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वपुहं धनं दाराः, पुत्रा मित्राणि शत्रवः । सर्वथान्यस्वभावानि, मूढः स्वानि प्रपद्यते।।८।।
शरीर, धन, पत्नी, पुत्र, मित्र, शत्रु आदि हर दृष्टि से पर-भाव वाले हैं। लेकिन अज्ञानी व्यक्ति इन्हें अपना समझता है।
दिग्देशेभ्यः खगा एत्य, संवसन्ति नगे नगे। स्वस्वकार्यवशाधान्ति, देशे दिक्षु प्रगे प्रगे।।९।।
देशों और दिशाओं से आकर पक्षी पेड़ों पर बसेरा करते हैं और सुबह होते ही अपने-अपने काम से फिर देशों और दिशाओं में उड़ जाते हैं।
विराधकः कथं हन्त्रे, जनाय परिकुप्यति। व्यङ्गलं पातयन् पद्भ्यां स्वयं दण्डेन पात्यते।।१०।।
अपकार करनेवाले और मारनेवाले व्यक्ति के प्रति क्रोध करना व्यर्थ है, क्योंकि फावड़े से भूमि को खोदने की चेष्टा में मनुष्य को खुद भी पैरों से झुकने के लिए विवश होना पड़ता है।
रागद्वेषद्वयीदीर्घ - नेत्राकर्षणकर्मणा। अज्ञानात् सुचिरं जीवः, संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ ।।११।।
संसारी जीव राग-द्वेष रूपी दो रस्सियों से कर्मों को खींचता है और अज्ञान के कारण संसार रूपी समुद्र में लम्बे समय तक भटकता रहता है।