Book Title: Haribhadra ke Prakrit yoga Grantho ka Mulyankan
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 डॉ० छगनलाल शास्त्री एम. ए. (त्रिधा), पी-एच. डी. प्रोफेसर-मद्रास विश्वविद्यालय आचार्य हरिभद्र के प्राकृत योग ग्रन्थों का मूल्यांकन __ भारतीय वाङमय में प्राकृत का अपना महत्व- प्रयोग की दृष्टि से अवश्य ही कतिपय प्रादेशिक पूर्ण स्थान है। विभिन्न प्राकृतों का यत्किचित् प्रादे- बोलियाँ रही होंगी। शिक भेद के साथ भारोपीय भाषा-परिवार या महाभाष्यकार पतंजलि ने महाभाष्य के प्रारंभ आर्यभाषा-परिवार के क्षेत्र में भारत के पश्चिमी, में व्याकरण या शब्दानुशासन का लक्ष्य निरूपित पूर्वी, उत्तरी एवं मध्य भाग में जन-जन में लोक करते हुए लिखा हैभाषा के रूप में व्यापक प्रचलन रहा है। "जो शब्दों के प्रयोग में कुशल है, जो शब्दों का समुचित रूप में उपयोग करना जानता है, वह - भाषाशास्त्रियों ने भाषा-परिवारों का विश्लेषण व्यवहार-काल में उनका यथावत् सही-सही उपयोग करते हुए प्राकृतों की मध्यकालीन भारतीय आर्य करता है।" 9197377 (Middle Indo Aryan Languages) Å भाषा के शुद्ध प्रयोग की फलनिष्पत्ति का जिक्र परिगणना की है। उनके अनुसार भारतीय आर्य- करते हए वे कहते हैं-"ऐसा करना न केवल इस भाषाओं के विकास-क्रम के अन्तर्गत प्राकृत का लोक में उसके लिए श्रेयस्कर होता है, वरन् परकाल ई. पू. ५०० से माना जाता है, पर यदि हम लोक में भी यह उसके उत्कर्ष का हेतु है। जो गहराई में जाएं तो यह विकासक्रम का स्थूल निर्धा अशुद्ध शब्दों का प्रयोग करता है, वह दोषभाक् । रण प्रतीत होता है। प्राचीन आर्य भाषाएँ (Early in Indo Aryan Languages) जिनका काल ई० पू० • आगे उन्होंने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है१५०० से ई. पू. ५०० माना जाता है, का प्रारम्भ "एक एक शब्द के अनेक अपभ्रंश-रूप प्रचलित छन्दस् या वैदिक संस्कृत से होता है। ऐसा हैं।" अपभ्रष्ट रूपों में उन्होंने गो के अर्थ में प्रचलित प्रतीत होता है कि यह विवेचन छन्दस् के गावी, गोणी, गोपतलिका का उल्लेख किया है । साहित्यिक रूप को दृष्टिगत रखकर किया इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि महाभाष्यकार गया है । वैदिक संस्कृत जन-साधारण की बोलचाल का संकेत उन बोलियों की ओर है, जो छन्दस्काल. की भाषा रही हो, ऐसा संभावित नहीं लगता। में लोक प्रचलित थीं। बोलचाल की भाषाओं में तब वैदिक संस्कृत के समकक्ष लोगों में दैनन्दिन रूप-वैविध्य का होना सर्वथा स्वाभाविक है । १. महाभाष्य प्रथम आह्निक पृ. ७ । २. महाभाष्य प्रथम आह्निक पृ.८ । ४२४ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Sate & Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा प्रतीत होता है,विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित वह प्राचीनतम साहित्य है, जिसका न केवल जैन वे बोलियाँ प्राचीन प्राकृतें रही हों, जिनका लोग धर्म एवं बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों के निरूपण की व्यवहार करते थे। उन्हीं के आधार पर परिष्कार- दृष्टि से ही महत्व है, वरन तत्कालीन भारत के पूर्वक छन्दस् या वैदिक संस्कृत का स्वरूप निर्मित लोक-जीवन, समाज, रीति-नीति, व्यापार, कृषि, हुआ हो। प्रशासन, न्याय, व्यवस्था, भोजन, वस्त्र आदि यद्यपि यह अब तक विवाद का विषय रहा है जीवन के सभी अपरिहार्य पक्षों पर मैं । कि संस्कृत तथा प्राकृत में किसे प्राचीन माना जाये विशद प्रकाश डालता है। पर प्राकृत की प्रकृति देखते ऐसा कहा जाना असंगत दिगम्बर परम्परा का प्राचीन साहित्य शौरसेनी नहीं होगा कि छन्दस् के काल में भी जन-व्यवहार्य में है। शौरसेनी का भारत के पश्चिमी भाग में भाषा के रूप में उसका अस्तित्व रहा है। अतः प्रचलन था। षट्खण्डागम के रूप में शौरसेनी में उसकी प्राचीनता छन्दस् से परवर्ती कैसे हो सकती जो साहित्य हमें उपलब्ध है, वह निश्चय ही कर्म सिद्धान्त पर विश्व के दर्शनों में अपना अप्रतिम भगवान महावीर एवं बुद्ध के समय में और स्थान लय हा आगे भी प्रायः समग्र उत्तर भारत में मागधी, अर्द्ध धर्म-सिद्धान्तों के निरूपण से संपृक्त होने के मागधी, शौरसेनी एवं पैशाची आदि का जन- कारण जैन परम्परा का प्राकृत के साथ जो तादाभाषाओं के रूप में अव्याबाध प्रचलन रहा है। त्म्य जुड़ा, वह आगे भी अनवरत गतिशील रहा। महावीर द्वारा अपने उपदेशों के माध्यम के रूप में यह भी ज्ञातव्य है, अपने प्रचलन-काल में अर्द्ध मागधी का स्वीकार तथा बुद्ध द्वारा मागधी प्राकृत की व्यापकता केवल जैनों तक ही सीमित (पालि) का स्वीकार यह सिद्ध करता है। नहीं रही। प्राकृत जन-जन की भाषा थी। संस्कृत समवायांग सूत्र, आचारांग चूणि, दशवकालिक नाटकों में जहाँ शिष्ट-विशिष्ट पात्रों के लिए वृत्ति आदि में इस आशय के उल्लेख हैं कि तीर्थंकर संस्कृत का प्रयोग हुआ है, वहाँ लोकजनीन पात्रों अर्द्धमागधी में धर्म का आख्यान करते हैं।