Book Title: Hindi Jain Kavya me Yog sadhna aur Rahasyawad
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 9
________________ ++ हिन्दी जैन-काव्य में योगसाधना और रहस्यवाद दान || अध्यातम ॥ १२ ॥ परधान । संजम नागर पान || अध्यातम ॥ १३ ॥ निलज्जता रीति । राग विराम अलापिये हो, भावभगति शुभतान । रीझ परम रसलीनता, बीजे दया मिठाई रसभरी हो, तप मेवा शील सलिल अति सीयलो हो, गुपति अंग परगासिये हो, यह अकथ कथा मुख भखिये हो, यह गारी निरनीति || अध्यातम || १४ || उद्धत गुण रसिया मिले हो, अमल विमल रसप्रेम । सुरत तरंगमह छकि रहे हो, मनसा वाचा नेम || अध्यातम ॥ १५॥ परमज्योति परगट भई हो, लगी होलिका आठ काठ सब जरि बुझे हो गई तताई प्रकृति पचासी लगि रही हो, भस्म लेख है सोय । न्हाय धोय उज्ज्वल भये हो, फिर तहँ सहज भक्ति गुण खेलिये हो चेत सगे सखा ऐसे कहे हो, मिटे आग । भाग || अध्यातम ॥ १६॥ खेल न कोय || अध्यातम ॥ १७ ॥ बनार सिदास । मोह दधि फास || अध्यातम || १८ || १५ जगतराम होली खेलना चाहते हैं पर उन्हें खेलना नहीं आ रहा है- "कैसे होरी खेलौं खेलि न आवै । " क्योंकि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, तृष्णा आदि पापों के कारण चित्त चपल हो गया। ब्रह्म ही एक ऐसा अक्षर है जिसके साथ खेलते ही मन प्रसन्न हो जाता है।" उन्होंने एक अन्यत्र स्थान पर 'सुधबुध गोरी' के साथ 'सुरुचि गुलाल' लगाकर फाग भी खेली है । उनके पास 'समता जल' की पिचकारी है जिससे 'करुणा- केसर' का गुण छिटकाया है। इसके बाद अनुभव की पान-सुपारी और सरस रंग लगाया । Jain Education International "सुध बुधि गोरी संग लेय कर, सुरुचि गुलाल लगा रे तेरे । समता जल पिचकारी करुणा केसर गुण छिरकाय रे तेरे ॥ अनुभव पानि सुपारी बरवानि | सरस रंग लगाय रे तेरे । राम कहे जे इत विधि पेले, मोक्ष महल में जाय रे ॥ १७ द्यानतराय ने होली का सरस चित्रण प्रस्तुत किया है । वे सहज वसन्तकाल में होली खेलने का आह्वान करते हैं | दो दल एक दूसरे के सामने खड़े हैं। एक दल में बुद्धि, दया, क्षमा-रूप नारी वर्ग खड़ा हुआ है और दूसरे दल में रत्नत्रयादि गुणों से सजा आत्मारूप पुरुष वर्ग है । ज्ञान, ध्यान रूप डफताल आदि वाद्य बजते हैं, घनघोर अनहद नाद होता है, धर्मरूपी लाल वर्ण का गुलाल उड़ता है, समता का रंग घोल लिया जाता है, प्रश्नोत्तर की तरह पिचकारियाँ चलती हैं । एक ओर से प्रश्न होता है तुम किसकी नारी हो, तो दूसरी ओर से प्रश्न होता है तुम किसके में होली के रूप में अष्टकर्मरूप ईंधन को अनुभवरूप अग्नि में जला देते हैं और फलतः चारों ओर है । इसी शिवानन्द को प्राप्त करने के लिए कवि ने प्रेरित किया है । ६५१ इसी प्रकार वे चेतन से समतारूप प्राणप्रिया के साथ 'छिमा बसन्त' में होली खेलने का आग्रह करते हैं । प्रेम के पानी में करुणा की केसर घोलकर ज्ञान-ध्यान की पिचकारी से होली खेलते हैं । उस समय गुरु के वचन ही मृदङ्ग हैं, निश्चय व्यवहार नय ही ताल हैं, संयम ही इत्र है, विमल व्रत ही चोबा है, माव ही गुलाल है जिसे अपनी झोरी में भर लेते हैं, धरम ही मिठाई है, तप ही मेवा है, समरस से आनन्दित होकर दोनों होली खेलते हैं । ऐसे ही चेतन और समता की जोड़ी चिरकाल तक बनी रहे, यह भावना सुमति अपनी सखियों से अभिव्यक्त करती हैं चेतन खेले होरी ॥ में समता प्रान प्रिया संग गोरी ॥१॥ पानी, तामें करुना केसर घोरी, भरि आप में छारें होरा होरी ॥२॥ सत्ता भूमि छिमा बसन्त मन को माट प्रेम को ज्ञान-ध्यान पिचकारी भरि For Private & Personal Use Only लड़के हो । बाद शान्ति हो जाती www.jainelibrary.org

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