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अनुसन्धान ५० (२)
दाणं च जहाजोग्गं दाऊण चउव्विहस्स संघस्स ।
उज्जवणविही एवं कायव्वा देसविरएण ॥५५॥ उदयचन्द्रविरचित सुगन्धदशमीकथा के उद्यापनविधि में निम्नलिखित वर्णन पाया जाता है । जैसे कि- 'जिनमन्दिर को पुष्पों से सजाना, चंदोवा तानना, ध्वजाएँ फहराना, औषधिदान देना, मुनियों को पवित्र आहार देना, दस श्रावकों को भेटवस्तु तथा खीर-घृत कटोरिया आदि देना, इस प्रकार की विधि करना चाहिए। इससे पुण्य उत्पन्न
होता है । ५६ उपसंहार :
हिन्द और जैन व्रतों का क्रियाप्रतिक्रियात्मक लेखाजोखा हमने अभीतक देखा । अब उसके उपसंहार तक पहुंचते हैं। दोनों परम्पराओ ने एक-दूसरे को प्रभावित किया । ज्यादातर हिन्दु प्रभाव से जैन व्रतों में परिवर्तन आये। लेकिन इस सभी प्रक्रिया में जैनों ने परिवर्तन के साथ-साथ अपनी अलग पहचान भी रखने का जरूर प्रयास किया । उसपर आधारित साम्य-भेदात्मक निरीक्षण उपसंहार में प्रस्तुत कर रहे हैं ।५७ • हिन्दु तथा जैन दोनों परम्पराओं के प्राचीन मूल ग्रन्थो में विधि
विधान रूप व्रतों का वर्णन नहीं पाया जाता । हिन्दु परम्परा में प्रारम्भ में यज्ञों की प्रधानता थी । उसके आधार से व्रत निष्पन्न तथा परिवधित हुए । जैन आगमों में महाव्रत, अणुव्रत तथा तप प्रधान थे । विधि-विधानात्मक व्रतों का आरम्भ इन्हीं के आधार से हुआ । हिन्दुओ के व्रत परिमित काल के लिए हैं । महाव्रत-अणुव्रत आजन्म परिपालन के लिए तथा उसी के आधार से आध्यात्मिक उन्नति के लिए बनाये गए हैं। बाद में जैन परम्परा में प्रारम्भित रविव्रत, निर्दोषसप्तमीकथाव्रत, रोहिणीव्रत इ. परिमित काल के लिए अपेक्षित है। हिन्दु परम्परा में व्रत सम्बन्धित उपवास चार प्रकार से होता है -