1 के लिए, जिनमें व्यापारी, किसान, मजदूर, भृत्य, __फलतः प्राचीनतम श्वेताम्बर जैन वाड मय जो स्त्रियाँ, बालक आदि का समावेश है, विभिन्न द्वादशांगी के रूप में विश्र त है, उसमें से ग्यारह प्राकृतों का प्रयोग हुआ है। उससे प्राकृत की सर्वअंग हमें अर्द्धमागधी में प्राप्त हैं। बारहवाँ अंग जन भोग्यता सहज ही सिद्ध होती है । दृष्टिवाद विच्छिन्न माना जाता है । अंगों के आधार आगे चलकर साहित्यिक भाषा के रूप में महापर उपांग, छेद, मूल, आवश्यक, प्रकीर्णक आदि के राष्ट्री प्राकृत का विकास हुआ, जिसमें साहित्य की ए रूप में विपुल साहित्य अर्द्धमागधी में ही सजित विभिन्न विधाओं में रचना हुई। हुआ। इस सन्दर्भ में आगे बढ़ते हुए हम आ० हरिभद्र विनय पिटक, सुत्त पिटक, अभिधम्म पिटक सूरि के काल में प्रविष्ट होते हैं। यद्यपि वह तथा तत्परवर्ती बौद्ध साहित्य पालि में रचित साहित्य के क्षेत्र में लौकिक संस्कृत (Classical Sanskrit) का उत्कर्षकाल था, दर्शन, न्याय, व्या___ अर्द्धमागधी आगम एवं बौद्ध पिटक भारत का करण, काव्य आदि पर संस्कृत में लिखने को लेखक/403 हुआ। १. (क) समवायांग सूत्र ३४. २२, २३ (ख) दशवकालिक वृत्ति पृ. २२३ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ४२५ Jhin Education International Orpivate spersonalise only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक उत्साहित थे, पर जैन लेखकों ने प्राकृत में भी लिखना चालू रखा । आ० हरिभद्रसूरि इसके उदाहरण हैं । आ० हरिभद्र के काल के सम्बन्ध में विद्वानों ने काफी ऊहापोह किया है । अन्ततः पुरातत्त्व के प्रख्यात विद्वान तथा अन्वेषक मुनि जिनविजय ने उस पर सूक्ष्म गवेषणा की। उन्होंने आचार्य हरिभद्रसूरि का समय ई. सन् ७०० ७७० निर्धारित किया, जिसे अधिकांश विद्वान् प्रामाणिक मानते हैं । प्राचीन लेखकों तथा आधुनिक समीक्षकों द्वारा किये गए उल्लेखों के अनुसार हरिभद्र ब्राह्मण परम्परा से श्रमण परम्परा में आए थे । वे चित्रकूट > चित्तऊड > चित्तोड़ या चित्तौड़ के राजपुरोहित वंश से सम्बद्ध थे । अपने समय के उद्भट विद्वान थे । याकिनी महत्तरा नामक जैन साध्वी के सम्पर्क में आने से जैन धर्म की ओर आकृष्ट हुए । जैन धर्म में श्रमण के रूप में प्रव्रजित हुए । वैदिक परम्परा के तो वे महान् पण्डित थे ही साथ ही साथ बौद्ध दर्शन के भी मर्मज्ञ थे । जैन शास्त्रों का उन्होंने गहन अध्ययन किया । फलतः उनके वैदुष्य में एक ऐसा निखार आया, जो निःसंदेह अद्वितीय था । आ० हरिभद्र की भारतीय वाङ्मय को बहुत बड़ी देन है । उन्होंने अनेक विषयों पर विपुल साहित्य रचा, आगमों पर व्याख्याएँ लिखीं, धर्म व दर्शन पर रचनाएँ कीं, कथा - कृतियाँ भी रचीं । परम्परा से उन्हें १४००, १४४० या १४४४ प्रकरणों का रचनाकार माना जाता । यह स्पष्ट नहीं है कि प्रकरण का तात्पर्य एक पुस्तक है अथवा पुस्तक के अध्याय या भाग । सारांशतः छंटाई करने पर १. योगसूत्र १.२ । ३. तत्त्वार्थ सूत्र ९.३, १६-२० । ५. समदर्शी आ. हरिभद्र पृ. ६३-६५ । ४२६ प्राप्य अप्राप्य लगभग पचास ग्रन्थ ऐसे हैं. जिन्हें आचार्य हरिभद्र - रचित माना जाना सन्देहास्पद नहीं है । प्रस्तुत निबन्ध में योग पर प्राकृत में करेंगे । आचार्य हरिभद्र द्वारा जैनरचित कृतियों पर विचार वह एक ऐसा समय था, जब भारतवर्ष में विभिन्न धर्म-परम्पराओं में योग के नाम से आध्यात्मिक साधना के अनेक उपक्रम गतिशील थे | योग शब्द का पतंजलि ने चित्तवृत्ति निरोध के रूप में जो उपयोग किया है, जैन परम्परा में वैसा लगभग नहीं रहा है । वहाँ योग' आस्रव है, जो मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों से जुड़ा है । चैतसि शुद्धि, अन्तः परिष्कार या कर्म-निर्जरण के लिए जैन परम्परा में तप का स्वीकार हुआ है। ओपपातिक सूत्र आदि आगम-ग्रन्थों में तप के सम्बन्ध में विस्तृत विश्लेषण है । तपश्चरण का क्रम भारतवर्ष में बहुत प्राचीनकाल से प्रायः सभी धार्मिक परम्पराओं में रहा है । महान् प्रज्ञा पुरुष पं० सुखलालजी " संघवी के अनुसार कभी इस देश में ऐसे साधकों की परम्परा रही है, जो सांसारिक भोग, सुख-सुविधाएँ, मानअपमान आदि सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से सर्वथा अलिप्त, असंस्पृष्ट रहते हुए घोर तपोमय, पशु-पक्षी जैसा सर्वथा निष्परिग्रह जीवन जीते थे । उन्हें अवधूत शब्द से अभिहित किया जाता रहा है । भागवत' में ऋषभ का एक अवधुत योगी के रूप में वर्णन आया है । वर्तमान अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ का जैन साहित्य में जो वर्णन आता है, उससे भागवत का वर्णन तितिक्ष दृष्टि से बहुत कुछ मिलता-जुलता सा है । भागवत २. तत्त्वार्थसूत्र ६.१-२ । ४. औपपातिक सूत्र ३० । ६. भागवत ५.५, २८-३५, ५.६, ५.