Book Title: Hindi Jain Kavya me Yog sadhna aur Rahasyawad
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
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११ आनंदा ४०, आमेरशास्त्र भण्डार जयपुर की हस्तलिखित प्रति १२ हि० जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ० २०२, जसविलास १३ नाटक समयसार, उत्थानिका १६,
१४ नाटक - समयसार, कर्ता-कर्म क्रिया द्वार २७, पृ० ८६ "एसी नयकक्ष वाको पक्ष तजि ग्यानी जीव, समरसी भए एकता सौं नहि टले हैं । महामोह नासि सुद्ध अनुभो बभ्यासि निन, बल परवासि सुखरात मांहि रते हैं
१५ साध्य साधकद्वार १०, पृ० ३४०
१६ अवधू नाम हमारा राखे, सोई परम महारस चाखे । ना हम पुरुष नहीं हम नारी, बरन न भौति हमारी ।
जाति न पांति न साधन साधक, ना हम लघु नहीं भारी ।
ना हम ताते ना हम सीरे ना हम दीर्घ ना छोटा ।
"
-१७ आनन्दघन बहोत्तरी, पृ० ३५८
१८ द्यानत विलास, कलकत्ता
हिन्दी जैन-काव्य में योगसाधना और रहस्यवाद
१६ आणंदा, आनन्दतिलक, जयपुर आमेर शास्त्र भण्डार की हस्तलिखित प्रति २,
२० दौलत जैन पद संग्रह ७३, पृ० ४०
२१ भेषधार रहे मैया भेष ही में भेष में न भगवान, भगवान २२ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृ० २४४
२३ बनारसी विलास, ज्ञान वावनी ३४, पृ० ८४
२४ नाटक समयसार, निर्जराद्वार, पृ० १४१
२५ नाटक समयसार, सर्वविशुद्धिद्वार, ८२, पृ० २८५
२७ हिन्दी पद संग्रह, पृ० २८ वही, पृ० ११५;
भगवान । भाव में ।'
२६ (१) जाप - जो कि बाह्य क्रिया होती है । (२) अजपा-जाप - जिसके अनुसार साधक बाहरी जीवन का परित्याग कर आभ्यंतरिक जीवन में प्रवेश करता है । (३) अनाहद - जिसके द्वारा साधक अपनी आत्मा के गूढ़तम अंश में प्रवेश करता है, जहाँ पर अपने आप की पहिचान के सहारे वह सभी स्थितियों को पार कर अन्त में कारणातीत हो जाता है।
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आओ सहज वसन्त खेलें सब होरी होरा ॥ अनहद शब्द होत घनघोरा ॥
"
२६ धर्म विलास, पृ० ६५; सोहं सोहं नित जपै पूजा आगमसार । सत्संगत में बैठना, यही करे व्योहार ॥
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३० आसा मारि आसनधरि घट में, अजपा जाप जगावे ।
आनन्दघन चेतनमय मूरति नाथ निरंजन पावे ||७||
३१ आनन्दघन बहोत्तरी, पृ० ३६५; अपभ्रंश और हिन्दी जैन रहस्यवाद, पृ० २५५
३२ वही, पृ० ३६५
३३ कबीर की विचारधारा - डॉ० गोविन्द त्रिगुणायत, पृ० २२६-२२०
३६ सहिरी ए ! दिन आज सुहाया मुझ भाया आया नहीं घरे ।
सहि एरी ! मन उदधि अनन्दा सुख-कन्दा चन्दा देह धरे । चन्द जिवां मेरा बल्लभ सोहे, नैन चकोरहि सुक्ख करे । जग ज्योति सुहाई कीरति छाई, बहु दुख तिमिर वितान हरे ।
- बनारसी विलास, ज्ञानवावनी ४३, पृ० ८७
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३४ कबीर साहित्य का अध्ययन, पृ० ३७२
३५ शिवरमणी विवाह, १६ अजयराज पाटणी, बधीचन्द मन्दिर, जयपुर-गुटका नं० १५८, वेष्टन नं० १२७५
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- वही, पृ० ११६-२०
-अध्यात्म पंचासिका दोहा, ४६
-आनन्दघन बहोत्तरी, पृ० ३५६
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