Book Title: Jain Achar Darshan Ek Mulyankan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 11
________________ जैन आचार दर्शन : एक मूल्यांकन 147 कर दी जायगी और इस प्रकार इस संसार में एक स्वर्ग का अवतरण हो सकेगा, वे वस्तुतः भ्रान्ति में ही हैं। वस्तुतः मनुष्य के लिए जिस आनन्द और शान्तिमय जीवन की अपेक्षा है वह मात्र भोगों की पूर्ति में विकसित नहीं हो सकता है। यह आज भी सत्य है, कि अनेक लोग जिन्हें सन्तुष्टि के अल्प साधन उपलब्ध हैं, अधिक आनन्दित हैं, अपेक्षाकृत उनके जो भौतिक सुख-सुविधाओं की पूर्ति के होते हुए भी उतने आनन्दित नहीं हैं / ' आज के संसार में संयुक्त राज्य अमेरिका जैसा राष्ट्र जो कि भौतिक सुख-सुविधाओं की दृष्टि से सम्पन्न होते हुए भी आज उसके नागरिक मानसिक तनावों से सर्वाधिक पीड़ित हैं। आज का मानव जिस संघर्ष की भयावह एवं तनावपूर्ण स्थिति में है उसका कारण साधनों का अभाव नहीं वरन् उपयोग की योग्यता एवं मनोवृत्ति है। यह सत्य है कि वैज्ञानिक उपलब्धियाँ मनुष्य को सुख और सुविधाएं प्रदान कर सकती हैं, लेकिन यह इसी बात पर निर्भर है कि मनुष्य की जीवन-दृष्टि क्या है ? विज्ञान में मानव को जहाँ एक ओर सुखी और सम्पन्न करने की क्षमता है वहीं दूसरी ओर वह उसका विनाश भी कर सकता है / यह तो उसके उपयोग करने वालों पर निर्भर है कि वे कैसा उपयोग करते हैं और यह बात उनकी जीवन-दृष्टि पर ही आधारित होगी। विज्ञान आध्यात्मिक एवं उच्च मानवीय मूल्यों से समन्वित होकर ही मनुष्य का कल्याणसाधक हो सकता है अन्यथा वह उसका संहारक ही सिद्ध होगा। अतः आज आवश्यक यह है कि मनुष्य में आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि एवं उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा जाग्रत की जाय।। आज मान्यता यह हो रही है कि नैतिक एवं उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा रखने वाला मनुष्य सुख-सुविधा की दृष्टि से घाटे में रहता है, इसीलिए नैतिकता एवं आध्यात्मिक जीवन के प्रति मनुष्य में सहज आकर्षण नहीं है। जीवन की आवश्यकताएँ जितनी अधिक होती हैं, उतनी ही सामाजिक उन्नति होती है, इस मान्यता ने समाज में भोग की स्पर्धा खड़ी कर दी है। अब कोई भी व्यक्ति इस दौड़ में पीछे रहना नहीं चाहता। हम भ्रष्टाचार करने वाले को दोष देते हैं, पर कितना आश्चर्य है कि भ्रष्टाचार की प्रेरणा जहाँ से फूटती है, उस ओर ध्यान नहीं देते / नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिस्थापना के लिए आवश्यक है कि जीवन की आवश्यकताओं को कम करने, सादा-सरल जीवन बिताने, त्याग व निःस्वार्थ वृत्ति को राष्ट्रीय संस्कृति का अभिन्न अंग माना जाए। समाज की एक मान्यता थी-चाहे जितने कष्ट आ जाएँ पर सत्य और प्रामाणिकता अखण्ड रहनी चाहिए। इस मान्यता ने सच्चे और प्रामाणिक लोगों की सृष्टि की / आज समाज की मान्यता में परिवर्तन हुआ है। जन-मानस बड़ी तेजी से ऐसा बनता जा रहा है कि सत्य और प्रामाणिकता खण्डित हों तो भले हों, सुख-सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए। इस मान्यता ने सत्य और प्रामाणिकता का मूल्य कम कर दिया है / यदि हम नैतिक मूल्यों के ह्रास को बचना चाहते हैं तो हमें भौतिक मूल्यों के स्थान पर आध्यात्मिक मूल्यों को स्वीकार करना होगा और एक ऐसी जीवन-दृष्टि का निर्माण करना होगा जो कि मनुष्य में उच्च मूल्यों के विकास के साथ ही मानव-जाति को भय, संघर्ष, तनाव और अप्रामाणिकता से मुक्त कर सके / जैसा कि हमने पूर्व में देखा इन सबके मूल में मानसिक विषमता के रूप में आसक्ति ही मूलतत्त्व है अत: वैयक्तिक एवं सामाजिक विषमताओं को पूर्णतया समाप्त करने के लिए जिस जीवन-दृष्टि की आवश्यकता है वह है अनासक्त जीवन-दृष्टि / / अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का अन्तिम नैतिक सिद्धान्त कोई है तो वह अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण ही है। जैन दर्शन में राग के प्रहाण का, बौद्ध दर्शन में तृष्णा-क्षय का और गीता में आसक्ति के नाश का जो उपदेश हमें उपलब्ध होता है उसका लक्ष्य है अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण / जैन आचार दर्शन के समग्र नैतिक विधि निषेध राग के प्रहाण के लिए हैं / बौद्ध दर्शन में बुद्ध के सभी उपदेशों का अन्तिम हार्द है तृष्णा का क्षय और गीता में कृष्ण के उपदेश का सार है फलासक्ति का त्याग। इस प्रकार तीनों ही आचार दर्शनों का सार एवं उनकी अन्तिम फलश्रुति अनासक्त जीवन जीने की कला का विकास है / यही समग्र नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन का सार है और नैतिक पूर्णता की अवस्था है। 1. नैतिकता का गरुत्वाकर्षण, पृ०६, 13-14. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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