१६ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न ग्रन्थ PFO Private & Personal Use Only www.jaihelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । के ११वें स्कन्ध में अवधूत दत्त या दत्तात्रेय की चर्चा आ० हरिभद्रसूरि इन सब परम्पराओं का गह है, जिन्होंने अपने द्वारा विविध रूप में गृहीत राई से अध्ययन कर चुके थे । जिन तपःक्रमों, शिक्षाओं के कारण अपने चौबीस गुरु माने थे। साधना पद्धतियों, यौगिक क्रिया-प्रक्रियाओं के परि___ आचारांग का धृताध्यायन (प्रथम श्र तस्कन्ध पार्श्व में विकास पाती योग-साधना उनके समय षष्ठ अध्ययन) तथा विशुद्धिमग्ग का धतांग-निर्देश तक जिस रूप में पनप चुकी थी, उससे वे भलीभांति 15 अवधूत परम्परा की ओर संकेत करते प्रतीत होते परिचित थे । समय की मांग को देखते उन्हें यह हैं। भाषा-विज्ञान में निर्देशित प्रयत्नलाघव या आवश्यक प्रतीत हुआ कि जैन चिन्तनधारा को संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया के अनुसार 'अव' उपसर्ग केन्द्र में रखते हुए योग का एक ऐसा रूप उपस्थित हटाकर केवल धूत रख लिया गया हो। धुत 'ध' किया जाए, जो तत्सम्बन्धी सभी विचारधाराओं कम्पने का कृदन्त रूप है। अवधूत के सन्दर्भ में का समन्वय लिए हुए हो, जिसे अपनाने में किसी इसका आशय उस साधक से है, जिसने कर्म-शत्रुओं को कोई आपत्ति न लगे। को कंपा डाला हो, झकझोर दिया हो, हिला दिया योग के क्षेत्र में इस प्रकार का चिन्तन करने के हो। वाले आ० हरिभद्र सम्भवतः पहले व्यक्ति थे। ___ साथ ही साथ तापसों की भी विशेष परम्पराएँ क्योंकि तत्पूर्ववर्ती लगभग सभी योगाचार्यों ने अपनी इस देश में रही हैं, जिनकी तपःसाधना ब्राह्मण और अपनी परम्पराओं को ही उद्दिष्ट कर साहित्यश्रमण परम्परा का मिला-जुला रूप लिए थीं। रचना की। औपपातिक सूत्र आदि में जो विभिन्न परिव्राजकों, आ० हरिभद्र ने योग पर चार ग्रन्थ लिखे-१. तापसों का वर्णन आया है, वह इस पर प्रकाश योगदृष्टिसमुच्चय, २. योगबिन्दु, ३. योगशतक तथा डालता है । आ० हरिभद्रसूरि ने समराइच्चकहा में ४. योगविशिका। कुलपति आर्जव कौण्डिन्य, सुपरितोष नामक तपोवन योगदृष्टिसमुच्चय और योगबिन्दु संस्कृत में हैं। तापस-आश्रम और वहाँ दीक्षित अग्निशर्मा के तप ये अपेक्षाकृत विस्तृत हैं । योगदृष्टिसमुच्चय में २२८ का जो उल्लेख किया है, उससे तापस-परम्परा की तथा योगबिन्दु में ५२७ श्लोक हैं। सभी अनुष्टुप् प्राचीनता अनुमित होती है। छन्द में हैं । इन ग्रन्थों में लेखक ने अन्यान्य योग___ आगे जाकर साधकों की पुराकालवर्ती अवधूत परम्पराओं में स्वीकृत विचारों के साथ तुलनात्मक एवं तापस परम्परा के परिष्करण तथा नवीकरण समन्वयात्मक दृष्टि से जैन साधनाक्रम को योग की में पतंजलि का योगसूत्र बहुत प्रेरक बना, ऐसा शैली में उपस्थित करने का स्तुत्य प्रयास किया है। (s सम्भावित लगता है। क्योंकि उत्तरवर्ती काल में योगदृष्टि समुच्चय में इच्छायोग, शास्त्रयोग, साधना के सन्दर्भ में जो विकास हुआ, उसमें दैहिक सामर्थ्ययोग मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, अभ्यास का स्थान अपेक्षाकृत गौण होता गया और कान्ता, प्रभा, परा-आठ योगदृष्टियों', ओघदृष्टि धारणा, ध्यान एवं समाधिपरक आन्तरिक शुद्धि योगदृष्टि तथा कुलयोगी, गोत्रयोगी, प्रवृत्तचक्रकी ओर साधकों का आकर्षण बढ़ता गया। योगी, निष्पन्नयोगी के रूप में योगियों के भेदों का १. औपपातिक सूत्र ७४-६६ । ३. योगदृष्टिसमुच्चय २-११ । ५. योगदृष्टिसमुच्चय १४-१६ । २. समराइच्चकहा प्रथम भव । ४. योगदृष्टिसमुच्चय १३, १४ । ६. योगदृष्टिसमुच्चय २०७-१२ । ४२७ | पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास C साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Şair Education International Por Private & Personal Use Only www.janarary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो विवेचन किया है, वह सर्वथा मौलिक है, अन्यत्र योगशतक :* प्राप्त नहीं होता। भारत में शतपद्यात्मक कलेवरमय रचनाएँ । ___इसी प्रकार योगबिन्दु में पूर्वसेवा आदि प्रकरण शतकों के नाम से होती रही हैं। जिनभद्रगणि क्षमा | हैं, जो योग के क्षेत्र में नवीनता जोड़ते हैं। श्रमण कृत ध्यानशतक तथा आ० पूज्यपाद रचित एक एक और बड़े महत्व की बात है, जिसका उल्लेख समाधिशतक ऐसी ही रचनाएँ हैं। आगे भी यह परिहार्य है। आ० हरिभद्र ने योगबिन्द्र में क्रम गतिशील रहा, जिसमें आ० हरिभद्र का योगगोपेन्द्र तथा कालातीत नामक योगाचार्यों का शतक आता है। इसमें एक सौ एक उल्लेख किया है, जिनकी सूचना अन्यत्र कहीं नहीं आर्या छन्द में हैं, जो प्राकृत में गाथा के नाम से मिलती। उन्होंने समाधिराज' तक की चर्चा की प्रसिद्ध है। ( है, जो योग पर एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसे उत्तम ग्रन्थकार ने योगशतक में मंगलाचरण के (EOHI समाधि के अर्थ में समझने की भूल होती रही। पश्चात योग की परिभाषा तथा उसके भेद बतलाते | यह संस्कृत प्राकृत के मिले-जुले रूप में रचित ग्रन्थ हए लिखा हैहैं, जिनके चीनी भाषा भाषा में भी अनुवाद निच्छयओ इह जोगो सन्नाणाईण तिण्ह संबंधो। कार हुए। आ० हरिभद्र का दृष्टिकोण बड़ा अनैकान्तिक, मोक्खेण जोयणाओ निद्दिट्ठो जोगिनाहेहिं ॥२॥ उदार, समन्वयवादी और सर्वथा गुणनिष्ठापरक निश्चयदृष्टि से सम्यकज्ञान, सम्यकदर्शन तथा र था। यही कारण है, वे निःसंकोच कह सके- सम्यक्चारित्र--इन तीनों का आत्मा के साथ संबंध होना योग है । वह आत्मा का मोक्ष के साथ योजन पक्षपातो न मे वीरे, न द्वषः कपिलादिषु । युक्तिमद वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।। या योग करता है, इस कारण योगवेत्ताओं ने उसे - योग की संज्ञा दी है। वह निश्चय-योग है। अब -लोकतत्व निर्णय ३८ तक पातंजल योग स्वीकृत चित्तवृत्ति-निरोध तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय एवं योगबिन्दु में इस जैन-दर्शन स्वीकृत मनोवाक्काय-कर्म के अर्थ में संप्रआशय के और भी प्रसंग आये हैं, जो आ० हरिभद्र युक्त योग शब्द का यह तीसरा अर्थ आ० हरिभद्र ने की असंकीर्ण चिन्तनधारा के द्योतक हैं। उद्घाटित किया, जिसका युज्! योजने धातु के ___ योगशतक एवं योगविंशिका आ० हरिभद्र की 'जोड़ना' अर्थ से सीधा सम्बन्ध है। प्राकृत-रचनाएँ हैं, जिनमें व्यापक चिन्तनधारा के ग्रन्थकार ने योगविंशिका की पहली गाथा में परिपार्श्व में जैनसिद्धान्तों के केन्द्र से योग का योग की इसी रूप में परिभाषा की है। लिखा हैनिखार हुआ है । ग्रन्थकार ने जैन तत्त्वदर्शन और ___ मोक्खेण (मुक्खेण) जोयणाओ जोगो तद्गभित साधनामुलक आचारविधा को योग की सव्वो वि धम्मवावारो। नई शैली में अपनी इन कृतियों में उद्भासित किया - परिसुद्धो विन्ने ओ ठाणाइगओ विसेसेण ।।। है, जिससे जैन-दर्शन को गरिमा का प्राशस्त्य बड़ा जो आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है, वह सभी १. योगबिन्दु १००। ३. योगबिन्दु ४५६ । ५. योगबिन्दु ५२५ । २. योगबिन्दु ३०० । ४. शास्त्रवार्तासमुच्चय २०८, २०६, २३७ । nate. . ४२८ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास ( साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Code FUPNate & Personal Use Only www.jainelibrary org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pal प्रकार का धर्म-व्यापार-धर्मोपासना के वे सभी योग का अधिकारी कौन हो सकता है, इस या उपक्रम योग हैं । प्रस्तुत सन्दर्भ में योग का आशय सम्बन्ध में हरिभद्र ने जो तात्त्विक समाधान दिया का आसन, ध्यान आदि से है। है, वह उनकी गहरी सूझ का एवं जैन दर्शन की योगदृष्टि समुच्चय में सामर्थ्ययोग के योगसंन्यास मर्मज्ञता का सूचक है। नामक भेद का स्वरूप समझाते हुए लिखा है उन्होंने लिखा हैअतस्त्वयोगो योगानां, योगः पर उदाहृतः। अहिगारी पुण एत्थ विन्नेओ अपुणबंधगाइत्ति । मोक्षयोजनभावेन, सर्वसन्यासलक्षणः ॥ तह तह नियत्तपयई अहिगारोऽणेगभेओ त्ति ॥६॥ यहाँ योग को मोक्षयोजनभाव के रूप में व्या अपुनर्बन्धक-चरम पुद्गलावर्त में अवस्थित २ ख्यात किया है । अर्थात् वह आत्मा को मोक्ष से । पुरुष योग का अधिकारी है, ऐसा जानना चाहिये । जोड़ता है, वह आत्मभाव का परमात्मभाव के साथ कर्म-प्रवृत्ति की निवृत्ति-कर्म-पुद्गलों के निर्जरण योजक है । यह योजकत्व ही योग की वास्तविकता की तरतमता से प्रसूत स्थितियों के अनुसार गुण निष्पन्नता की दृष्टि से उसके अनेक भेद हो सकते इस श्लोक में एक बात अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यहाँ योग द्वारा अयोग प्राप्ति-योगराहित्य स्वायत अध्यात्म-जागरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत योगकरने का संकेत किया गया है। अर्थात् यहाँ योग बन्दु Iो बिन्दु' में भी यह प्रसंग विशद रूप में चचित हुआ द्वारा ध्यान आदि आत्म-साधना के उपक्रमों, उपायों है। द्वारा योग-मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवत्तियों अपूनर्बन्धक तथा चरम पुद्गलावर्त के सन्दर्भ | का सर्वथा निरोध कर अयोग-योगरहित बन जाने में जैन दर्शन की ऐसी मान्यता है कि जीव अनादिका भाव उजागर हुआ है । आत्मा की वह सर्वोत्तम काल से शरीर, मन, वचन द्वारा संसारस्थ पुद्गलों उन्नतावस्था है, जहाँ वह (आत्मा) सर्वथा अपने का किसी न किसी रूप में ग्रहण तथा विसर्जन स्वरूप में, स्वभाव में सम्प्रतिष्ठ हो जाती है। करता आ रहा है। कोई जीव विश्व के समस्त स्वरूप-सम्प्रतिष्ठान के पश्चात् कुछ करणीय बच पुद्गलों का एक बार किसी न किसी रूप में ग्रहण 4 नहीं जाता । वहाँ कर्ता, कर्म और क्रिया की त्रिपदी तथा विसर्जन कर चुकता है -सबका भोग कर - ऐक्य प्राप्त कर लेती है । वह आत्मा की देहातीता- लेता है, वह एक पुद्गल-परावर्त कहा जाता है। वस्था है, सहजावस्था है, परम आनन्दमय दशा है, यह पुद्गलों के ग्रहण-त्याग का क्रम जीव के योगसाधना की सम्पूर्ण सिद्धि है। सभी प्रवृत्तियाँ, अनादि काल से चला आ रहा है। यों सामान्यतः जिनका देह, इन्द्रिय आदि से सम्बन्ध है, वहाँ स्वयं जीव इस प्रकार के अनन्त पुद्गल-परावर्तों में से अपगत हो जाती है। यह योग द्वारा योगनिरोध- गुजरता रहा है। यही संसार की दीर्घ शृंखला या पूर्वक अयोग की उपलब्धि है। अयोग ही योगी का चक्र है । इस चक्र में भटकते हुए जीवों में कई भव्य परम लक्ष्य है। यह तब सधता है, जब नैश्चयिक या मोक्षाधिकारी जीव भी होते हैं, जिनका कषायदृष्टि से आत्मा में ज्ञान की अविचल ज्योति उद्दीप्त मान्द्य बढ़ता जाता है, मोहात्मक कर्म-प्रकृति की हो जाती है, निष्ठा का सुस्थिर सम्बल स्वायत्त हो शक्ति घटती जाती है। जीव का शुद्ध स्वभाव कुछजाता है। तदनुरूप साधना सहज रूप में अधिगत कुछ उद्भासित होने लगता है। ऐसी स्थिति आ हो जाती है। जाने पर जीव की संसार में भटकने की स्थिति १. योगबिन्दु १७६-७८ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास Oct 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6ero Sr Private & Personal Use Only www.jainetofary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमित, सीमित हो जाती है । संसार के पुदुगलों को केवल एक बार किसी न किसी रूप में भोग सके, मात्र इतनी अवधि बाकी रह जाती