Book Title: Haribhadra ke Prakrit yoga Grantho ka Mulyankan Author(s): Chhaganlal Shastri Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 6
________________ Pal प्रकार का धर्म-व्यापार-धर्मोपासना के वे सभी योग का अधिकारी कौन हो सकता है, इस या उपक्रम योग हैं । प्रस्तुत सन्दर्भ में योग का आशय सम्बन्ध में हरिभद्र ने जो तात्त्विक समाधान दिया का आसन, ध्यान आदि से है। है, वह उनकी गहरी सूझ का एवं जैन दर्शन की योगदृष्टि समुच्चय में सामर्थ्ययोग के योगसंन्यास मर्मज्ञता का सूचक है। नामक भेद का स्वरूप समझाते हुए लिखा है उन्होंने लिखा हैअतस्त्वयोगो योगानां, योगः पर उदाहृतः। अहिगारी पुण एत्थ विन्नेओ अपुणबंधगाइत्ति । मोक्षयोजनभावेन, सर्वसन्यासलक्षणः ॥ तह तह नियत्तपयई अहिगारोऽणेगभेओ त्ति ॥६॥ यहाँ योग को मोक्षयोजनभाव के रूप में व्या अपुनर्बन्धक-चरम पुद्गलावर्त में अवस्थित २ ख्यात किया है । अर्थात् वह आत्मा को मोक्ष से । पुरुष योग का अधिकारी है, ऐसा जानना चाहिये । जोड़ता है, वह आत्मभाव का परमात्मभाव के साथ कर्म-प्रवृत्ति की निवृत्ति-कर्म-पुद्गलों के निर्जरण योजक है । यह योजकत्व ही योग की वास्तविकता की तरतमता से प्रसूत स्थितियों के अनुसार गुण निष्पन्नता की दृष्टि से उसके अनेक भेद हो सकते इस श्लोक में एक बात अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यहाँ योग द्वारा अयोग प्राप्ति-योगराहित्य स्वायत अध्यात्म-जागरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत योगकरने का संकेत किया गया है। अर्थात् यहाँ योग बन्दु Iो बिन्दु' में भी यह प्रसंग विशद रूप में चचित हुआ द्वारा ध्यान आदि आत्म-साधना के उपक्रमों, उपायों है। द्वारा योग-मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवत्तियों अपूनर्बन्धक तथा चरम पुद्गलावर्त के सन्दर्भ | का सर्वथा निरोध कर अयोग-योगरहित बन जाने में जैन दर्शन की ऐसी मान्यता है कि जीव अनादिका भाव उजागर हुआ है । आत्मा की वह सर्वोत्तम काल से शरीर, मन, वचन द्वारा संसारस्थ पुद्गलों उन्नतावस्था है, जहाँ वह (आत्मा) सर्वथा अपने का किसी न किसी रूप में ग्रहण तथा विसर्जन स्वरूप में, स्वभाव में सम्प्रतिष्ठ हो जाती है। करता आ रहा है। कोई जीव विश्व के समस्त स्वरूप-सम्प्रतिष्ठान के पश्चात् कुछ करणीय बच पुद्गलों का एक बार किसी न किसी रूप में ग्रहण 4 नहीं जाता । वहाँ कर्ता, कर्म और क्रिया की त्रिपदी तथा विसर्जन कर चुकता है -सबका भोग कर - ऐक्य प्राप्त कर लेती है । वह आत्मा की देहातीता- लेता है, वह एक पुद्गल-परावर्त कहा जाता है। वस्था है, सहजावस्था है, परम आनन्दमय दशा है, यह पुद्गलों के ग्रहण-त्याग का क्रम जीव के योगसाधना की सम्पूर्ण सिद्धि है। सभी प्रवृत्तियाँ, अनादि काल से चला आ रहा है। यों सामान्यतः जिनका देह, इन्द्रिय आदि से सम्बन्ध है, वहाँ स्वयं जीव इस प्रकार के अनन्त पुद्गल-परावर्तों में से अपगत हो जाती है। यह योग द्वारा योगनिरोध- गुजरता रहा है। यही संसार की दीर्घ शृंखला या पूर्वक अयोग की उपलब्धि है। अयोग ही योगी का चक्र है । इस चक्र में भटकते हुए जीवों में कई भव्य परम लक्ष्य है। यह तब सधता है, जब नैश्चयिक या मोक्षाधिकारी जीव भी होते हैं, जिनका कषायदृष्टि से आत्मा में ज्ञान की अविचल ज्योति उद्दीप्त मान्द्य बढ़ता जाता है, मोहात्मक कर्म-प्रकृति की हो जाती है, निष्ठा का सुस्थिर सम्बल स्वायत्त हो शक्ति घटती जाती है। जीव का शुद्ध स्वभाव कुछजाता है। तदनुरूप साधना सहज रूप में अधिगत कुछ उद्भासित होने लगता है। ऐसी स्थिति आ हो जाती है। जाने पर जीव की संसार में भटकने की स्थिति १. योगबिन्दु १७६-७८ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास Oct 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6ero Jain Education International Sr Private & Personal Use Only www.jainetofary.orgPage Navigation
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