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है तथा द्वष अप्रीति से । ये दोनों ही मोह-प्रसूत ज्यों-ज्यों योगांगों की सिद्धि होती जाती है, अवस्थाएँ हैं । साधक यह दृष्टि में रखते हुए गहराई योगी को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती जाती हैं, 12 से विचार करे कि इनमें मुझे दृढ़ता से डटकर, जिन्हें पतंजलि ने विभूतियाँ कहा है, बौद्ध परम्परा अत्यधिक रूप में कौन पीड़ित कर रहा है ? यह में जो अभिज्ञाएँ कही गयी हैं, जैन परम्परा में वे समझता हुआ उन दोषों के स्वरूप, परिणाम, विपाक लब्धियों के नाम से अभिहित हुई हैं। ग्रन्थकार ने आदि पर एकान्त में एकाग्र मन से भली-भाँति ८३, ८४, ८५ गाथाओं में संक्षेप में रत्न आदि, चिन्तन करें।
अणिमा आदि आमोसहि (आमौषधि) आदि । यह चिन्तन की अन्तःस्पर्शी सूक्ष्म प्रक्रिया है, लब्धियों की ओर संकेत किया है। जो साधक को शक्ति, अन्तःस्फूर्ति प्रदान करती
ऐसा माना जाता है, जिस योगी को आमोसहि
सिद्ध हो जाती है, उसके स्पर्श मात्र से रोग दूर हो आगे उन्होंने प्रत्येक दोष के प्रतिपक्षी भावों पर जाते हैं। गहराई से सोचते हुए दोष-मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त
योग-साधना के सार रूप में ग्रन्थकार ने मनोकिया है।
भाव के वैशिष्ट्य की विशेष रूप से चर्चा की है। ___समग्र चिन्तन, चर्या एवं अभ्यास-ये सब उन्होंने बताया है कि कायिक क्रिया द्वारा-मात्र शाश्वत जैन सिद्धान्तों की धुरी पर टिके रहें, अत- देहाधित बाह्य तप द्वारा नष्ट हुए दोष मण्डूक चूर्ण एव उन्होंने प्रसंगोपात्त रूप में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के समान हैं । वे ही दोष यदि भावना द्वारा, शुद्ध का संक्षेप में तात्त्विक शैली में निरूपण किया है, अन्तर्वत्ति या मानसिक परिशुद्धि द्वारा क्षीण किये ताकि साधक की मनोभूमि सत्योन्मुख दृढ़ता से गये हों तो मण्डूक-भस्म के समान हैं। परिपोषित रहें।
मण्डूक-चूर्ण तथा मण्डूक-भस्म का उदाहरण आहार-शुद्धि पर प्रकाश डालते हुए ग्रन्थकार ने गृह त्यागी साधकों को, जिनका जीवन भिक्षा
कायिक क्रिया एवं भावनानुगत क्रिया का भेद चर्या पर आधृत है, जो समझाया है, वह बड़ा बोध
स्पष्ट करने के लिए प्राचीन दार्शनिक साहित्य में प्रद है। उन्होंने भिक्षा को ज्ञान-लेप से उपमित
प्रयोग में आता रहा है। ऐसा माना जाता है कि किया है। फोड़े पर, उसे मिटाने हेतु जैसे किसी
मेंढक के शरीर के टुकड़े-२ हो जाएँ तो भी नई वर्षा ।
का जल गिरते ही उसके शरीर के वे अंग परस्पर दवा का लेप किया जाता है, उसी प्रकार क्षुधा, तृषा आदि मिटाने हेतु भिक्षा ग्रहण की जाती है,
__ मिलकर सजीव मेंढ़क के रूप में परिणत हो जाते
हैं। यदि मेंढक का शरीर जलकर राख हो जाए IN दवा कितनी ही कीमती हो, फोड़े पर उतनी ही लगायी जाती है, जितनी आवश्यक हो। उसी
- तो फिर चाहे कितनी ही वर्षा हो, वह पुनः सजीव प्रकार भिक्षा में प्राप्त हो रहे खाद्य, पेय आदि
" नहीं होता। पदार्थ कितने ही सुस्वादु एवं सरस क्यों न हों, वे योगसूत्र के टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने अपनी अनासक्त भाव से उतने ही स्वीकार किये जाएं, टीका (तत्ववैशारदी) में इस उदाहरण का उल्लेख जितनी आवश्यकता हो । ऐसा न करने पर भिक्षा सदोष हो जाती है।
ग्रन्थकार ने मनःशुद्धि या मनोजय पर बड़ा जोर
२. योगशतक ६७-७० ।
१. योगशतक ५६-६०। ३. योगशतक ७२-७३ ।
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पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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