Book Title: Hindi Jain Gitikavya me Karm Siddhant Author(s): Shreechand Jain Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 4
________________ -0 Jain Education International ६५० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड से मोहनीय कर्म की समस्त उत्तरप्रकृतियों की संख्या अट्ठाइस हो जाती है। मोहनीय कर्म सबसे अधिक प्रबल व प्रभावशाली है, और प्रत्येक प्राणी के समग्र जीवन में अत्यन्त व्यापक व उसके लोक चरित्र के निर्माण अथवा विनाश में समर्थ सिद्ध होता है। इस कर्म के कुप्रभाव से जीव भ्रमित होकर स्व-पर-भेद को विस्मृत करता है तथा परत्व को स्वकीय मानकर उसमें तन्मय हो जाता है । अनेक दुर्गुण इसके माध्यम से उत्पन्न होते हैं और प्राणी कुकर्म करता हुआ भी नहीं हिचकता मोह-मदिरा के वश में होकर यह जीव उम्मत बनता है और कर्तव्याकर्तव्य के भेद को भूलकर ऐसे निन्द्य कुकार्यों में अथवा कहिए पापों में रम जाता है जिसके कारण उसे दुर्गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। धर्मक्रियाएँ उसके लिए गौण हो जाती हैं तथा विषय-भोग ही ऐसे मूढ़ को सर्वोपरि प्रतीत होते हैं जैनाचायों और जैन कवियों ने मोहनीय कर्म के कुप्रभाव से बचने के लिए, जीव को विविध रूपों में सम्बोधित किया है एवं उसे ऐसे मनोरम प्रबोधन दिए हैं जो निरन्तर स्मरणीय है। मोह का दूसरा नाम गाया है जिसकी भर्त्सना समस्त सन्तों एवं विचारकों ने की है। कविवर रूपचन्द जी कहते हैं कि मोह के वशीभूत होकर यह चेतन अन्य के प्रेम में लीन हो रहा है चेतन परस्यों प्रेम बढ्यो || स्वपर-विवेक बिना भ्रम भूल्यो में मैं करत रह्यो। चेतन परस्यों प्रेम बढ्यो || १ || नर भव रतन जतन बहु तैं करि कर तेरे आइ चढ्यो । सुक्यौं विषय-सुख लागि हारिए, सब गुन गढनि गढ्यो || चेतन परस्यौं प्रेम बढ्यो || २ || आरंभ के कुसियार कीट ज्यौं, आपुहि आप मढ्यो । रूपचंद चित चेतन नाहि सँ सुक ज्यों वादि पढ्यो । चेतन परस्यों प्रेम बढ्यो || ३ || महाकवि दौलतराम के कथनानुसार यह जीव मोह-मदिरा पीकर अयाना ( अज्ञानी) बना हुआ है तथा परपरणति में तल्लीन होकर निजस्वरूप को भूल चुका है। यह सब मोहनीय कर्म का ही प्रभाव है निपट अयाना ते आपा नहि जाना, नाहक भरम भुलाना वे । निपट अयाना, ते आपा नहि जाना || पीय अनादि मोहमद मोह्यो पर पद में निज 2 माना वे। निपट अयाना ॥ १ ॥ चेतन चिह्न भिन्न जड़ता सौं, ज्ञान 'दरस रस साना वे । तन में छिप्यो लिप्यो न तदपि ज्यों, जल में कजदल माना वे ।। सकल भाव निज निज परनतिमय कोई न होय तू दुखिया पर कृत्य मानि ज्यों, नभ ताड़न अजगन में हरि भूल अपनयो, भयो दौल सुगुरु धुनि सुनि निज में निज आप निपट अयाना ॥ २॥ बिराना वे | श्रम ठाना वे ॥ For Private & Personal Use Only निपट अयाना ॥३॥ दीन हैराना वे लह्यो सुख थाना वे ।! निपट अयाना ॥ ४ ॥ कविवर बनारसीदास की यह एक मान्यता है कि यह चेतन मोह के वशीभूत होकर उल्टी चाल चल रहा है। यह तो इतना विमूढ़ हो गया है कि प्रमुदित होकर वह अपने गले में स्वयं विषय-वासना की फाँसी डाल रहा है www.jainelibrary.org.Page Navigation
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