Book Title: Hindi Jain Kavya me Yog sadhna aur Rahasyawad
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 3
________________ हिन्दी जैन-काव्य में योगसाधना और रहस्यवाद ६४५ . ०० मध्यकाल में जिस सहज-साधना के दर्शन होते हैं उससे हिन्दी कवि भी प्रभावित हुए हैं, पर उन्होंने उसका उपयोग आत्मा के सहज स्वाभाविक और परम विशुद्धावस्था को प्राप्त करने के अर्थ में किया है । बाह्याचार का विरोध भी इसी सन्दर्भ में किया है। जैन साधक अपने ढंग की सहज साधना द्वारा ब्रह्मपद प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहे । कभी-कभी योग की चर्चा उन्होंने अवश्य की, पर हठयोग की नहीं। ब्रह्मानुभूति और तज्जन्य आनन्द की प्राप्ति का उद्घाटन करने में जैन-साधकों की उक्तियाँ अधिक जटिल और रहस्मय नहीं बनी और न ही उनके काव्य में अधिक अस्पष्टता आ पाई । जैन काव्य में सहज शब्द मुख्य रूप से तीन रूपों में प्रयुक्त हुआ है-१. सहज-समाधि के रूप में २. सहज-सुख के रूप में और ३. परमतत्त्व के रूप में ।२२ पीताम्बर ने सहज समाधि को अगम और अकथ्य कहा है। यह समाधि सरल नहीं है वह तो नेत्र और वाणी से भी अगम है उसे साधक ही जान पाते हैं नैनन ते अगम अगम याही बैनन तै, उलट पुलट बहै कालकूट कह री। मूल बिन पाए मूढ़ कैसे जोग साधि आवें, सहज समाधि की अगम गति गहरी ॥३४॥२३ बनारसीदास ने उसे निर्विकल्प और निरुपाधि अवस्था का प्रतीक माना । वही आत्मा केवलज्ञानी और परमात्मा कहलाता है। पंडित विवेक लहि एकता की टेक गहि, दुदज अवस्था की अनेकता हरतु है। मति श्रुति अवधि इत्यादि विकल्प मेंटि, निरविकलप ग्यान मन में धरतु है। इन्द्रियजनित सुख-दुःख सौं विमुख ह्व के, परम के रूप ह्व करम निर्जरतु है। सहज समाधि साधि त्यागि पर की उपाधि, आतम अराधि परमातम करतु है।" इसी को आतम समाधि कहा गया है जिसमें राग-द्वेष मोह-विरहित वीतराग अवस्था की कल्पना की रागद्वेष मोह की दसासों भिन्न रहै यात, सर्वथा त्रिकाल कर्म जाल को विधुंस है। निरुपाधि आतम समाधि में विराज तान, कहिए प्रगट पूरन परमहंस है ॥२५ जैन साधकों ने नाम सुमिरन और अजपा जाप को अपनी सहज साधना का विषय बनाया है। साधारण रूप से परमात्मा और तीर्थंकरों का नाम लेना सुमिरन है तथा माला लेकर उनके नाम का जप करना भी सुमिरन है । डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने सुमिरन के जो तीन भेद माने हैं२५ वे जैन साधकों ने अपनी साधना में अपनाये हैं । उन्होंने बाह्यसाधना पर चिन्तन करते हुए अन्तःसाधना पर बल दिया है। व्यवहारनय की दृष्टि से जाप करना अनुचित नहीं है पर निश्चयनय की दृष्टि से उसे बाह्य क्रिया माना है। तभी तो द्यानतरायजी ऐसे सुमिरन को महत्त्व देते हैं जिससे ऐसो सुमरन करिये रे भाई। पवन थमै मन कितहु न जाई ।। परमेसुर सौं साचौं रही जै। लोक रंजना भय तजि दीजै ।। यम अरु नियम दोऊ विधि धारी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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