है, उसे चरम पुद्गल परावर्त या चरमावर्त कहा जाता है । जैन- दर्शन में प्रत्येक कर्म की जघन्य कम से कम तथा उत्कृष्ट अधिक से अधिक दो प्रकार की आवधिक स्थितियाँ मानी गयी हैं। आठ प्रकार के कर्मों में मोहनीय कर्म प्रधान है। मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ सागरोपम है, जिसका मुख्य कारण जीव का तीव्र कषाययुक्त होना है । जब जीव चरम-पुद्गल-परावर्त स्थिति में होता है, उस समय कषाय बहुत ही मन्द रहते हैं । फलतः वह फिर सत्तर कोड़ाकोड़ सागरोपम स्थिति के मोहनीय कर्म का बन्ध नहीं करता । उसे अपुनबन्धक कहा जाता है ! अपुनर्बन्धकता की स्थिति पा लेने के पश्चात् जीवन सन्मार्गाभिमुख हो जाता है । उसकी मोहरागमयी कर्म-ग्रन्थी टूट जाती है । सम्यक दर्शन प्राप्त हो जाता है । ४३० धर्मशास्त्रों में निरूपित विधि के अनुरूप गुरुजन का विनय, शुश्रूषा सेवा, परिचर्या करे, उनसे तत्त्व ज्ञान सुनने की उत्कण्ठा रखे तथा अपनी क्षमता के अनुरूप शास्त्रोक्त विधि-निषेध का पालन करे अर्थात् शास्त्र - विहित का आचरण करे, शास्त्रनिषिद्ध का आचरण न करे । पावन तिव्वभावा कुणइ न बहु मन्नई भवं घोरं । उचियदिठईं च सेवइ सव्वथ वि अपुणबंधो त्ति | १३ | पूर्वक पाप कर्म नहीं करता, घोर - भीषण, भयावह अपुनर्बन्धक तीव्र भाव- उत्कट कलुषित भावनासंसार को बहुत नहीं मानता । उसमें आसक्त - रचावैयक्तिक, धार्मिक-सभी कार्यों में उचित स्थितिपचा नहीं रहता । लौकिक, सामाजिक, पारिवारिक, न्यायपूर्ण मर्यादा का पालन करता है । पढमस्स लोकधम्मे परपीडावज्जणाइ ओहेणं । गुरुदेवातिहिपूयाइ दीणदाणाइ अहिगिच्च ॥ २५ ॥ साधक की यह वह स्थिति है, जब वह योगसाधना के योग्य हो जाता है, किन्तु योग मार्ग पर आरूढ़ होने के लिए, उस पर अनवरत गतिशील रहने हेतु कुछ और चाहिए। वह है ऐसे सात्विक, सौम्य, विनीत, सेवासम्पृक्त, करुणाशील जीवन की उर्वर पृष्ठभूमि, जिसमें योग के बीज अंकुरित, उद्गत, अभिवर्द्धत, पुष्पित एवं फलित हो सकें । इसके लिए आ हरिभद्र ने योगबिन्दु में पूर्व सेवा के रूप में वैसे सद्गुणों का विवेचन किया। योग- गिहिणो इमो वि जोगो कि पुण जो शतक में ग्रन्थकार ने " पूर्वसेवा" पद का प्रयोग तो नहीं किया है, किन्तु व्यवहार योग, योगाधिकारी की पहचान, मार्ग दर्शन, कर्तव्य बोध आदि के रूप में वही सब कहा है, जो पूर्व सेवा में प्रतिपादित है । लिखा हैगुरुविणओ सुसाइया य विहिणा उ धम्मसत्थेसु । तह चेवाणुट्ठाणं विहि-पडिसेहेसु जहसत्ती || श प्रथम भूमिका का साधक दूसरों को पीड़ा न दे । गुरु, देव तथा अतिथि का सत्कार करे, दीन जनों को दान दे, सहयोग करे । आ० हरिभद्र के अनुसार ये लोक-धर्म हैं, जो प्रथम भूमिका के साधक के लिए अनुसरणीय है । आगे उन्होंने कहा है सदधम्माणुवरोहा वित्ती दाणं च तेण सुविसुद्ध जिणपूय भोयणविही संझा-नियमो य जोगं तु ॥ चियवंदण - जइविस्सामणा य सवणं च धम्मविसयति । भावणा - मग्गो ||३०,३१॥ सद्धर्म के अनुरोधपूर्वक - सद्धर्म की आराधना में बाधा न आए, यह ध्यान में रखते हुए गृही साधक अपनी आजीविका चलाए, विशुद्ध-निर्दोष दान दे, जिनेश्वरदेव - वीतराम प्रभु की पूजा करे, यथाविधि - यथानियम भोजन करे, सायंकालीन उपासना के नियमों का पालन करे । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न ग्रन्थ vate & Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य-वन्दन, यति - संयमी साधु को स्थान, पात्र आदि का सहयोग, उनसे धर्म-श्रवण इत्यादि सत्कार्य करे, भावना-मार्ग का - बारह भावनाओं का एवं मैत्री, मुदिता, करुणा तथा माध्यस्थ्य भावना का अभ्यास करे | यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भावनाएँ चैतसिक परिष्कार का अनन्य हेतु हो सकती हैं, यदि उनका यथाविधि योग की पद्धति से अभ्यास किया जाए । ऐसा प्रतीत होता है, जैन परम्परा में कभी भावनाओं के अभ्यास का कोई वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक क्रम रहा हो, जो हमें आज उपलब्ध नहीं है । योगबिन्दु और योगशतक में शील, सदाचार आदि लोकधर्मों के परिपालन की जो विस्तार से चर्चा की गयी है, उसका एक ही अभिप्राय है, साधक जीवन में मानवोचित शालीनता सहज रूप में स्वायत्त कर सके, जिससे आगे वह योग-साधना की लम्बी यात्रा में अविश्रान्त रूप में बढ़ता जा सके । एवं चि अवयारो जायइ मग्गम्मि हंदि एयस्स । रणे पहप भट्टो वट्टाए वट्टमोरई ||२६|| जैसे वन में मार्ग भूले हुए पथिक को पगडंडी बतला दी जाए तो उससे वह अपने सही पथ पर पहुँच जाता है, वैसे ही वह साधक लोक धर्म के . माध्यम से अध्यात्म में पहुँच जाता है । लोक धर्म और अध्यात्म का समन्वय जीवन की समग्रता है । जहाँ यह नहीं होती, वह जीवन का खण्डित रूप है, जिससे साध्य नहीं सधता । इसी तथ्य को आत्मसात् कराने हेतु हरिभद्र ने अनेक रूपों में इसकी चर्चा की है । इसी आशय को स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकार ने उससे सामायिक शुद्ध होती है । लिखा है श्रेणी के साधकों की चर्चा की है, जहाँ उत्तरोत्तर लोकोत्तर धर्म-संयम, व्रत तथा सामायिक साधना से साधक को जोड़ने का उनका अभिप्रेत है । 