Book Title: Hindi Jain Gitikavya me Karm Siddhant Author(s): Shreechand Jain Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 6
________________ -0 ०. Jain Education International ६५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड इन्द्र चन्द्र चौकात चौकस है चौकी देहु, चतुरंग चमू चहूं ओर रहो घेरि कैं । तहां एक भौंहिरा बनाय बीच बैठो पुनि, बोलो मत कोऊ जो बुलावे नाम टेरिकैं । ऐसी परपंच पांति रचो क्यों न भांति-भांति कैसे हून छोड़े अम देखो हम हरिके ॥ इसी सन्दर्भ में निम्नस्थ पंक्तियां सांसारिक क्षणभंगुरता के साथ जीवन की असारता, एकाकीपन और अस्थिरता को भी प्रमाणित करती है 1 राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ॥ दल बल देई देवता, माता-पिता परिवार । मरती बिरियाँ जीव को कोई न राखनहार ॥ दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान । कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥ आप अकेलो अवतरे, मरे अकेलो होय | यों कबहूं इस जीव को, साथी सगा न कोय ॥ ' (७) गोत्रकर्म - जिस प्रकार कुम्भकार मृत्तिका आदि को छोटे-बड़े घट के रूप में परिणत कर दिया करता है, उसी प्रकार छोटे-बड़े भेदों से विमुक्त इस जीव को गोत्र कर्म कभी उच्च कुल में जन्म धारण कराता है तो कभी हीन संस्कार, दूषित आचार-विचार एवं हीन - परम्परा वाले कुलों में उत्पन्न कराता है। सदाचार के आधार पर उच्चता और कुलीनता अथवा अकुलीनता और नीचता के व्यवहार का कारण उच्च-नीच गोत्र कर्म का उदय है । आज वर्ण व्यवस्था सम्बन्धी उच्चता-नीचता पौराणिकों की मान्यता मानी जाती है। किन्तु जैन शासन में उसे गोत्र कर्म का कार्य बताया है। पवित्र कार्यों के करने से तथा निरभिमान वृत्ति के द्वारा यह जीव उच्च संस्कार सम्पन्न वंश परम्परा को प्राप्त करता है। शिक्षा, वस्त्र, वेश-भूषा आदि के आधार पर संस्कार तथा चरित्र हीन नीच व्यक्ति शरीर परिवर्तन हुए बिना उच्च गोत्र वाले नहीं बन सकते, क्योंकि उच्च गोत्र के उदय के लिए उच्च संस्कार परम्परा में उत्पन्न शरीर को नोकर्म माना है। (जैन शासन, पृ० २२८ ) डा० हीरालाल जैन के मतानुसार लोक व्यवहार सम्बन्धी आचरण गोत्र माना गया है। जिस कुल में लोकपूजित आचरण की परम्परा है उसे उच्च गोत्र और जिसमें लोक निन्दित आचरण की परम्परा है उसे नीच गोत्र नाम दिया गया है। इन कुलों में जन्म दिलाने वाला कर्म गोत्र कर्म कहलाता है और उसकी तदनुसार उच्च गोत्र व नीचगोष से दो ही उत्तर-प्रकृतियां हैं। यद्यपि गोत्र शब्द का वैदिक परम्परा में भी प्रयोग पाया जाता है, तथापि जैन कर्म सिद्धान्त में उसकी उच्चता और नीचता में आचरण की प्रधानता स्वीकार की गई है। (८) नाम कर्म - जिस प्रकार चित्रकार अपनी तूलिका और विविध रंगों के योग से सुन्दर अथवा भीषण आदि चित्रों को बनाया करता है। उसी प्रकार नामकर्म रूपी चित्रकार इस जीव को भले-बुरे, दुबले-पतले, मोटे-ताजे, लूलेलंगड़े, कुबड़े, सुन्दर अथवा सड़े-गले शरीर में स्थान दिया करता है। इस जीव की अगणित आकृतियाँ और विविध प्रकार के शरीरों का निर्माण नामकर्म की कृति है। विश्व की विचित्रता में नामकर्म रुपी चितेरे की कला १. डा० प्रेमसागर जैन, हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि पृ० ३४३. २. डॉ० हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पु० २२८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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