Book Title: Jain Achar Darshan Ek Mulyankan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 1
________________ -.-.-. -. -.-.-.-.-.-. -.-.-.-.-.-. -.-. -. -. -. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-. . ..... जैन आचार दर्शन : एक मूल्यांकन 0 डॉ० सागरमल जैन [दर्शन विभाग, हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल (म.प्र.)] किसी भी आचार दर्शन का मानव-जीवन के सन्दर्भ में क्या मूल्य हो सकता है यह इस बात पर निर्भर है कि वह मानव-जीवन एवं मानव-समाज की समस्याओं का निराकरण करने में कहाँ तक समर्थ है और मानव-जीवन एवं मानव-समाज को उसका क्या सक्रिय योगदान है। जैन आचार दर्शन का मूल्यांकन करने के लिए हमें इस बात पर विचार करना होगा कि यह वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास तथा वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए कौन से सूत्र प्रस्तुत करता है और वे सुत्र समस्याओं के समाधान एवं मानवीय जीवन की प्रगति करने में कितने सक्षम हैं। साथ ही यह विचार भी आवश्यक है कि उसका वैयक्तिक एवं समाजिक जीवन पर क्या प्रभाव रहा है और उसने युग की सामाजिक समस्याओं का समाधान किस रूप में प्रस्तुत किया है। सर्वप्रथम हम जैन दर्शन का मूल्यांकन करने के लिए इस सम्बन्ध में विचार करेंगे कि जैन दर्शन ने विशेषकर महावीर के युग की तत्कालीन समस्याओं का समाधान किस रूप में प्रस्तुत किया है और उस युग के सन्दर्भ में उसका क्या मूल्य हो सकता है। महावीर के युग की आचार दर्शन सम्बन्धी समस्याएँ और जैन दृष्टिकोण (अ) नैतिकता की विभिन्न धारणाओं का समन्वय : महावीर के युग के आचार दर्शन की सबसे प्रमुख समस्या यह थी कि उस युग में आचार दर्शन सम्बन्धी मान्यताएँ एकांगी दृष्टिकोण को ही पूर्ण सत्य समझकर परस्पर एक दूसरे के विरोध में खड़ी हुई थों । महावीर ने सर्वप्रथम इन्हें समन्वय सूत्र में बाँधने का प्रयास किया । उस युग में आचार दर्शन सम्बन्धी चार दृष्टिकोण चार विभिन्न तात्त्विक आधारों पर खड़े हुए थे। क्रियावादी दृष्टिकोण आचार के बाह्य पक्षों पर अधिक बल देता था । वह कर्मकाण्डपरक था और आचार के बाह्य नियमों को ही नैतिकता का सर्वस्व मानता था । बौद्ध परम्परा में नैतिकता की इस धारणा को शीलव्रतपरामर्श कहा गया है। क्रियावाद के विपरीत दूसरा दृष्टिकोण अक्रियावाद का था । अक्रियावाद के तात्त्विक आधार पर खड़े हुए विभिन्न नियतिवादी दृष्टिकोण आत्मा को कूटस्थ एवं अकर्ता मानते थे। जहाँ क्रियावाद के अनुसार कर्म या आचरण ही नैतिक जीवन का सर्वस्व था वहाँ अक्रियावाद के अनुसार ज्ञान ही नैतिकता का सर्वस्व माना गया था। क्रियावाद कर्ममार्ग का प्रतिपादक था और अक्रियावाद ज्ञानमार्ग का प्रतिपादक था। कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग के अतिरिक्त तीसरी परम्परा अज्ञानवादियों की थी जो अतीन्द्रिय एवं पारलौकिक मान्यताओं और उन पर आधारित नैतिक प्रत्ययों को 'अज्ञेय' स्वीकार करती थी। इसका नैतिक दर्शन रहस्यवाद और सन्देहवाद इन दो रूपों में विभाजित था। इन तीनों परम्पराओं के अतिरिक्त चौथी परम्परा विनयवाद की थी जिसे नैतिक जीवन के सन्दर्भ में भक्तिमार्ग का प्रतिपादक माना जाता था। विनयवाद भक्तिमार्ग का ही अपरनाम था । इस प्रकार उस युग में ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग और अज्ञेयमार्ग एवं सन्देहवाद को परम्पराएं अलग-अलग रूप में प्रतिष्ठित थीं। महावीर ने अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के आधार पर इनमें एक समन्वय खोजने का प्रयास किया। सर्वप्रथम उन्होंने सम्यक्ज्ञान, सम्यकदर्शन और सम्यक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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