1 १. योगशतक २७-२६ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास जैन साधना में सामायिक का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । वह चारित्र का मुख्य अंग है । . ० हरिभद्र ने सामायिक को योग की भूमिका में परिगृहीत कर उसे जो सम्मार्जित, संस्कारित रूप प्रदान किया, वह उनकी गहरी सूझ का परिचायक है । उन्होंने सामायिक को अशुद्धि से बचाने पर बड़ा जोर दिया है । कहा हैuse से विहिएसु य ईसिरागभावे वि । सामाइयं असृद्ध ं सुद्ध ं समयाए दोसुं पि ॥ १७॥ शास्त्रों में जिनका प्रतिषेध निषेध किया गया है, ऐसे विषयों कार्यों में द्वेष तथा शास्त्रों में जिनका विधान किया गया है, उनमे थोड़ा भी राग सामायिक को अशुद्ध बना देते हैं, जो इन दोनों में - निषिद्ध तथा विहित में समभाव रखता है, ० हरिभद्र ने इस गाथा द्वारा साधक को चिन्तन की उस पवित्रतम भूमिका से जोड़ने का प्रयत्न किया है, जहाँ मन समता-रस में इतना आप्लुत हो जाए कि वह पाप से अप्रीति या घृणा तथा पुण्य से प्रीति या आसक्ति से ऊँचा उठ सके। राग, द्वेष, मोह आदि दोषों के परिहार हेतु साधक अपने चिन्तन को कैसा मोड़ दे, इस पर सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए ग्रन्थकार ने बतलाया है। उन्होंने योगशतक में आगे द्वितीय और तृतीय कि राग अभिसंग -- आसक्तता - प्रीतिमत्ता से जुड़ा जैन दर्शन कर्म सिद्धान्त पर टिका है । अतः ग्रन्थकार ने ५३ से ५८ गाथा तक छह गाथाओं में कर्मवाद का संक्षिप्त किन्तु बड़ा बोधप्रद विश्लेषण किया है । साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ : ४३१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तथा द्वष अप्रीति से । ये दोनों ही मोह-प्रसूत ज्यों-ज्यों योगांगों की सिद्धि होती जाती है, अवस्थाएँ हैं । साधक यह दृष्टि में रखते हुए गहराई योगी को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती जाती हैं, 12 से विचार करे कि इनमें मुझे दृढ़ता से डटकर, जिन्हें पतंजलि ने विभूतियाँ कहा है, बौद्ध परम्परा अत्यधिक रूप में कौन पीड़ित कर रहा है ? यह में जो अभिज्ञाएँ कही गयी हैं, जैन परम्परा में वे समझता हुआ उन दोषों के स्वरूप, परिणाम, विपाक लब्धियों के नाम से अभिहित हुई हैं। ग्रन्थकार ने आदि पर एकान्त में एकाग्र मन से भली-भाँति ८३, ८४, ८५ गाथाओं में संक्षेप में रत्न आदि, चिन्तन करें। अणिमा आदि आमोसहि (आमौषधि) आदि । यह चिन्तन की अन्तःस्पर्शी सूक्ष्म प्रक्रिया है, लब्धियों की ओर संकेत किया है। जो साधक को शक्ति, अन्तःस्फूर्ति प्रदान करती ऐसा माना जाता है, जिस योगी को आमोसहि सिद्ध हो जाती है, उसके स्पर्श मात्र से रोग दूर हो आगे उन्होंने प्रत्येक दोष के प्रतिपक्षी भावों पर जाते हैं। गहराई से सोचते हुए दोष-मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त योग-साधना के सार रूप में ग्रन्थकार ने मनोकिया है। भाव के वैशिष्ट्य की विशेष रूप से चर्चा की है। ___समग्र चिन्तन, चर्या एवं अभ्यास-ये सब उन्होंने बताया है कि कायिक क्रिया द्वारा-मात्र शाश्वत जैन सिद्धान्तों की धुरी पर टिके रहें, अत- देहाधित बाह्य तप द्वारा नष्ट हुए दोष मण्डूक चूर्ण एव उन्होंने प्रसंगोपात्त रूप में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के समान हैं । वे ही दोष यदि भावना द्वारा, शुद्ध का संक्षेप में तात्त्विक शैली में निरूपण किया है, अन्तर्वत्ति या मानसिक परिशुद्धि द्वारा क्षीण किये ताकि साधक की मनोभूमि सत्योन्मुख दृढ़ता से गये हों तो मण्डूक-भस्म के समान हैं। परिपोषित रहें। मण्डूक-चूर्ण तथा मण्डूक-भस्म का उदाहरण आहार-शुद्धि पर प्रकाश डालते हुए ग्रन्थकार ने गृह त्यागी साधकों को, जिनका जीवन भिक्षा कायिक क्रिया एवं भावनानुगत क्रिया का भेद चर्या पर आधृत है, जो समझाया है, वह बड़ा बोध स्पष्ट करने के लिए प्राचीन दार्शनिक साहित्य में प्रद है। उन्होंने भिक्षा को ज्ञान-लेप से उपमित प्रयोग में आता रहा है। ऐसा माना जाता है कि किया है। फोड़े पर, उसे मिटाने हेतु जैसे किसी मेंढक के शरीर के टुकड़े-२ हो जाएँ तो भी नई वर्षा । का जल गिरते ही उसके शरीर के वे अंग परस्पर दवा का लेप किया जाता है, उसी प्रकार क्षुधा, तृषा आदि मिटाने हेतु भिक्षा ग्रहण की जाती है, __ मिलकर सजीव मेंढ़क के रूप में परिणत हो जाते हैं। यदि मेंढक का शरीर जलकर राख हो जाए IN दवा कितनी ही कीमती हो, फोड़े पर उतनी ही लगायी जाती है, जितनी आवश्यक हो। उसी - तो फिर चाहे कितनी ही वर्षा हो, वह पुनः सजीव प्रकार भिक्षा में प्राप्त हो रहे खाद्य, पेय आदि " नहीं होता। पदार्थ कितने ही सुस्वादु एवं सरस क्यों न हों, वे योगसूत्र के टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने अपनी अनासक्त भाव से उतने ही स्वीकार किये जाएं, टीका (तत्ववैशारदी) में इस उदाहरण का उल्लेख जितनी आवश्यकता हो । ऐसा न करने पर भिक्षा सदोष हो जाती है। ग्रन्थकार ने मनःशुद्धि या मनोजय पर बड़ा जोर २. योगशतक ६७-७० । १. योगशतक ५६-६०। ३. योगशतक ७२-७३ । ४३२ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ - ONYrivate & Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PM IAS पत दिया है। उन्होंने बोधिसत्त्व का उदाहरण देते हुए विजय ने टीका की रचना की, जो प्रस्तुत कृति में बताया है कि वे कामपाती होते हैं, चित्तपाती नहीं अति संक्षेप में प्रतिपादित विषयों के स्पष्टीकरण होते । क्योंकि उत्तम आशय-भाव या अभिप्राय के की दृष्टि से बहत उपयोगी है। कारण उनकी भावना-चित्त-स्थिति शुद्ध होती योगविंशिका की प्रयम गाथा में लेखक ने आत्मा का मोक्ष से योजन रूप योग का लक्षण बतलाकर यहाँ कहने का आशय यह है कि जब तक देह उसके भेदों की ओर इंगित किया है। in है, कर्म का सर्वथा निरोध नहीं हो सकता, किन्तु दूसरी गाथा में उन्होंने योग के भेदों का विश्ले मन या भावना का परिष्कार हो सकता है, जिसके षण करते हुए कहा हैलिये साधक सतत् सप्रयत्न, सचेष्ट रहे, वहाँ विकार ठाणुन्नत्थालंबणरहिओ तन्तम्मि पंचहा एसो। न आने पाये। दुगमित्थकम्मजोगो तहा तियं नाणजोगो उ ।।