Book Title: Jain Achar Darshan Ek Mulyankan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 6
________________ १४२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ........................................................-.-.-.-.-.-.-.-. आज की सामजिक विषमता के मूल कारण हैं । अनैतिकता का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा है, व्यक्ति जिसे अपना मानता है उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है। सामाजिक जीवन में शोषण, क्रूर-व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते हैं जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं । यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है कि हम अपनी रागात्मकता या ममत्व वृत्ति का पूर्णतया विसर्जन कर सकें। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि उसका एक सीमा तक विसर्जन किए बिना अपेक्षित नैतिक जीवन का विकास नहीं हो सकता । व्यक्ति का 'स्व' चाहे वह व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन या राष्ट्र की सीमा तक विस्तृत हो हमें स्वार्थ-भावना से ऊपर नहीं उठने देता । स्वार्थ वृत्ति चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति समान रूप से नैतिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है। उसके होते हुए सच्चा नैतिक जीवन फलित नहीं हो सकता। मुनि नथमलजी लिखते हैं परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप जैसे जाति या राष्ट्र के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता का नियमन नहीं करता वैसे ही (जाति या राष्ट्र के प्रति ममत्व) राष्ट्र के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता का नियामक नहीं होता। मुझे लगता है कि राष्ट्रीय अनैतिकता की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय अनैतिकता कहीं अधिक है। जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक सचाई है, प्रामाणिकता है, वे भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सत्यनिष्ठ और प्रामाणिक नहीं हैं।' इस प्रकार हम देखते कि व्यक्ति का जीवन जब तक राग या ममत्व से ऊपर नहीं उठता तब तक नैतिकता का सद्भाव सम्भव ही नहीं होता। रागयुक्त नैतिकता, चाहे उसका आधार राष्ट्र अथवा मानव जाति ही क्यों न हो सच्चे अर्थो में नैतिकता नहीं हो सकती । सच्चा नैतिक जीवन वीतराग अवस्था में ही सम्भव हो सकता है और जैन आचार दर्शन इसी वीतराग जीवन-दृष्टि को ही अपनी नैतिक साधना का आधार बनाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह नैतिक जीवन का एक वास्तविक आधार प्रस्तुत करता है। यही एक ऐसा आधार है जिस पर नैतिकता को खड़ा किया आ सकता है और सामाजिक जीवन के वैषम्यों को समाप्त किया जा सकता है। दूसरे इस सामाजिक सम्बन्ध में व्यक्ति का अहम् भाव ही बहुत महत्त्वपूर्ण रूप से कार्य करता है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व हैं, इनके कारण भी सामाजिक जीवन में विषमता उत्पन्न होती है। शासक और शासित अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि की श्रेष्ठता के मूल में अहं ही प्रधान है । राष्ट्रीयता के मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहम् की पुष्टि का प्रयत्न है । स्वतन्त्रता के अपहार का प्रश्न इसी स्थिति में होता है। जब व्यक्ति में आधिपत्य की वृत्ति या शासन की भावना होती है तो वह दूसरों के अधिकारों का हनन करता है। जैन आचार दर्शन अहम् के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन में परतन्त्रता को समाप्त करता है। दूसरी ओर जैन दर्शन का अहिंसा सिद्धान्त भी सभी प्राणियों के समान अधिकार को स्वीकार करता है । अधिकारों का हनन एक प्रकार की हिंसा है। अत: अहिंसा का सिद्धान्त स्वतन्त्रता के साथ जुड़ा हुआ है । जैन एवं बौद्ध आचार दर्शन इसी अहिंसा सिद्धान्त के आधार पर स्वतन्त्रता का समर्थन करते हैं। यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता के कारणों का विश्लेषण करें तो यह पाते हैं कि उसके मूल में रागात्मकता ही है। यही राग जब 'पर' केन्द्रित होता है तो अपने और पराये के भेद उत्पन्न कर सामाजिक सम्बन्धों को अशुद्ध बनाता है। दूसरी ओर यही राग जव 'स्व' केन्द्रित होता है तो अहम् या मान का प्रत्यय उत्पन्न करता है । जिसके कारण सामाजिक जीवन में ऊँच-नीच की भावनाओं का निर्माण होता है। इस प्रकार राग का तत्त्व ही मान के रूप में एक दूसरी दिशा ग्रहण कर लेता है जो भी सामाजिक विषमता को उत्पन्न करती है । राग की वृत्ति ही संग्रह (लोभ) और कपट की भावनाओं को विकसित करती है। इस प्रकार सामाजिक जीवन में विषमता के उत्पन्न होने के चार मूलभूत कारण होते हैं (१) संग्रह, (१) आवेश, (३) गर्व, (बड़ा मानना) और (४) माया (छिपाना) । जिन्हें चार कषाय' कहा जाता है। यही चारों कारण अलग-अलग रूप में सामाजिक जीवन में विषमता, १. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० ३-४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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