Book Title: Haribhadra ke Prakrit yoga Grantho ka Mulyankan
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 4
________________ । के ११वें स्कन्ध में अवधूत दत्त या दत्तात्रेय की चर्चा आ० हरिभद्रसूरि इन सब परम्पराओं का गह है, जिन्होंने अपने द्वारा विविध रूप में गृहीत राई से अध्ययन कर चुके थे । जिन तपःक्रमों, शिक्षाओं के कारण अपने चौबीस गुरु माने थे। साधना पद्धतियों, यौगिक क्रिया-प्रक्रियाओं के परि___ आचारांग का धृताध्यायन (प्रथम श्र तस्कन्ध पार्श्व में विकास पाती योग-साधना उनके समय षष्ठ अध्ययन) तथा विशुद्धिमग्ग का धतांग-निर्देश तक जिस रूप में पनप चुकी थी, उससे वे भलीभांति 15 अवधूत परम्परा की ओर संकेत करते प्रतीत होते परिचित थे । समय की मांग को देखते उन्हें यह हैं। भाषा-विज्ञान में निर्देशित प्रयत्नलाघव या आवश्यक प्रतीत हुआ कि जैन चिन्तनधारा को संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया के अनुसार 'अव' उपसर्ग केन्द्र में रखते हुए योग का एक ऐसा रूप उपस्थित हटाकर केवल धूत रख लिया गया हो। धुत 'ध' किया जाए, जो तत्सम्बन्धी सभी विचारधाराओं कम्पने का कृदन्त रूप है। अवधूत के सन्दर्भ में का समन्वय लिए हुए हो, जिसे अपनाने में किसी इसका आशय उस साधक से है, जिसने कर्म-शत्रुओं को कोई आपत्ति न लगे। को कंपा डाला हो, झकझोर दिया हो, हिला दिया योग के क्षेत्र में इस प्रकार का चिन्तन करने के हो। वाले आ० हरिभद्र सम्भवतः पहले व्यक्ति थे। ___ साथ ही साथ तापसों की भी विशेष परम्पराएँ क्योंकि तत्पूर्ववर्ती लगभग सभी योगाचार्यों ने अपनी इस देश में रही हैं, जिनकी तपःसाधना ब्राह्मण और अपनी परम्पराओं को ही उद्दिष्ट कर साहित्यश्रमण परम्परा का मिला-जुला रूप लिए थीं। रचना की। औपपातिक सूत्र आदि में जो विभिन्न परिव्राजकों, आ० हरिभद्र ने योग पर चार ग्रन्थ लिखे-१. तापसों का वर्णन आया है, वह इस पर प्रकाश योगदृष्टिसमुच्चय, २. योगबिन्दु, ३. योगशतक तथा डालता है । आ० हरिभद्रसूरि ने समराइच्चकहा में ४. योगविशिका। कुलपति आर्जव कौण्डिन्य, सुपरितोष नामक तपोवन योगदृष्टिसमुच्चय और योगबिन्दु संस्कृत में हैं। तापस-आश्रम और वहाँ दीक्षित अग्निशर्मा के तप ये अपेक्षाकृत विस्तृत हैं । योगदृष्टिसमुच्चय में २२८ का जो उल्लेख किया है, उससे तापस-परम्परा की तथा योगबिन्दु में ५२७ श्लोक हैं। सभी अनुष्टुप् प्राचीनता अनुमित होती है। छन्द में हैं । इन ग्रन्थों में लेखक ने अन्यान्य योग___ आगे जाकर साधकों की पुराकालवर्ती अवधूत परम्पराओं में स्वीकृत विचारों के साथ तुलनात्मक एवं तापस परम्परा के परिष्करण तथा नवीकरण समन्वयात्मक दृष्टि से जैन साधनाक्रम को योग की में पतंजलि का योगसूत्र बहुत प्रेरक बना, ऐसा शैली में उपस्थित करने का स्तुत्य प्रयास किया है। (s सम्भावित लगता है। क्योंकि उत्तरवर्ती काल में योगदृष्टि समुच्चय में इच्छायोग, शास्त्रयोग, साधना के सन्दर्भ में जो विकास हुआ, उसमें दैहिक सामर्थ्ययोग मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, अभ्यास का स्थान अपेक्षाकृत गौण होता गया और कान्ता, प्रभा, परा-आठ योगदृष्टियों', ओघदृष्टि धारणा, ध्यान एवं समाधिपरक आन्तरिक शुद्धि योगदृष्टि तथा कुलयोगी, गोत्रयोगी, प्रवृत्तचक्रकी ओर साधकों का आकर्षण बढ़ता गया। योगी, निष्पन्नयोगी के रूप में योगियों के भेदों का १. औपपातिक सूत्र ७४-६६ । ३. योगदृष्टिसमुच्चय २-११ । ५. योगदृष्टिसमुच्चय १४-१६ । २. समराइच्चकहा प्रथम भव । ४. योगदृष्टिसमुच्चय १३, १४ । ६. योगदृष्टिसमुच्चय २०७-१२ । ४२७ | पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास C साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Şair Education International Por Private & Personal Use Only www.janarary.org

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