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मार्च २०१०
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अनशन, अयाचित, नक्त (प्रदोष) तथा एकभुक्त । जैन व्रतों में भी उपवास ही केन्द्रस्थानी है तथा उनके उपवास के भी एकाशन, आयम्बिल, वियगत्याग, बेला, तेला आदि विविध प्रकार हैं । ब्रह्मचर्यपालन, मधु-मद्य - मांस का त्याग इन बातों की दोनों परम्परा में व्रत पालन के दिन समानता दिखायी देती है । व्रत के उद्यापन के दिन हिन्दु लोग प्राय: ब्राह्मण, पुरोहित को दान देते हैं तथा जैन लोग संघ को दान देते हैं ।
दोनों परम्पराओं में व्रत ज्यादातर स्त्रियों द्वारा आचरित है तथा चातुर्मास काल में व्रतों की विशेष आराधना की जाती है । हिन्दु परम्परा में चैत्र से लेकर फाल्गुन तक विविध प्रकार के त्यौहार हैं । वे उत्सव के तौरपर और व्रतरूप में परिवर्तित करके मनाये जाते हैं । व्रतों की इतनी विपुलता तथा उत्सवी स्वरूप जैनों में नहीं पाया जाता ।
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व्रतों की संख्या जैसे जैसे बढने लगी वैसे वैसे दोनो परम्पराओं में व्रतकथाओं के संग्रह बनने लगे । कथाएँ भी रची गयी । वे अपनीअपनी सैद्धान्तिक मान्यताओं से मिलती-जुलती थी । पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म का जिक्र दोनों में भी पाया जाता है । चान्द्रायण, कोकिला, सौभाग्य, आरोग्य, अम्बिका, ऋषिपंचमी, अक्षयतृतीया, मोक्षदा (मौन) एकादशी आदि हिन्दु व्रतों से नामसाम्य रखनेवाले जैनव्रत पाये जाते हैं । तथापि इन व्रतों का अन्तर्गत स्वरूप बिलकुल ही भिन्न है ।
हिन्दु व्रत, ‘धनधान्यसुखसमृद्ध्यर्थम् अमुकव्रतम् अहं करिष्ये', इस प्रकार से संकल्पपूर्वक किये जाते हैं । जैनव्रत संकल्प के उच्चारणपूर्वक नहीं किये जाते । पूर्वोल्लिखित जैनव्रतों की तीसरी अवस्था में व्रत के फल का जिक्र होने लगा । उसमें एक प्रकार से संकल्प भी निहित है तथापि प्रारम्भ में संकल्प करना प्रायः निदानात्मक और निषिद्ध ही माना गया है I
हिन्दु व्रतों में अनिवार्य रूप से स्नान की आवश्यकता बतायी गयी