Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ विपद्भवपदावर्ते, पदिकेवातिवाह्यते। यावत्तावद्भवन्त्यन्याः, प्रचुरा विपदः पुरः ।।१२।। संसार में मुसीबतें रहँट की घड़ियों की तरह होती हैं। जब तक एक ख़त्म (खाली) होती है तब तक दूसरी कई आकर खड़ी हो जाती है। दुरयेनासुरक्ष्येण, नश्वरेण धनादिना। स्वस्थंमन्यो जनः कोऽपि, ज्वरवानिव सर्पिषा ।।१३।। कठिनाई से अर्जित होनेवाली और असुरक्षित रहनेवाली नश्वर सम्पत्तियों में सुख का अनुभव करना वैसा ही है जैसे बुख़ार में पड़ा कोई व्यक्ति घी पीने में स्वास्थ्य को तलाशने की कोशिश करे। विपत्तिमात्मनो मूढः, परेषामिव नेक्षते। दह्यमानमृगाकीर्णवनान्तरतरुस्थवत्।।१४।। जंगली जानवरों से भरे और जलते हुए जंगल में किसी पेड़ पर बैठे व्यक्ति की तरह ही अज्ञानी व्यक्ति दूसरों की विपत्ति को तो देखता है अपनी विपत्ति को नहीं देखता। आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं कालस्य निर्गमम्। वाञ्छतां धनिनामिष्टं, जीवितात्सुतरां धनम् ।।१५।। धनवान व्यक्ति यह तो मानते हैं कि धन की वृद्धि आयु बीतने और समय गुज़रने के साथ ही होती है। फिर भी उन्हें धन अपने जीवन से ज़्यादा प्यारा लगता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26