२।। इस प्रकार आ० हरिभद्रसूरि ने प्रस्तुत ग्रन्थ के तन्त्र में-योगप्रधान शास्त्र में स्थान, ऊर्ण,अर्थ, 500 केवल १०१ श्लोकमय छोटे से कलेवर में योग के आलम्बन तथा अनावलम्बन-योग के पाँच भेद ||5 सन्दर्भ में बोधात्मक, तुलनात्मक दृष्टि से इतना कुछ बताये हैं । इनमें पहले दो-स्थान और ऊर्ण को कह दिया है, जो साधना की यात्रा कर्मयोग तथा उनके पश्चाद्वर्ती तीन-अर्थ, आलयोगी के लिए एक दिव्य पाथेय सिद्ध हो म्बन तथा अनावलम्बन को ज्ञानयोग कहा गया है। योगविशिका स्थान-स्थान का अर्थ स्थित होना है। योग में आसन शब्द जिस अर्थ में प्रचलित है, यहाँ स्थान ___ आचार्य हरिभद्रसूरि की प्राकृत में योग पर शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दूसरी कृति योगविशिका है। __ वास्तव में आसन के लिए स्थान शब्द का प्रयोग 3 भारतीय वाङमय में बीस-बीस, तीस-तीस विशेष संगत तथा युक्तिपूर्ण है। आसन का अर्थ I R) आदि पद्यों की पुस्तकात्मक रचनाओं का एक विशेष बैठना है । सब आसन बैठकर नहीं किये जाते । र क्रम रहा है । बौद्ध जगत् के सुप्रसिद्ध लेखक वसु- कुछ आसन बैठकर, कुछ सोकर तथा कुछ खड़े होकर || बन्धू ने विशिका-त्रिशिका के रूप में पुस्तक-रचना किए जाते हैं। देह की विभिन्न स्थितियों में अवकी, जिनमें उन्होंने विज्ञानवाद का विवेचन किया। स्थित होना स्थान शब्द से अधिक स्पष्ट होता है। किसी विषय को समग्रतया बहुत ही संक्षेप में ऊर्ण योगाभ्यास के सन्दर्भ में प्रत्येक क्रिया के या व्याख्यात करने की दृष्टि से विशिकाओं की पद्धति साथ जो सूत्र-संक्षिप्त शब्द - समवाय का उच्चा को उपयोगी माना गया । आ० हरिभद्र ने इसी रण किया जाता है, उसे ऊर्ण कहा जाता है । प्राचीन शैली के अनुरूप बीस विशिकाओं की रचना ऊर्ण को एक अपेक्षा से पातंजल योग-सम्मत की। वे सब प्राकृत भाषा में हैं। उनमें १७वों विशिका जप-स्थानीय' माना जा सकता है। योगविशिका है। इसमें आर्या छन्द का प्रयोग हुआ अर्थ-शब्द-समवाय-गभित अर्थ के अवबोध है। रचनाकार ने केवल बीस गाथाओं में योग के का व्यवसाय-प्रयत्न यहाँ अर्थ शब्द से अभिहित सारभूत तत्त्वों को उपस्थित करने का प्रस्तुत पुस्तक हुआ है। PL में जो विद्वत्तापूर्ण प्रयत्न किया है, वह गागर में आलम्बन-ध्यान में बाह्य प्रतीक आदि का सागर संजोने जैसा है। इस पर उपाध्याय यशो- आधार आलम्बन है । १. योगसूत्र १.२८ । ४३३ पचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 40 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Balducation International Nr Private & Personal. Use Only www.jaintierary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 327 हेमचन्द्र के योगशास्त्र, शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव आ० हरिभद्र के अनुसार जो पुरुष पूर्वोक्त रूप तथा भास्करनन्दी के ध्यानस्तव आदि में में योगाभिरत है, उसका अनुष्ठान सदनुष्ठान कहा वर्णित पिण्डस्थ, पदस्थ एवं रूपस्थ ध्यान से यह जाता है। तुलनीय है। सदनुष्ठान को उन्होंने चार प्रकार का बतलाया अनालम्बन-ध्यान में रूपात्मक पदार्थों का है-१. प्रीति-अनुष्ठान, २, भक्ति-अनुष्ठान, ३. सहारा न लेना अनावलम्बन कहा गया है। योग- आगमानुष्ठान तथा ४. असंगानुष्ठान । शास्त्र', ज्ञानार्णव तथा ध्यानस्तव में वर्णित रूपा- योग के पूर्वोक्त बीस भेदों में से प्रत्येक के ये तीत ध्यान से इसकी तुलना की जा सकती है। चार-चार भेद और होते हैं। इस प्रकार उसके आ० हरिभद्र ने योग के इन पाँच भेदों में से अस्सी भेद हो जाते हैं। प्रत्येक के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता एवं सिद्धि के रूप योगाभ्यास के सन्दर्भ में आ० हरिभद्र द्वारा में चार चार भेद और किये हैं । यों योग के बोस किये गये योग के ये भेद साधक को योगसाधना की का भेद हो जाते हैं। सूक्ष्मता में जाने की प्रेरणा प्रदान करते हैं । इनका इनकी व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया है कि सूक्ष्मता से संस्पर्श कर साधक अपने में आत्म-स्फूर्ति योगाराधक सत्पुरुषों-योगियों की चर्चा में प्रीति, का अनुभव करता है । फलतः वह योग के मार्ग पर स्पृहा, उत्कण्ठा का होना इच्छायोग है। उत्तरोत्तर, अधिकाधिक प्रगति करता जाता है। नवाभ्यासी के मन में ऐसी स्पृहा का उदित योगविशिका में गाथा १० से १४ तक आ० होना उसके उज्ज्वल भविष्य का सूचन है। हरिभद्र ने योग के परिप्रेक्ष्य में चैत्य-वन्दन के