Book Title: Haribhadra ke Prakrit yoga Grantho ka Mulyankan
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ परिमित, सीमित हो जाती है । संसार के पुदुगलों को केवल एक बार किसी न किसी रूप में भोग सके, मात्र इतनी अवधि बाकी रह जाती है, उसे चरम पुद्गल परावर्त या चरमावर्त कहा जाता है । जैन- दर्शन में प्रत्येक कर्म की जघन्य कम से कम तथा उत्कृष्ट अधिक से अधिक दो प्रकार की आवधिक स्थितियाँ मानी गयी हैं। आठ प्रकार के कर्मों में मोहनीय कर्म प्रधान है। मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ सागरोपम है, जिसका मुख्य कारण जीव का तीव्र कषाययुक्त होना है । जब जीव चरम-पुद्गल-परावर्त स्थिति में होता है, उस समय कषाय बहुत ही मन्द रहते हैं । फलतः वह फिर सत्तर कोड़ाकोड़ सागरोपम स्थिति के मोहनीय कर्म का बन्ध नहीं करता । उसे अपुनबन्धक कहा जाता है ! अपुनर्बन्धकता की स्थिति पा लेने के पश्चात् जीवन सन्मार्गाभिमुख हो जाता है । उसकी मोहरागमयी कर्म-ग्रन्थी टूट जाती है । सम्यक दर्शन प्राप्त हो जाता है । ४३० धर्मशास्त्रों में निरूपित विधि के अनुरूप गुरुजन का विनय, शुश्रूषा सेवा, परिचर्या करे, उनसे तत्त्व ज्ञान सुनने की उत्कण्ठा रखे तथा अपनी क्षमता के अनुरूप शास्त्रोक्त विधि-निषेध का पालन करे अर्थात् शास्त्र - विहित का आचरण करे, शास्त्रनिषिद्ध का आचरण न करे । Jain Education International पावन तिव्वभावा कुणइ न बहु मन्नई भवं घोरं । उचियदिठईं च सेवइ सव्वथ वि अपुणबंधो त्ति | १३ | पूर्वक पाप कर्म नहीं करता, घोर - भीषण, भयावह अपुनर्बन्धक तीव्र भाव- उत्कट कलुषित भावनासंसार को बहुत नहीं मानता । उसमें आसक्त - रचावैयक्तिक, धार्मिक-सभी कार्यों में उचित स्थितिपचा नहीं रहता । लौकिक, सामाजिक, पारिवारिक, न्यायपूर्ण मर्यादा का पालन करता है । पढमस्स लोकधम्मे परपीडावज्जणाइ ओहेणं । गुरुदेवातिहिपूयाइ दीणदाणाइ अहिगिच्च ॥ २५ ॥ साधक की यह वह स्थिति है, जब वह योगसाधना के योग्य हो जाता है, किन्तु योग मार्ग पर आरूढ़ होने के लिए, उस पर अनवरत गतिशील रहने हेतु कुछ और चाहिए। वह है ऐसे सात्विक, सौम्य, विनीत, सेवासम्पृक्त, करुणाशील जीवन की उर्वर पृष्ठभूमि, जिसमें योग के बीज अंकुरित, उद्गत, अभिवर्द्धत, पुष्पित एवं फलित हो सकें । इसके लिए आ हरिभद्र ने योगबिन्दु में पूर्व सेवा के रूप में वैसे सद्गुणों का विवेचन किया। योग- गिहिणो इमो वि जोगो कि पुण जो शतक में ग्रन्थकार ने " पूर्वसेवा" पद का प्रयोग तो नहीं किया है, किन्तु व्यवहार योग, योगाधिकारी की पहचान, मार्ग दर्शन, कर्तव्य बोध आदि के रूप में वही सब कहा है, जो पूर्व सेवा में प्रतिपादित है । लिखा हैगुरुविणओ सुसाइया य विहिणा उ धम्मसत्थेसु । तह चेवाणुट्ठाणं विहि-पडिसेहेसु जहसत्ती || श प्रथम भूमिका का साधक दूसरों को पीड़ा न दे । गुरु, देव तथा अतिथि का सत्कार करे, दीन जनों को दान दे, सहयोग करे । आ० हरिभद्र के अनुसार ये लोक-धर्म हैं, जो प्रथम भूमिका के साधक के लिए अनुसरणीय है । आगे उन्होंने कहा है सदधम्माणुवरोहा वित्ती दाणं च तेण सुविसुद्ध जिणपूय भोयणविही संझा-नियमो य जोगं तु ॥ चियवंदण - जइविस्सामणा य सवणं च धम्मविसयति । भावणा - मग्गो ||३०,३१॥ सद्धर्म के अनुरोधपूर्वक - सद्धर्म की आराधना में बाधा न आए, यह ध्यान में रखते हुए गृही साधक अपनी आजीविका चलाए, विशुद्ध-निर्दोष दान दे, जिनेश्वरदेव - वीतराम प्रभु की पूजा करे, यथाविधि - यथानियम भोजन करे, सायंकालीन उपासना के नियमों का पालन करे । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न ग्रन्थ vate & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12