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________________ चैत्य-वन्दन, यति - संयमी साधु को स्थान, पात्र आदि का सहयोग, उनसे धर्म-श्रवण इत्यादि सत्कार्य करे, भावना-मार्ग का - बारह भावनाओं का एवं मैत्री, मुदिता, करुणा तथा माध्यस्थ्य भावना का अभ्यास करे | यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भावनाएँ चैतसिक परिष्कार का अनन्य हेतु हो सकती हैं, यदि उनका यथाविधि योग की पद्धति से अभ्यास किया जाए । ऐसा प्रतीत होता है, जैन परम्परा में कभी भावनाओं के अभ्यास का कोई वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक क्रम रहा हो, जो हमें आज उपलब्ध नहीं है । योगबिन्दु और योगशतक में शील, सदाचार आदि लोकधर्मों के परिपालन की जो विस्तार से चर्चा की गयी है, उसका एक ही अभिप्राय है, साधक जीवन में मानवोचित शालीनता सहज रूप में स्वायत्त कर सके, जिससे आगे वह योग-साधना की लम्बी यात्रा में अविश्रान्त रूप में बढ़ता जा सके । एवं चि अवयारो जायइ मग्गम्मि हंदि एयस्स । रणे पहप भट्टो वट्टाए वट्टमोरई ||२६|| जैसे वन में मार्ग भूले हुए पथिक को पगडंडी बतला दी जाए तो उससे वह अपने सही पथ पर पहुँच जाता है, वैसे ही वह साधक लोक धर्म के . माध्यम से अध्यात्म में पहुँच जाता है । लोक धर्म और अध्यात्म का समन्वय जीवन की समग्रता है । जहाँ यह नहीं होती, वह जीवन का खण्डित रूप है, जिससे साध्य नहीं सधता । इसी तथ्य को आत्मसात् कराने हेतु हरिभद्र ने अनेक रूपों में इसकी चर्चा की है । इसी आशय को स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकार ने उससे सामायिक शुद्ध होती है । लिखा है श्रेणी के साधकों की चर्चा की है, जहाँ उत्तरोत्तर लोकोत्तर धर्म-संयम, व्रत तथा सामायिक साधना से साधक को जोड़ने का उनका अभिप्रेत है । 1 १. योगशतक २७-२६ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास जैन साधना में सामायिक का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । वह चारित्र का मुख्य अंग है । Jain Education International. ० हरिभद्र ने सामायिक को योग की भूमिका में परिगृहीत कर उसे जो सम्मार्जित, संस्कारित रूप प्रदान किया, वह उनकी गहरी सूझ का परिचायक है । उन्होंने सामायिक को अशुद्धि से बचाने पर बड़ा जोर दिया है । कहा हैuse से विहिएसु य ईसिरागभावे वि । सामाइयं असृद्ध ं सुद्ध ं समयाए दोसुं पि ॥ १७॥ शास्त्रों में जिनका प्रतिषेध निषेध किया गया है, ऐसे विषयों कार्यों में द्वेष तथा शास्त्रों में जिनका विधान किया गया है, उनमे थोड़ा भी राग सामायिक को अशुद्ध बना देते हैं, जो इन दोनों में - निषिद्ध तथा विहित में समभाव रखता है, ० हरिभद्र ने इस गाथा द्वारा साधक को चिन्तन की उस पवित्रतम भूमिका से जोड़ने का प्रयत्न किया है, जहाँ मन समता-रस में इतना आप्लुत हो जाए कि वह पाप से अप्रीति या घृणा तथा पुण्य से प्रीति या आसक्ति से ऊँचा उठ सके। राग, द्वेष, मोह आदि दोषों के परिहार हेतु साधक अपने चिन्तन को कैसा मोड़ दे, इस पर सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए ग्रन्थकार ने बतलाया है। उन्होंने योगशतक में आगे द्वितीय और तृतीय कि राग अभिसंग -- आसक्तता - प्रीतिमत्ता से जुड़ा जैन दर्शन कर्म सिद्धान्त पर टिका है । अतः ग्रन्थकार ने ५३ से ५८ गाथा तक छह गाथाओं में कर्मवाद का संक्षिप्त किन्तु बड़ा बोधप्रद विश्लेषण किया है । साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only: ४३१ www.jainelibrary.org
SR No.210201
Book TitleHaribhadra ke Prakrit yoga Grantho ka Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size2 MB
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