Book Title: Hindi Jain Kavya me Yog sadhna aur Rahasyawad
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 6
________________ ६४८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड पिउ सुधि पावत वन में पैसिउ पेलि । छाडउ राज इगरिया भयउ अकेलि ॥ बालम ॥३॥ काय नगरिया भीतर चेतन भूप । करम लेप लिपटा बल ज्योति स्वरूप ॥ बालम ॥५।। चेतन बूझि विचार घरहु सन्तोष । राग दोष दुइ बंधन छूटत मोष ॥ बालम ॥१३॥ साधक की आत्मारूप सुमति के पास परमात्मा स्वयं ही पहुंच जाते हैं क्योंकि वह प्रिय के विरह में बहुत क्षीणकाय हो गई थी। विरह के कारण उसकी बेचैनी तथा मिलने के लिए आतुरता बढ़ती ही गई। उसका प्रेम सच्चा था इसलिए भटका हुआ पति स्वयं वापिस आ गया। उसके आते ही सुमति के खंजन जैसे नेत्रों में खुशी छा गयी और वह अपने चपल नयनों को स्थिर करके प्रियतम के सौन्दर्य को निरखती रह गयी। मधुर गीतों की ध्वनि से प्रकृति भर गयी । अन्तः का भय और पापरूपी मल न जाने कहाँ विलीन हो गये । क्योंकि उसका परमात्मा जैसा साजन साधारण नहीं, वह तो कामदेव जैसा सुन्दर और अमृत रस जैसा मधुर है। वह अन्य बाह्य क्रियायें करने से प्राप्त नहीं होता बनारसीदास कहते हैं-वह तो समस्त कर्मों का क्षय करने से मिलता है। म्हारे प्रगटे देव निरंजन। अटको कहाँ कहाँ सिर भटकत कहा कहूँ जन-रंजन |म्हारे०॥१॥ खंजन दृग, दृग नयनन गाऊँ चाऊँ चितवत रंजन । सजन घट अन्तर परमात्मा सकल दुरित भय भंजन म्हारे।। वो ही कामदेव होय, कामधट वो ही मंजन । और उपाय न मिले बनारसी सकल करमषय खंजन म्हारे।।" जैन साधकों एवं कवियों ने रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों का उद्घाटन करने के लिए राजुल और तीर्थकर नेमिनाथ के परिणय कथानक को विशेष रूप से चुना है। राजुल आत्मा का प्रतीक है और नेमिनाथ परमात्मा का । राजुलरूप आत्मा नेमिनाथरूप परमात्मा से मिलने के लिए कितनी आतुर है यह देखते ही बनता है । यहाँ कवियों में कबीर और जायसी एवं मीरा से कहीं अधिक भावोद्वेग दिखाई देता है । संयोग और वियोग दोनों के चित्रण भी बड़े मनोहारी और सरस हैं। भट्टारक रत्नकीति की राजुल से नेमिनाथ विरक्त होकर किस प्रकार गिरिनार चले जाते हैं, यह आश्चर्य का विषय है। उन्हें तो नेमिनाथ पर तन्त्र मन्त्र मोहन का प्रभाव लगता है-"उन पे तन्त मन्त मोहन है, वेसो नेम हमारो।" सच तो यह है कि "कारण कोउ पिया को न जाने ।" पिया के विरह से राजुल का संताप बढ़ता चला जाता है और एक समय आता है जब वह अपनी सखी से कहने लगती है-"सखी री नेम न जानी पीर", "सखी को मिलावो नेम नरिन्दा।" भट्टारक कुमुदचन्द्र और अधिक भावुक दिखाई देते हैं। उनकी राजुल असह्य विरह-वेदना से सन्तप्त होकर कह उठती है-सखी री अब तो रह्यो नहीं जात ।" हेमविजय की राजुल भी प्रिय के वियोग में अकेली चल पड़ती है उसे भी लोक-मर्यादा का बंधन तोड़ना पड़ता है। घनघोर घटायें छायी हुई हैं, चारों तरफ बिजली चमक रही है, पिउरे, पिउरे की आवाज पपीहा कर रहा है, मोरें कंगारों पर बैठकर आवाजें कर रहीं हैं । आकाश से बूंदें टपक रही हैं, राजुल के नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग जाती है। २ भूधरदास की राजुल को तो चारों ओर अपने प्रिय के बिना अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देता है। उनके बिना उसका हृदयरूपी अरविन्द मुरझाया पड़ा है। इस वेदना का स्वर वह अपनी मां से भी व्यक्त कर देती है, सखी तो ठीक ही है "बिन पिय देखें मुरझाय रह्यौ है, उर अरविन्द हमारो री।" राजुल के विरह की स्वाभाविकता वहाँ और अधिक दिखाई देती है जहाँ वह अपनी सखी से कह उठती है - "तहाँ ले चल री जहाँ जदौपति प्यारो।"" इस सन्दर्भ में "पंच सहेली गीत" का उल्लेख करना आवश्यक है जिसमें छीहल ने मालिन, तम्बोलनी, छीपनी, कलालनी और सुनारिन नामक पांच सहेलियों को पांच जीवों के रूप में व्यंजित किया है। पांचों जीव रूप सहेलियों ने अपने-अपने प्रिय (परमात्मा) का विरह वर्णन किया है। जब उन्हें ब्रह्मरूप पति की प्राप्ति नहीं हो पाती है तो वे उसके विरह से पीड़ित हो जाती हैं । कुछ दिनों के बाद प्रिय (ब्रह्म) मिल जाता है। उससे उन्हें परम आनन्द की प्राप्ति होती है। इस रूपक काव्य में बड़े सुन्दर ढंग से प्रियमिलन और विरह-जन्य पीड़ा का चित्रण है । उनका |० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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