Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 15
________________ दुःखसन्दोहभागित्वं, संयोगादिह देहिनाम्। त्यजाम्येनं ततः सर्वं, मनोवाक्कायकर्मभिः ।।२८।। यहाँ संयोग सम्बन्ध के कारण ही सांसारिक प्राणियों को दुःखसमूह से गुज़रना पड़ता है। इसलिए मैं सभी संयोग सम्बन्धों को मन, वचन, काय से सर्वथा छोड़ता हूँ। न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा। नाहं बालो न वृद्धोऽहं, न युवैतानि पुद्गले ।।२९।। मेरा (आत्मा का) मरण नहीं होता। इसलिए मेरे डरने का सवाल ही नहीं। मुझे कोई रोग नहीं होता। इसलिए मेरे वेदना सहने का भी सवाल नहीं। मैं न बच्चा हूँ, न युवा हूँ और न बूढ़ा हूँ। ये सब तो पुद्गल के विषय हैं। भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य, मम विज्ञस्य का स्पृहा ।।३०।। विभिन्न पुदगलों को मैं मोहपूर्वक बार-बार भोगता रहा। ज्ञान हुआ तो सभी को छोड़ दिया। अब जूठन के समान उन पुद्गलों की भला क्या लालसा मुझ ज्ञानी को होगी ? कर्म कर्महिताबन्धि, जीवो जीवहितस्पृहः । स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे, स्वार्थ को वा न वाञ्छति।।३१।। कर्म अपना हित कर्म को बाँधने में और जीव (आत्मा) अपना हित जीव (आत्मा) का हित करने में देखता है। प्रभावी होने पर सब अपनों का ही तो हित देखते हैं।

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