशाप है। वर्तमान युग में राष्ट्रों का जो संघर्ष है उसके मूल में आर्थिक और राजनैतिक प्रश्न इतने महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि वैचारिक साम्राज्यवाद की स्थापना । वर्तमान युग में न तो राजनैतिक अधिकारलिप्सा से उत्पन्न साम्राज्यवाद की भावना पाई जाती है और न आर्थिक साम्राज्यों की स्थापना का प्रश्न ही इतना महत्त्वपूर्ण है, वरन् वर्तमान य ग में बड़े राष्ट्र अपने वैचारिक साम्राज्यों की स्थापना के लिए प्रयत्नशील देखे जाते हैं। जैन आचार दर्शन अपने अनेकान्तवाद और अनाग्रह के सिद्धान्त के आधार पर इस वैचारिक विषमता का निराकरण प्रस्तुत करता है। अनेकान्त का सिद्धान्त वैचारिक आग्रह के विसर्जन की बात करता है और वैचारिक क्षेत्र में दूसरे के विचारों एवं अनुभूतियों को भी उतना ही महत्व देता है जितना कि स्वयं के विचारों एवं अनुभूतियों को। उपरोक्त तीनों प्रकार की विषमताएँ हमारे सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हैं। जैन आचार दर्शन उपरोक्त तीनों विषमताओं के निराकरण के लिए अपने आचार दर्शन में तीन सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। सामाजिक वैषम्य के निराकरण के लिए उसने 'अहिंसा' का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। आर्थिक वैषम्य के निराकरण के लिए 'अपरिग्रह' का सिद्धान्त तथा वैचारिक वैषम्य के निराकरण के लिए 'अनाग्रह' और 'अनेकान्त' के सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं, जो क्रमश: सामाजिक समता, आर्थिक समता और वैचारिक समता की स्थापना करते हैं। लेकिन यह सभी नैतिकता के बाह्य एवं सामाजिक आधार हैं। नैतिकता का आन्तरिक आधार तो हमारा मनोजगत ही है। जैन आचार दर्शन मानसिक विषमता अर्थात् मानसिक तनाव के निराकरण के लिए विशेष रूप के विचार करता है। ४. मानसिक वैषम्य मानसिक वैषम्य मनोजगत में तनाव की अवस्था का सूचक है। जैन आचार दर्शन ने चतुर्विध कषायों को मनोजगत के वैषम्य का मूल कारण माना है। क्रोध, मान, माया और लोभ यह चारों आवेग या कषाय हमारे . मानसिक समत्व को भंग करते हैं। यदि हम व्यक्तिगत जीवन के विघटनकारी तत्त्वों का मनोवैज्ञानिक दृष्टि --0 .. . . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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