Book Title: Hindi Jain Gitikavya me Karm Siddhant Author(s): Shreechand Jain Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 8
________________ Jain Education International ६५४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कस्यापि ददाति किचन । विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ॥' महाकवि दौलतरामजी ने भी इस सर्वव्यापक तथ्य को अपने सैद्धान्तिक ग्रन्थ 'छझाला' में निरूपित कर जीव को आत्मोद्धार के लिए प्रेरित किया है * शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगें जिय एकहि ते ते । सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी ॥ प्रबुद्ध मानव अपनी सतत साधना से इस दूषित आकृष्ट होकर विचारने लगता है कि- झूठा है जग का व्योहारा । हम न किसी के कोई न हमारा तन संबंधी सब परिवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ॥ १ ॥ पुन्य उदय सुख का बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा। पाप पुन्य दोऊ संसारा, मैं सब देखन जानन हारा ॥ २ ॥ मैं तिहुंजग तिहुंकाल अकेला, पर संबंध हुआ बहु मैला । थिति पूरी कर बिरबिर जाहीं, मेरे हरख शोक कछु नाहीं ।। ३ ।। राग भाव ते सज्जन मानें, द्वेष-भाव ते दुर्जन माने । रागदोष दोऊ मम नाहीं, द्यानत मैं चेतन पद माहीं ॥ ४ ॥ किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल यह जीव स्वयं किसी भी प्रकार से बच नहीं सकता । कवि धर्मपाल के की सहायता माँगना केवल मूढ़ता है मान्यता को नष्ट करता है और फिर वास्तविकता की ओर भोगता ही है पापों के कष्टदायक परिणाम से । यह चेतन शब्दों में कर्मभोग तो भोगने से ही छूट सकते हैं, इसमें अन्य जिया तू दुख से काहे हरे रे । 1 पहले पाप करत नहि शंक्यो, अब क्यों साँस भरे रे ।। १ ।। करम भोग भोगे ही छुटेंगे, शिथिल भये न सरे रे धीरज धार मार मन ममता, जो सब काज सरे रे ॥ २ ॥ करत दीनता जन जन पे तू, कोई न सहाय करे रे । 'धर्मपाल' कहे सुमरो जगतपति, वे सब विपति हरे रे ।। ३ ।। ++++0 इस कर्मसिद्धान्त से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वास्तव में इस जीव का ( शुभ-अशुभ कर्म के सिवाय) कोई अन्य न तो हित करता है और न अहित । मिथ्यात्व कर्म के अधीन होकर धर्म-मार्ग का त्याग करने वाला देवता भी मर कर एकेन्द्रिय वृक्ष होता है। धर्माचरण रहित चक्रवर्ती भी सम्पत्ति न पाकर नरक में गिरता है। इसलिए अपने उत्तरदायित्व को सोचते हुए कि इस जीव का भाग्य स्व-उपार्जित कर्मों के अधीन है, धर्माचरण करना चाहिए । स्वामि कार्तिकेय मुनिराज ने उपर्युक्त सत्य को इस प्रकार प्रकाशित किया है णय कोवि देरु लच्छी ण कोवि जीवस्स कुणइ उवयारं । उपपारं अवसारं कम्म पि सुहासुहं कुणदि ।। २१९ ।। देवो व धम्म मिच्छतवसेण तरवरो होवि चक्की बि धम्मरहिओ गिवड णरए ण सम्यये होदि ।। ४३५ ।। — स्वामि कीर्तिकेयानुप्रेक्षा * १. डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल धार्मिक सहिष्णुता और तीर्थंकर महावीर (महावीर जयंती स्मारिका १२७२), पृ० १-५७ २. जैन शासन (पं० सुमेरचन्द्र दिवाकर ) ०२४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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