Book Title: Hindi Jain Gitikavya me Karm Siddhant
Author(s): Shreechand Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 5
________________ हिन्दी जैन गीतकाव्य में कर्म-सिद्धान्त .................................................................. ..... चेतन उलटी चाल चले ॥ जड़ संगत तँ जड़ता व्यापी, निज गुन सकल टले । चेतन उलटी चाल चले ॥१॥ हित सों विरचि ठगनिसों राचे, मोह पिशाच जले। हँसि हसि फंद सवारि आपही, मेलत आप गले ।। चेतन उलटी चाल चले ॥२॥ आये निकसि निगोद सिंधु से, फिर तिह पंथ टले । कैसे परगट होय आग जो, दबी पहार तले ॥ चेतन उलटी चाल चले ॥३॥ भले भव-भ्रम बीचि बनारसि, तुम सुज्ञान भले । धर शुभ ध्यान ज्ञान नौका चढ़ि, बैठे ते निकले ॥ चेतन उलटी चाल चले ॥४॥ इस प्रकार के सैकड़ों पद हैं जिनमें मोहनीय कर्म के प्रबल प्रभाव को प्रदर्शित करके चेतन को सजग बनाने का प्रयास किया गया है। (४) अन्तराय कर्म-जो कर्म जीव के बाह्य पदार्थों के आदान-प्रदान और भोगोपभोग तथा स्वकीय पराक्रम के विकास में विघ्न-बाधा उत्पन्न करता है, वह अन्तराय कर्म कहा गया है। उसकी पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । ये क्रमश: जीव के दान करने, लाभ लेने, भोज्य व भोग्य पदार्थों का एक बार में अथवा अनेक बार में, सुख लेने एवं किसी भी परिस्थिति का सामना करने योग्य सामर्थ्य रूप गुणों के विकास में बाधक होते हैं।' (५) वेदनीय कर्म-डॉ. हीरालाल जैन लिखते हैं-जो कर्म जीव को सुख व दु:ख रूप वेदना उत्पन्न करता है, उसे वेदनीय कहते हैं । इसकी उत्तरप्रकृतियाँ दो हैं-सातावेदनीय, जो जीव को सुख का अनुभव कराता है और असातावेदनीय, जो दुःख का अनुभव कराता है । (६) आयुकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की देव, नरक, मनुष्य या तिर्यंच गति में आयु का निर्धारण होता है, वह आयु कर्म है। इसकी चार उत्तरप्रकृतियाँ हैं—१. देवायु, २, नरकायु, ३. मनुष्यायु व ४. तिर्यंचायु । जीवन-मरण की यह सारी क्रीड़ा इसी आयु में कर्म पर आधारित है। इन विभिन्न योनियों में नियत काल की अवस्थिति यही कर्म करता है । आयु की समाप्ति पर कोई भी शक्ति जीव को जीवित जहीं रख सकती है सुर असुर खगाधिप जेते, मग ज्यों हरि काल दले ते । मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ॥ आयु कर्म की प्रभावशीलता को न समझने वाले व्यक्ति ईश्वर की प्रधानता को स्वीकार कर उसकी अनुकम्पा को ही आयु की वृद्धि में परम सहायक मानते हैं, लेकिन यह मान्यता निरर्थक है। काल की समर्थता के सम्बन्ध में कविवर भूधरदास का यह कवित्त विचारणीय है लोह मई कोट के ई कोटन की ओट करो, काँगरेन तोप रोपि राखो पट भेरि के। . . १. डॉ० हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ २२८ २. वही, पृ० २२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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