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अधिक उत्साहित थे, पर जैन लेखकों ने प्राकृत में भी लिखना चालू रखा । आ० हरिभद्रसूरि इसके उदाहरण हैं ।
आ० हरिभद्र के काल के सम्बन्ध में विद्वानों ने काफी ऊहापोह किया है । अन्ततः पुरातत्त्व के प्रख्यात विद्वान तथा अन्वेषक मुनि जिनविजय ने उस पर सूक्ष्म गवेषणा की। उन्होंने आचार्य हरिभद्रसूरि का समय ई. सन् ७०० ७७० निर्धारित किया, जिसे अधिकांश विद्वान् प्रामाणिक मानते हैं ।
प्राचीन लेखकों तथा आधुनिक समीक्षकों द्वारा किये गए उल्लेखों के अनुसार हरिभद्र ब्राह्मण परम्परा से श्रमण परम्परा में आए थे । वे चित्रकूट > चित्तऊड > चित्तोड़ या चित्तौड़ के राजपुरोहित वंश से सम्बद्ध थे । अपने समय के उद्भट विद्वान थे । याकिनी महत्तरा नामक जैन साध्वी के सम्पर्क में आने से जैन धर्म की ओर आकृष्ट हुए । जैन धर्म में श्रमण के रूप में प्रव्रजित हुए । वैदिक परम्परा के तो वे महान् पण्डित थे ही साथ ही साथ बौद्ध दर्शन के भी मर्मज्ञ थे । जैन शास्त्रों का उन्होंने गहन अध्ययन किया । फलतः उनके वैदुष्य में एक ऐसा निखार आया, जो निःसंदेह अद्वितीय था ।
आ० हरिभद्र की भारतीय वाङ्मय को बहुत बड़ी देन है । उन्होंने अनेक विषयों पर विपुल साहित्य रचा, आगमों पर व्याख्याएँ लिखीं, धर्म व दर्शन पर रचनाएँ कीं, कथा - कृतियाँ भी रचीं । परम्परा से उन्हें १४००, १४४० या १४४४ प्रकरणों का रचनाकार माना जाता । यह स्पष्ट नहीं है कि प्रकरण का तात्पर्य एक पुस्तक है अथवा पुस्तक के अध्याय या भाग । सारांशतः छंटाई करने पर
१. योगसूत्र १.२ ।
३. तत्त्वार्थ सूत्र ९.३, १६-२० ।
५. समदर्शी आ. हरिभद्र पृ. ६३-६५ ।
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प्राप्य अप्राप्य लगभग पचास ग्रन्थ ऐसे हैं. जिन्हें आचार्य हरिभद्र - रचित माना जाना सन्देहास्पद नहीं है ।
प्रस्तुत निबन्ध में योग पर प्राकृत में
करेंगे ।
आचार्य हरिभद्र द्वारा जैनरचित कृतियों पर विचार
वह एक ऐसा समय था, जब भारतवर्ष में विभिन्न धर्म-परम्पराओं में योग के नाम से आध्यात्मिक साधना के अनेक उपक्रम गतिशील थे | योग शब्द का पतंजलि ने चित्तवृत्ति निरोध के रूप में जो उपयोग किया है, जैन परम्परा में वैसा लगभग नहीं रहा है । वहाँ योग' आस्रव है, जो मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों से जुड़ा है । चैतसि शुद्धि, अन्तः परिष्कार या कर्म-निर्जरण के लिए जैन परम्परा में तप का स्वीकार हुआ है। ओपपातिक सूत्र आदि आगम-ग्रन्थों में तप के सम्बन्ध में विस्तृत विश्लेषण है ।
तपश्चरण का क्रम भारतवर्ष में बहुत प्राचीनकाल से प्रायः सभी धार्मिक परम्पराओं में रहा है । महान् प्रज्ञा पुरुष पं० सुखलालजी " संघवी के अनुसार कभी इस देश में ऐसे साधकों की परम्परा रही है, जो सांसारिक भोग, सुख-सुविधाएँ, मानअपमान आदि सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से सर्वथा अलिप्त, असंस्पृष्ट रहते हुए घोर तपोमय, पशु-पक्षी जैसा सर्वथा निष्परिग्रह जीवन जीते थे । उन्हें अवधूत शब्द से अभिहित किया जाता रहा है । भागवत' में ऋषभ का एक अवधुत योगी के रूप में वर्णन आया है । वर्तमान अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ का जैन साहित्य में जो वर्णन आता है, उससे भागवत का वर्णन तितिक्ष दृष्टि से बहुत कुछ मिलता-जुलता सा है । भागवत
२. तत्त्वार्थसूत्र ६.१-२ ।
४. औपपातिक सूत्र ३० ।
६. भागवत ५.५, २८-३५, ५.६, ५.१६ ।
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
साध्वीरत्न ग्रन्थ
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