सम्बन्ध में चर्चा की है, जिसका योग से कोई सीधा प्रवृत्तिउपशम भावपूर्वक योग का यथार्थ रूप में पालन सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। प्रवृत्ति-योग है। वे चैत्यवन्दन सत्र की सार्थकता अर्थयोग और स्थिरता आलम्बन योग को साध लेने से ही मानते हैं । अर्थ____ आत्मबल द्वारा, बाधा-जनक स्थितियों की योग सम्यक् अर्थ के अवबोध की दिशा में चिन्तन परक उपक्रम है और आलम्बन योग प्रतीक-विशेष C चिन्ता से अतीत होकर सुस्थिर रूप से योग का प्रतिपालन स्थिरतायोग है। के सहारे ध्यान-प्रक्रिया। ___अर्थ और आलम्बन योग जहाँ सिद्ध हो जाते सिद्धि हैं, वहाँ चैत्यवन्दन साक्षात् मोक्ष-हेतु से जुड़ जाता साधक जब उपर्युक्त पंचविध योग साध चुकता है। है, तब वह न केवल स्वयं ही आत्म-शान्ति का अनु- जहाँ स्थान एवं ऊर्ण योग ही सिद्ध होते हैं, अर्थ भव करता है, वरन् जो भी उस योगी के सम्पर्क में एवं आलम्बन नहीं, वहाँ चैत्य-वन्दन मोक्ष का आते हैं, सहज रूप में उससे उत्प्रेरित होते हैं। साक्षात् हेतु तो नहीं बनता, परम्परा से वह मोक्ष योगी की उस स्थिति को सिद्धियोग कहा जाता है। हेतु होता है। आगे उन्होंने लिखा है - . १. योगशास्त्र, प्रकाश ७-६ । ३. ध्यानस्तव २४-३१ । ५. ज्ञानार्णव सर्ग ४० । २. ज्ञानार्णव सर्ग ३७-३६ । ४. योगशास्त्र १०.५ । ६. ध्यानस्तव ३२-३६ । ४३४ 6. पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Pivate & Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा at N जो व्यक्ति अर्थयोग एवं आलम्बन योग से रहित में ऐसा होता है. उसके साधुओं में साधुत्व का मूल ! है, जिसने स्थान-योग और ऊर्ण-योग भी नहीं साधा गुण ही नहीं रहता। है, उसका चैत्यवन्दनमूलक अनुष्ठान केवल कायिक वे स्त्रियों के समक्ष गाते हैं, अंटसंट बोलते हैं, IN चेष्टा है अथवा महामृषावाद है-निरी मिथ्या मानो वे अनियन्त्रित बैल हों। वे अशुद्ध आहार 0 प्रवंचना है, इसलिए अधिकारी-सुयोग्य व्यक्तियों को लेते हैं / जल, फल, पुष्प आदि सचित्त पदार्थ, 70 ही चैत्यवन्दन सूत्र का शिक्षण देना चाहिये / जो स्निग्ध व मधुर पदार्थ तथा लौंग, ताम्बूल आदि का || देशविरतियक्त हैं-आंशिक रूप में व्रतयक्त हैं. वे सेवन करते हैं। नित्य दो-तीन बार भोजन करते हैं। DS ही इसके सच्चे अधिकारी हैं। क्योंकि चैत्यवन्दन वे चैत्य. मठ आदि में निवास करते हैं। पजा सूत्र में "कायं वोसरामि" देह का व्युत्सर्ग करता हूँ, में आरम्भ समारंभ-हिंसा आदि सावध कार्य इन शब्दों से कायोत्सर्ग की जो प्रतिज्ञा प्रकट होती करते हैं, देव-द्रव्यों का भोग करते हैं। जिन-गृह है, वह सुव्रती के विरतिभाव या व्रत के कारण ही और शाला आदि का निर्माण करते हैं। घटित होती है-इस सत्य को भलीभांति समझ वे ज्योतिष बतलाते हैं, भविष्य कथन करते हैं, लेना चाहिये। चिकित्सा करते हैं। मंत्र-टोना-टोटका करते हैंसाथ ही साथ इस सन्दर्भ में इतना और ज्ञातव्य जो कार्य पापजनक हैं, नरक के हेतु हैं। है कि देशविरत से उच्च सर्वविरत साधक तत्त्वतः संबोध-प्रकरण के इस वर्णन से साध-संस्था की इसके अधिकारी हैं तथा देश विरति से निम्न स्थान- हीयमान चारित्रिक स्थिति का पता चलता है / वे, या वर्ती अपुनर्बन्धक या सम्यक्दृष्टि व्यवहारतः इसके जैसा पहले संकेत किया गया है, चैत्यों में आसक्त अधिकारी माने गये हैं। थे / चैत्यवंदन के नाम पर अपने आपको धार्मिक आ० हरिभद्र को योग जैसे विषय के अन्तर्गत सिद्ध करने के सिवाय उनके पास चारित्र्य नाम की चैत्यवन्दन जैसे विषय को इतने विशद रूप से कोई वस्तु बच नहीं पायी थी / उनको सन्मार्ग पर व्याख्यात करना, प्रस्तुत विषय से सम्पृक्त करना, लाने के लिए हरिभद्र ने चैत्यवन्दन के साथ योग को क्यों आवश्यक प्रतीत हुआ, इसका एक कारण है। जोड़ा है / जहाँ योग नहीं, वहाँ चैत्यवन्दन की वह युग चत्यवासियों का युग था, जिनमें आचार- प्रक्रिया नितान्त स्थूल है, बाह्य है। उससे धर्म की शुन्यता व्याप्त हो रही थी, जो केवल साधुत्व का आराधना कभी सध नहीं सकती। - वेष धारण किये हए थे, साधुत्व के नियमों का बिल- आ० हरिभद्र केवल एक महान ग्रन्थकार ही का कल पालन नहीं करते थे, चैत्यों में निवास करते थे नहीं थे, वे एक क्रान्तिकारी धर्मनायक भी थे। KI और उनका धर्म लगभग चैत्यवन्दन तक ही सीमित अस्त-निश्चय ही योग के क्षेत्र में आ० हरि हो गया था। साधु समाज की इस अधःपतित दशा भद्र की वह महान देन है, जो सदा स्मरणीय रहेगी। से आ० हरिभद्र बड़े चिन्तित थे। उन्होंने उनको प्रस्तुत निबन्ध में योगशतक और योगविशिकाजगाने के लिए संबोध-प्रकरण नामक ग्रन्थ की उनकी दो प्राकृत कृतियों के आधार पर जो कहा + रचना की / वहाँ उनके आचार आदि के बारे में गया है, वह तो एक संकेत मात्र है। आशा है, लिखा है प्रस्तुत विषय विद्वज्जन को गहन अनुशीलन और | . वे साधु भिन्न-भिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे, सुन्दर, अनुसंधान की दिशा में प्रेरित करेगा। धूपवासित वस्त्र धारण करते हैं। जिस श्रमण संघ 1. योगविशिका 17 / 2. योगविशिका 18 / 3. संबोध प्रकरण 46, 46, 57, 61, 63 / पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ed. 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