Book Title: Hindu aur Jain Vrat Ek Kriya Pratikriyatmaka Lekha Jokha
Author(s): Anita Bothra
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 2
________________ १०४ अनुसन्धान ५० (२) जैन परम्परा में भी आगमिक काल में, व्रतविधान, साधु द्वारा आचरित पंचमहाव्रत तथा श्रावक द्वारा स्वीकृत बारह व्रतों तथा तपों के स्वरूप में विद्यमान थे । इन महाव्रत, अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत तथा तपों को सुरक्षित रखते हुए अनेकानेक उपवास, पूजा, तप आदि रूप में जैनियों में व्रताचरण की प्रवृत्ति हुई । हिन्दु तथा जैन दोनों परम्पराओं के अन्तर्गत परिवर्तनों का लेखाजोखा भी इस शोधनिबन्ध में सारांश रूप से प्रस्तुत किया है । वैदिक तथा वेदोत्तरकालीन व्रत (१) 'व्रत'शब्द की व्युत्पत्ति : व्रतशब्द के व्युत्पत्त्यर्थ में विद्वानों में बहत सारे मतभेद दिखाई देते हैं डॉ. पा.वा.काणेजी ने व्रतशब्द 'वृ' तथा 'वृत्' इन दोनों धातुओं से व्युत्पन्न किया है। विविध मत देकर यह स्पष्ट किया है कि 'वृ-वरण करना' इस धातु को 'त' प्रत्यय लगाकर 'संकल्पित कृत्य', 'संकल्प' तथा 'इच्छा' इन अर्थों से 'व्रत'शब्द निकटता से जुड़ा हुआ है । (२) 'व्रत'शब्द का अर्थ : ऋग्वेद में 'ऋत', 'व्रत' और 'धर्मन्' ये शब्द बार-बार दिखाई देते हैं। उनके अर्थों में भी अनेक बार निकटता दिखाई देती है। 'ऋत' का सामान्य अर्थ है - देवों के द्वारा आरोपित निर्बन्ध अथवा नियम । 'धर्मन्' का अर्थ है - धार्मिक विधि अथवा यज्ञ । डॉ. काणेजी कहते हैं कि क्रमक्रमसे 'ऋत'संकल्पना प्रचलन से चली गयी । उसकी जगह 'सत्य'शब्द का प्रयोग होने लगा। 'धर्म'शब्द सर्वसंग्राहक बना और 'व्रत'शब्द 'धार्मिक एवं पवित्र प्रतिज्ञा' तथा 'मनुष्य द्वारा आचरित निर्बन्धात्मक व्यवहार', इस सन्दर्भ में अर्थपूर्ण बना। (३) 'व्रत'शब्द के समास तथा 'व्रत' के विविध अर्थ : डेक्कन कॉलेज के संस्कृत-महाशब्द-कोश के स्क्रिप्टोरियम में अन्तर्भूत सन्दर्भो के कार्डस् पर नजर डालने पर यह पता चलता है कि ऋग्वेद में 'सत्यव्रत', 'प्रियव्रत', 'दृढव्रत' इ. समास हैं लेकिन 'अणुव्रत' समास नहीं है।

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