Book Title: Hindu aur Jain Vrat Ek Kriya Pratikriyatmaka Lekha Jokha
Author(s): Anita Bothra
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 11
________________ मार्च २०१० ११३ बन गयी ।५१ 'अष्टकर्मतप' मूर्त क्रियाप्रधानरूप लेकर सामने आया५२ तथा 'ज्ञानपंचमी', 'सुगन्धदशमी' आदि नये नये व्रत भी बनने लगे ।५३ यद्यपि जैनधर्म प्रधानता से मोक्षलक्षी था तथापि गृहस्थों के लिए धन, आयुष्य, आरोग्य, समृद्धि आदि प्राप्त करानेवाले व्रतों की आवश्यकता जैन आचार्य महसूस करने लगे । इसलिए केवल पारलौकिक कल्याण के लिए ही नहीं किन्तु ऐहिक सुखों की कामना रखकर भी व्रतों की योजना होने लगी । ऐहिक फलकामनासहित क्रियाओं की या तप की 'निदानतप' शब्द से यद्यपि आगमों में निन्दा की है तथापि सोचविचार कर और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाकर धर्माचरण के प्रति सामान्यों का मन आकृष्ट करने के लिए व्रतों में परिवर्तन आ गये । प्राचीन काल से ही जैनियों में कुलदेवता, कुलाचार, पूजन आदि के रूप में विविध कथाओं का प्रचलन था । बदलते काल के साथ उनमें से कुछ रीतिरिवाज व्रत स्वरूप में परिवर्तित हुए । आधुनिक काल में भी शुभप्रसंग में विनायकपूजन (गणेशपूजन), मंगळसात, घटस्थापना, शिळासप्तमी, कुलदेवताओं का पूजन आदि परम्पराओं का प्रचलन दिखायी देता है। इन कुलाचारों के ग्रान्थिक आधार सहज उपलब्ध नहीं है । तथापि पीढी दर पीढियों से इनका परिपालन होता चला आया है । व्रतों के प्रत्यक्ष आचरण के समय तप, उपवास, मौन, स्वाध्याय, जप आदि की प्रधानता होती है जो जैन सिद्धान्तो से मिलीजुली है। व्रत के पारणा तथा उद्यापन में उत्सव की प्रधानता रहती है । स्वजाति तथा अन्यजातियों के लोगों को बुलाकर भोजन का प्रबन्ध, प्रभावना स्वरूप भेट वस्तुओं को आदान-प्रदान प्रमुखता से दिखायी देता है । ज्ञानपंचमी व्रत के समापन में वसुनन्दि कहते हैं किसहिरण्ण पंचकलसे पुरओ वित्थारिऊण वत्थमुहे । पक्कण्णं बहुभेयं फलाणि विविहाणि तह चेव ॥५४॥

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